सरकार का अख़लाक़ ज़िंदा है
अख़लाक़ को किसी ने नहीं मारा। वह अपनी क़ब्र में लेटा सोच रहा है कि आख़िर किसने उसे यूं ज़िंदा दफ़न कर दिया। क्या उसने ख़ुदक़ुशी कर ली थी या फिर वह भीड़ जो दस साल पहले उसके घर आई थी, उससे बचने के लिए वह ख़ुद ब ख़ुद इस क़ब्र में उतर आया था। अख़लाक़ इसी उधेड़बुन में अपनी क़ब्र में पसीने-पसीने हो रहा था क्योंकि करवट लेने की कोई जगह तो वहां थी नहीं। सच ही तो है जैसी पहल अब सरकार ने की है उससे साफ़ है कि अख़लाक़ को किसी ने नहीं मारा। अगर जो मारा होता तब उसे मारने वाले भी सलाखों के पीछे होते,उसकी मां तकलीफ़ से मर न गई होती,उसकी बीवी अकेली व बीमार ना होती और उसका छोटा-सा घर जो राजधानी दिल्ली के क़रीब एक गाँव में था, यूं उजाड़ न पड़ा होता। उसके बच्चे कुछ भी बोलने में घबरा ना रहे होते। अब जब उसके तमाम आरोपियों को सरकार आरोप मुक्त करने की अर्ज़ी डाल चुकी है तब अख़लाक़ की क़ब्र भी ज़ोर ज़ोर से हिलने लगी है क्योंकि वह मरा नहीं था।
उत्तरप्रदेश सरकार ने दस साल पहले दादरी में हुई अख़लाक़ की हत्या के आरोपियों पर लगे सभी मुक़दमे वापस लेने की पहल की है। देश की राजधानी दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के दादरी स्थित बिसाहड़ा गांव में दस साल पहले हुई मोहम्मद अख़लाक़ (52)की भीड़ द्वारा की गई हत्या के मामले में सरकार की ओर से ग्रेटर नोएडा की जिला अदालत में प्रार्थना पत्र दायर किया गया है। शासन और संयुक्त निदेशक अभियोजन के निर्देश पर सरकारी वकील ने अदालत में यह अर्जी दाखिल की है। प्रार्थना पत्र में कहा गया है कि सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के दृष्टिकोण से मामला वापस लेने की अनुमति दी जाए। इस अर्जी पर सुनवाई 12 दिसंबर को होगी। फास्ट ट्रैक कोर्ट-1 के एडिशनल सेशंस जज के सामने सितंबर 2015 की इस चर्चित मॉब लिंचिंग प्रकरण में सरकार चाहती है कि मुकदमा वापस हो जाए। वहीं, अख़लाक़ पक्ष के वकील का कहना है कि उन्हें विश्वास है कि मुकदमा वापस नहीं होगा और इसकी सुनवाई जारी रहेगी। 28 सितंबर की रात जारचा थाना क्षेत्र के बिसाहड़ा गांव में गोमांस खाने की अफवाह फैलने के बाद भीड़ ने अख़लाक़ के घर पर धावा बोल दिया था। उसकी पीटकर हत्या कर दी गई, जबकि उसका बेटा दानिश गंभीर रूप से घायल हो गया था।
बेशक सद्भावना ही सशक्त समाज की बुनियाद होती है। बड़े-बड़े उत्सवों और इवेंट के लिए मशहूर सरकारें अगर भाईचारे को आधार बना कर पीड़ित पक्ष से बात करें, दुःख जताए तो हालात बदल सकते हैं। सम्भव है कि पीड़ित पक्ष के घावों पर मरहम रखा जा सके। इतिहास गवाह है कि समुदायों ने माफ़ी की उम्मीद की और जो ऐसा हुआ तो हालात बदले भी। यहां एक परिवार जो महज़ अफ़वाह के दम पर तबाह हुआ,सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।न्याय का सिद्धांत भी कहता है कि हर नागरिक की सुरक्षा और तरक़्क़ी सरकार का परम कर्तव्य है। अगर जो सद्भावना के ख़ातिर ही केस वापस लेना है तब बचाव में यह क्यों कहा जा रहा है कि अख़लाक़ के परिवार ने आरोपियों की संख्या में बार-बार बदलाव किया और यह भी कि घटनास्थल से कोई धारदार हथियार नहीं मिला है। अव्वल तो यह भीड़ द्वारा हत्या का मामला है, संख्या और पहचान में बदलाव हो सकता है। दूसरे किसी भी मनुष्य की जान लेने के लिए क्या हमेशा धारदार हथियार ही ज़रूरी होता है ? क्या एक लाठी या सांस का रुकना काफ़ी नहीं ? जिस मांस के लिए अख़लाक़ को भीड़ ने मार डाला वह मौके से ही बरामद कर पशु चिकित्सा अधिकारी को जांच के लिए सौंप दिया गया था, जिसका जब्ती मेमो भी तैयार किया गया। प्रारंभिक जांच में उस मांस का रंग लाल और फैट सफेद पाया गया, जो मटन की विशेषता होती है। ऐसे में प्रश्न लगातार उठता रहा है कि बाद की रिपोर्ट में वही मांस बीफ कैसे घोषित किया गया?
हेट क्राइम्स यानी जाति, धर्म, लिंग के आधार पर मानव-मानव में भेद। इस भेद को जो यूं बढ़ावा दिया गया तब सभ्य और सुसंस्कृत समाज में इंसानियत की मौत हो जाएगी। पीट-पीट कर मार देना उस कबीलाई दौर को लाना होगा जहां इंसान, जानवरों से भी बद्तर था। ऐसे में आरोप वापस लेना बताता है कि सरकारों के लिए हेट क्राइम्स अब एक 'न्यू नार्मल' है। इससे पहले बिलकिस बानो के अपराधियों को जेल से रिहा कराने के बाद सम्मानित करने की पहल भी देश ने देखी है। सच है कि वक्त के साथ ज़ख्म भी भरते हैं लेकिन यदि शक्तिशाली सरकार भीड़ के अपराधों को सामान्य मानने की कोशिश करेगी तब खुंखार अपराधी भीड़ का लाभ लेकर शांति व्यवस्था में ख़लल डालने को अपना new नॉर्मल बना लेंगे। हेट क्राइम्स को यूं हल्के में लेने की पूरी प्रक्रिया किसी भी सरकार में सुशासन का पर्याय नहीं हो सकती।
उस दिन अख़लाक़ को पीटने वाले सब जवान लड़के थे जिन्हें पास के मंदिर से ही सूचना मिली थी कि अख़लाक़ ने गाय को मारा है। भीड़ अख़लाक़ के घर की ओर चल पड़ी। रास्ते में भीड़ का सामना उसके बेटे से हुआ, उसका सर फोड़ दिया गया। घर पर हमला किया, फ्रिज खोला तब जो मिला उसे अपने शक की पुष्टि मान अख़लाक़ को इतना पीटा गया कि वह बेहोश हो गया। उसकी बूढ़ी मां और बीवी उसे बचाने की गुहार करती रहीं। वे बिलखती रहीं, भीड़ उसे पीटती रही। बेटे की बड़ी सर्जरी हुई वह बच गया लेकिन अख़लाक़ नहीं रहा। बाद में हमला करने वाले 19 आरोपियों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज़ हुआ जिनमें से एक तो उसके पड़ोस में ही रहता था। दस साल बाद भी कोई फ़ैसला नहीं आया और सभी आरोपी ज़मानत पर बाहर रहे । एक की पुलिस हिरासत में ही मौत हो गई थी। अब जब प्रदेश की सरकार ने उन पर लगे आरोप वापस लेने की अर्ज़ी दी है तब क्या कोई ऐसी अदालत भी होगी जहां यह तय होगा कि जब ये सभी निर्दोष थे तो सरकार इनके साथ दस साल से क्या कर रही थी ? क्या ये सरकार के मित्र थे जो यह समझ रहे थे कि कोई बात नहीं आप अपना समय लीजिये हमें इतने संगीन इलज़ाम में होना अच्छा लग रहा है ? इस मामले में भी सुनवाई ज़रूरी है। अपराध हो चुका, अब दस साल से न्याय की राह देख रहे परिवार को न्याय मिलना चाहिए। आतंक के ख़िलाफ़ ज़ीरो टॉलरेंस के साथ ही नफ़रती अपराधों पर ऐसी नीति होनी चाहिए कि कोई एक भी क़ानून अपने हाथ में ना ले।
कवि विष्णु नागर की पंक्तियां हैं -
उसने कहा
मेरा घर उजड़ गया है
मैंने कहा कोई बात नहीं
कभी न कभी बस जाएगा
आसमान भी अब मेरा नहीं रहा
मैंने कहा कोई बात नहीं
आसमान कहां जाएगा
आ जाएगा
उसने कहा
आप मेरी बात समझ नहीं रहे
मैंने कहा
कोई बात नहीं
कल भी तो आएगा
कल समझ जाएंगे।



टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें