चीन की चाल देख थमा अमेरिका और हम चुप
दुनिया की बहुप्रतीक्षित मुलाक़ात गुरुवार को दक्षिण कोरिया के शहर बुसान में हो गई। वहां ये दो शक्तिशाली देश ऐसे मिले जैसे तलाक की नौबत तक पहुंचे किसी जोड़े की अक्ल अचानक ठिकाने पर आ गई हो। ये वही ट्रंप हैं जिन्होंने दो महीने पहले कहा था कि भारत और रूस दोनों ही डीपेस्ट और डार्केस्ट चीन के साथ नत्थी हो गए हैं और हमने उन्हें खो दिया है। अब उनकी छलकती ख़ुशी देखकर लग रहा है जैसे चीन यकायक बहुत रोशन और चमकीला हो गया है। नया यह है कि अमेरिका और चीन मिल लिए हैं और किसी भी पक्ष ने गिरकर समझौता नहीं किया है । द्विपक्षीय संबंध लेन-देन और साझे हितों पर चलते हैं। वे दिन लद गए जब दुनिया के धनी मुल्क कमज़ोर मुल्कों की आर्थिक मदद करना अपना दायित्व समझते थे। अब इस हाथ दे और उस हाथ ले का ज़माना है। अमेरिका ने चीन पर टैरिफ़ क्या लादा तो चीन ने रेयर अर्थ मिनरल्स की अपनी नीति बदल उसका निर्यात ही रोक दिया,फेंटेनिल के निर्यात पर नियंत्रण हटा दिया। अमेरिका को बातचीत के लिए आगे आना ही पड़ा और अब चीन अमेरिकी किसानों का सोयाबीन,ज्वार आदि ख़रीदने को राज़ी हो गया और बदले में अमेरिका ने 57 फ़ीसदी के टैरिफ़ को 47 फ़ीसदी कर दिया है। अगले साल अप्रैल में अमेरिकी राष्ट्रपति चीन जाएंगे और फिर चीनी राष्ट्रपति अमेरिका आएंगे। इधर भारत पर टैरिफ़ घटाने को लेकर वार्ताओं का दौर जारी है लेकिन लगता यही है कि जिस तरह चीनी नेता ने गंभीरता और चतुराई का परिचय दिया है, भारत के कर्ता-धर्ता अपने बड़े बोलों को तौल-मौल की शक्ति में नहीं लगाते। होना यह भी चाहिए था कि भारत अपनी कृषि -नीति का पक्ष खुलकर सामने रखता कि हम अपने किसानों की बर्बादी की कीमत पर आपसे मक्का ,कपास या अपनी डेयरी का सौदा नहीं कर सकते।
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ख़ुशी अगर किसी को देखनी हो तो उसे एशिया यात्रा से लौटते हुए सैन्य विमान में हुई उस प्रेस मीट को देखना चाहिए जहां वे गदगद भाव से चीनी नेता के लिए कह रहे थे कि वे एक बेहद शक्तिशाली देश के बहुत महान नेता हैं और हम बहुत शुक्रागुजार हैं कि वे इस बैठक के लिए दक्षिण कोरिया आए। "मैं इस मुलाक़ात को 1से 10 के स्केल पर 12 अंक दूंगा क्योंकि कई सफल समझोतों के बाद देश में इतना धन आएगा जितना पहले कभी नहीं आया।" इससे अलग चीन के अधिकारी ने बेहद सधे हुए लहज़े में मुलाकात का ब्यौरा दिया ठीक वैसे ही जैसे शी जिन पिंग, डोनाल्ड ट्रंप के सामने थे धीर और गंभीर। चीन ने केवल एक साल के लिए रेयर अर्थ मिनरल्स (जिसका शोधन मुश्किल है और चीन बीते दस साल से कर रहा है ) निर्यात को लेकर अपनी नीति को एक साल के लिए मुल्तवी किया है क्योंकि यही मिनरल्स सेमीकंडक्टरों,इलेक्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिक वाहनों,रोबोटिक्स,हथियारों के लिए ज़रूरी हैं और इसके आभाव में अमेरिकी कंपनियां बिलबिला रही थी। इसके आलावा फेंटेनिल के निर्यात पर भी समझौता हुआ है।
फेंटेनिल एक दर्द निवारक दवा है जो कैंसर जैसी बीमारी में मॉर्फिन की तरह दर्द कम करती है लेकिन अमेरिका में युवा बतौर नशा इसे इस्तेमाल कर रहे हैं ,इसकी ज़रा -सी अधिकता भी जानलेवा होती है। यह पूरी तरह से प्रयोगशाला में बनी दवा है और अमेरिका चाहता है कि चीन इसका निर्यात बंद करे और इस बातचीत में चीन ने आश्वस्त भी किया है। छह साल बाद हुई इन दो देशों की मुलाक़ात से ज़ाहिर होता है कि दोनों ने अपने व्यापारिक हित साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चीन बाज़ी मार गया है और भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र होकर भी इंतज़ार में है और कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दे पा रहा है। अमेरिका चीन से रूस से तेल खरीदने को लेकर कोई तर्क नहीं करता जबकि इसी आधार पर उसने 25 फ़ीसदी का अतिरिक्त दंडात्मक टैरिफ भारत पर लगा रखा है। कभी अमेरिका की ओर तो कभी रूस-चीन की ओर देखने के निर्देशों का पालन करने वाली जनता के लिए हमारी ट्रेड-वार्ता क्या कुछ लेकर आती है देखना अभी बाकी है। फ़िलहाल तो यह देखने में आया है कि दशकों के अहम रिश्तों और महत्वपूर्ण पदों पर मौजूदगी के बावजूद अमेरिका भारतीय नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार पर भी तुल गया है।
यह कहानी भारत में जन्मे सुब्रमण्यम वेदम (63) की है जो बहुत छोटी उम्र में माता-पिता के साथ अमेरिका आ गया था। उसे 1980 में अपने दोस्त थॉमस किनसर की कथित हत्या के मामले में खुद को निर्दोष साबित करने के लिए चार दशक से भी ज्यादा का समय लगा। वेदम ने 43 साल जेल में बिना पैरोल के बिताए और जिस दिन वे पेन्सिलवेनिया की जेल से रिहा हुए, अगले ही दिन उन्हें डिपोर्ट करने का फरमान जारी हो गया। उनकी छोटी बहन जो खुद अमेरिका में प्रोफेसर हैं कहती हैं कि मेरे माता-पिता भी इसी देश के विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए बेटे की रिहाई की राह देखते चल बसे और यही एकमात्र देश है जिसे मेरा भाई जनता है,अब वह कहां जाएगा ? जेल में सुब्रमण्यम ने तीन डिग्रियां हासिल की और कैदियों के लिए नेक काम भी किये। इससे पहले टैक्सस में एक होटल व्यवसाई की हत्या हो गई थी। अमेरिका में भारतीयों को लेकर जो असहिष्णुता बढ़ी है इसे भी भारत सरकार को संज्ञान में लाना चाहिए। अमेरिका में रह रहे भारतियों का कहना है कि वे भी अब उतने संयमित नहीं रहे। उनकी उत्सवों को बड़े स्तर पर मनाने की ज़िद भी स्थानीय लोगों को असहज करती है।
अब जब सबसे बड़ी आबादीवाला देश चीन टैरिफ पर बेहतर समझौता कर चुका है, भारत के प्रयास भी तेज होने चाहिए। सवाल यही कि जो भारत इतना मज़बूत नेतृत्व रखता है, अब तक डील क्यों नहीं कर पाया। चीन के बाद सबसे ज़्यादा भारतीय (लगभग 54 लाख) अमेरिका में रहते हैं। थोड़ा गहराई से देखा जाए तो घरेलू राजनीति को साधने में हम इतने मसरूफ़ रहे कि वैश्विक मोर्चे पर खामखां ही अब पाकिस्तान का नाम चलने लगा है। पाकिस्तान से लड़ने और उससे ख़ुद को बेहतर साबित करने में भारत जो ऊर्जा ख़र्च करता है, उससे वैश्विक राजनीति में वह छोटी इकाई मालूम होता है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत के साथ, पाकिस्तान का नाम राष्ट्रपति ट्रंप लगातार ले रहे हैं। वे प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ भी करते हैं तो प्रधनमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ के साथ उनके सेनाध्यक्ष असीम मुनीर को भी अपना पसंदीदा फ़ील्ड मार्शल बता देते हैं। वे दोनों देशों की लड़ाई रुकवाने में भी ख़ुद की बड़ी भूमिका के ज़िक्र से भी नहीं चूकते। अपनी एशिया यात्रा में भी उन्होंने यही किया। पाकिस्तान नोबेल सम्मान के लिए उनकी अनुशंसा कर चुका है। भारत ऐसा करता है तो उसे यह मानना होगा कि राष्ट्रपति ट्रंप ही थे जिन्होंने दो परमाणु ताकतों के बीच युद्ध रुकवाया। जो भी हो अपना अर्थ तंत्र बनाए रखने के लिए भारत के नेताओं को 'बेस्ट डील' लेनी चाहिए और आईटी सेवा पर टैरिफ न थोपा जाए इसके भी प्रयास करने होंगे ।
बेशक चीन और अमेरिका की इस मुलाक़ात ने दुनिया में फैले व्यापार युद्ध में युद्ध - विराम का संदेश दिया है। ट्रंप की नई नीति ने एक के बाद कई देशों पर जो टैरिफ लगाए थे वह 1934 के बाद से सर्वाधिक हैं। तुम कर लगाओगे तो हम भी कर लादेंगे जैसी लड़ाई ने अर्थ-व्यवस्थाओं को भारी नुक़सान पहुंचाया। चीन के लिए तो अमेरिकी विशेषज्ञ यहां तक कहते हैं कि आज एआई के शोध में चीन बहुत आगे निकल गया है। जीजीआई ग्लोबल इनोवेशंस इंडेक्स ने भी 133 देशों में से चीन को 11 वीं रैंक दी है। इसमें पहले नंबर पर स्विट्ज़रलैंड ,दूसरे पर स्वीडन और तीसरे पर अमेरिका है। भारत जीजीआई-25 में 38 वे स्थान पर है। चीन की इसी तेज़ चाल ने अमेरिका को थमने और समझौते पर मजबूर किया है। भारत को अपनी विदेश नीति में सधे हुए कदम रखने होंगे क्योंकि उत्पादन में तो वियतनाम जैसे बहुत छोटे देश भी हमसे बहुत आगे हैं। अभी हम ख़ुद को उतना बुलंद नहीं कर पाए हैं जितना दिखाते हैं।


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