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होमबाउंड: भारतीय समाज का खुरदरा सच चला ऑस्कर

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होमबाउंड  ऑस्कर सम्मान के लिए भारत की आधिकारिक एंट्री है। भारत विदेशी भाषा फ़िल्मों की श्रेणी में 1957 से फ़िल्में भेजता आ रहा है और क्या ख़ूब शुरुआत रही उसकी जब मेहबूब खान निर्देशित पहली ही फ़िल्म मदर इंडिया को ऑस्कर में नॉमिनेशन मिला था। देश के सिनेमा विशेषज्ञ तो इसे भारतीय स्त्री,किसान और समाज का जीवित दस्तावेज़ मानते हैं। इसी श्रेणी में इस बार 'होमबाउंड' भेजी जा रही है। 'होमबाउंड' यानी घर तक ही सीमित, वह जो कभी घर से ना निकला हो। आख़िर कितने आसार हैं  'होमबाउंड' के ऑस्कर में जगह बनाने के या फिर यह भी 'लापता लेडीज' की तरह लापता हो जाएगी ? 2024 में यही फ़िल्म भेजी गई थी।  इन दिनों होमबाउंड  भारत के सिनेमाघरों में  दिखाई जा रही है लेकिन बहुत कम लोग इस फिल्म को देख रहे हैं। इसकी वजह भी है क्योंकि फ़िल्म पारम्परिक भारतीय फ्रेम  में फिट नहीं बैठती है। इसमें ना देह के लोच हैं, ना नाच हैं, ना गाने हैं और ना ही स्विटज़रलैंड की हसीन वादियां। अगर कुछ है तो सख़्त और दुबली-पतली देहें, ख़ुरदरे पैरों की फटी बिवाइयां,जानवरों की तरह रेल...

जॉली LLB-3 इस बार दो जालियों के बीच में उलझा क़ानून

रविवार को  दिन में जॉली LLB-3 फ़िल्म देखी।हॉल आधा भरा हुआ था। बिना किसी हिचक के कह सकती हूं  कि फ़िल्म कमाल की है। कुछ तो मन सोनम वांगचुक की गिरफ़्तारी से व्यथित है और कुछ यह जॉली -3 भी ऐसे ही सवाल करती  है कि ए वतन तू क्यों न हमारा हुआ ? तक़लीफ़ से घिरी जनता जब शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन में शामिल होती है तो व्यवस्था ऐसा जाल रचती है कि आंदोलन हिंसक हो जो ऐसा नहीं होता तो वह ख़ुद चिंगारी सुलगा देती है। फिर सत्ता की गोलियां मासूमों के सर में धसने लगती हैं। जॉली बेशक़ भट्टा परसोल से जुड़े किसानों की घटना पर बनी हो लेकिन उसकी आत्मा राजस्थान की पृष्ठभूमि में इस क़दर जीवंत हुई है कि लगता है जैसे देश का हर हिस्सा तकलीफ़ और उत्पीड़न के मामले में एक ही है। यहां उसकी भाषा ,पहनावा, खान-पान सब एक है। उसकी स्पिरिट को समझने में हर सत्ता हर नेता नाकाम है। संविधान का भी टेक्स्ट है लेकिन मूल भाव गायब। हर राज्य में  किसान और आदिवासियों से उनकी ज़मीन छीन कर मुनाफ़ाख़ोर क़ारोबारियों को देकर विकास के सब्ज़बाग़ दिखाने का यह धंधा अर्से से जारी है। सत्ता किस क़दर बड़े उद्योगपतियों का हित देखती है और इस हित...

आ से आम नहीं आंदोलन

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इस निज़ाम में आ से आम नहीं आंदोलन होता है और ड से होता है उसका डर। आम युवा की फ़िक्र ना करना और जब वह किसी प्रदर्शन का हिस्सा बनें तो फिर पूरे देश में ऐसा माहौल बनाना कि ये युवा भ्रमित हैं, दिशाहीन हैं ऐसा भला कौन करना चाहेगा लेकिन ऐसा ही हो रहा है। राजस्थान,उत्तरप्रदेश,बिहार,उत्तराखंड के युवाओं की पेपर लीक की बेचैनी,चयनित प्रशानिक अधिकारियों के नतीजों को रद्द करने की तकलीफ़ और इससे उपजी व्यापक बेरोज़गारी को नज़रअंदाज़ कर सरकार अपनी मदमस्त चाल से चल ही रही थी कि सीमा पर लेह और लद्दाख में हालात बेकाबू हो गए। शांति पूर्ण प्रदर्शन हिंसक विरोध में बदल गया,भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय आग के हवाले हो गया क्योंकि सरकार ने सुनने में देर की। इतिहास गवाह है कि युवा वायु के प्रचंड आवेग से होता है जो समय रहते उसकी तक़लीफ़ वाली नब्ज़ पर हाथ नहीं रखा तो फिर यह आंधी तूफ़ान में बदलते देर नहीं लगती। यही लद्दाख में हुआ है। युवाओं की जान गई है। आखिर क्यों सरकार समय रहते बातचीत नहीं करती ? क्यों कोई युवा यह जानते हुए भी कि पुलिस की लाठी,गोली किसी भी पल उसके जीवन का शिकार कर सकते हैं, वह सर पर कफ़न बांध लेता है ? स...

खेल में दो दो हाथ क्यों?

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दो राजा थे। दोनों पड़ोसी थे। उनकी रियासत की लंबी-लंबी  सीमाएं एक दूसरे से मिलती थीं। यूं तो दोनों में गाढ़ी शत्रुता थी लेकिन बड़ी-बड़ी  खेल प्रतियोगिताओं  में हिस्सा लेने का लालच वे छोड़ नहीं पाते थे। इनमें एक छोटी रियासत का राजा ज़्यादा हमलावर तबियत का था और उसकी सेना और प्रशिक्षित गुर्गे कई बार दूसरे राज्य में घुसपैठ कर चुके थे। सीमा पर भी ये भीषण उत्पात मचाते और मौका देख कर निहत्थी निर्दोष प्रजा की जान भी ले लेते। राजा ने सुरक्षा के लिए कटीली बाड़ भी लगाई, कोई फ़ायदा ना हुआ। इस बार राजा ने तय किया कि अब इनसे कोई व्यवहार नहीं होगा। यहां तक की  धनुर्विद्या और मल्ल्युद्ध की बेहद लोकप्रिय प्रतिस्पर्धाएं भी अब हमारे बीच नहीं होंगी। पूरी रियासत ने राजा की घोषणा का स्वागत किया कि ख़ून की होली खेलनेवाले पड़ोसी के साथ अब कोई खेल नहीं होगा। फिर पता नहीं कब, किसी तीसरी  रियासत में एक नियत दिन दोनों राज्यों के मल्ल योद्धा अखाड़े में पहुंचे और भिड़ गए। प्रजा में कोई उत्साह नहीं था और ना ही वह अखाड़े में पहुंची। घुसपैठिये राजा के योद्धा, धोबी पछाड़ के साथ धो दिए गए। जीतने वाले ने कहा कि...

फेसबुक से बड़ी है संविधान की बुक

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क़रीब  चार दशक पहले की बात है। इंदौर की विष्णुपुरी भी किसी आम मोहल्ले जैसे ही थी और यहां के रहवासियों ने भी रात की चौकीदारी के लिए एक नेपाली तैनात कर रखा था। कोई उन्हें गोरखा कहता, कोई नेपाली तो कोई जंग बहादुर के नाम से बुलाया करता। रात को साइकिल पर चलकर जब वे सीटी बजाते तो हम बच्चे डर कर बिस्तर में दुबक जाते। जब यही सीटी  बार -बार बजती तो लगता कि आज तो  ज़रूर  बहादुर अंकल  ने  किसी चोर को देख लिया है। महीने के अंत में जब वे अपनी  गहरी हरी वर्दी में 30-40 रुपए लेने आते तो सब बड़े उनसे एक ही शिकायत करते, रात को सिटी क्यों नहीं बजाते, बहुत दिनों से आवाज़ ही नहीं सुनी तुम्हारी,सो जाते हो क्या? पता नहीं कितने घरों में  इन सवालों को उन्हें सुनना पड़ता लेकिन उनकी ज़ुबां से कभी किसी ने कोई तेज़ या कर्कश ध्वनि नहीं सुनी। शलाम शाब ,जी शाब कहते-कहते वे विदा ले लेते। आज जब उनके बच्चों के बच्चों ने यानी जेन ज़ी जो 1996 के बाद पैदा हुई है, उसने आंदोलन कर दिया है तो विचार करना चाहिए कि पड़ोस में इस अशांति और बेचैनी किस क़दर रही होगी ? क्यों अपने चुने हुए नेताओं के प्रति ...

अब सरहद शांत और व्यापार उग्र होगा !

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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ का वह वीडिओ ख़ूब देखा जा रहा है जिसमें वे रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुख़ातिब होकर कह रहे हैं-"बहुत शुक्रिया महामहीम  कि आपने अपने महान देश में आने का मुझे न्योता  दिया। मैं सालों पहले मास्को आया था, जब मैं बच्चा था। मुझे वहां आकर और पुरानी याद ताज़ा कर बहुत  ख़ुशी होगी। मैं पाकिस्तान का समर्थन करने और और इस क्षेत्र में संतुलन कायम करने के लिए भी आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। हम हिंदुस्तान से आपके ताल्लुक़ का भी सम्मान करते हैं और इससे हमें कोई दिक़्क़त नहीं हैं लेकिन हम भी आपसे बहुत मज़बूत रिश्ते बनाना चाहते हैं। आपके नेतृत्व में वह क्षमता है जो इस क्षेत्र को समृद्ध और प्रगतिशील बना सके।" वीडिओ एएनआई ने जारी किया है जो उस वक्त का है जब बीते इतवार -सोमवार को शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल हुए थे। इस दौरान भारत,चीन और रूस के नेताओं के जलवे और तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखी थीं। इसके बाद ही दुनिया के नेताओं को यह डर भी हो गया कि कहीं भारत छिटक कर उस खेमे में न चला जाए जहां शामिल  तमाम देश...

इसे 'मोदी का युद्ध' क्यों कह रहे नवारो जी

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भारत पर अमेरिका के भीषण टैरिफ लदान से भारतीय उद्योगों को मिली  चोट के बाद अगर हमारे देश के  उद्योगपतियों का भरोसा सरकार पर कम हुआ है तो आलोचना अमेरिका की भी उसके देश में जम कर हो रही है। वहां के अर्थशास्त्री ,प्रोफ़ेसर और नागरिक लगातार कह रहे हैं कि भारतीय सामान पर इतना टैक्स लाद कर अमेरिकी सरकार ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। वे साफ़ कहते हैं कि दशकों से द्विपक्षीय  व्यापार और रणनीतिक साझेदार रहे भारत पर सबसे ज़्यादा 50 (ब्राज़ील के साथ ) टैरिफ थोप कर दुनिया में यूं अकेला कर देने से वह रूस और चीन की तरफ़ मुड़ने के लिए मजबूर हो गया है। आलोचक राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस निर्णय को बेहद अदूरदर्शी और सनक से भरा हुआ मान रहे हैं। वे मानते हैं कि अमेरिका में चीज़ें इससे और महंगी होंगी और एक दिन इसी मांग की वजह से उनका द्विपक्षीय व्यापार फिर सामान्य होगा क्योंकि व्यापार का मूल धर्म लेन-देन का होता है, खैरात का नहीं। इस बीच वाइट हाउस के आर्थिक सलाहकार और इस टैरिफ नीति के रचयिता पीटर नवारो ने ट्रंप सरकार के बचाव में रूस-यूक्रेन युद्ध को 'मोदी का युद्ध' कहकर बड़ा ही विचि...

ऑपरेशन सिंदूर : पक्ष और विपक्ष के बीच बुलंद हुई निर्दलीय आवाज़

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  ऑपरेशन सिंदूर पर लोकसभा में चली सोलह घंटे की बहस जब मंगलवार को पूरी हुई तो साफ़ हो गया कि देश के पास ऐसे धुरंदर नेता हैं जो सरकार की आंख में आंख डाल कर बात करते हैं और सटीक सवाल करते हैं। उधर  सरकार भी भले ही भाग नहीं रही थी लेकिन जवाब देने में उसे भी बड़ी तैयारी और मेहनत और लग रही थी। देश के हर हिस्से से शामिल सांसदों की यह ज़रूरी और अच्छी बहस थी।  फिर भी विपक्ष को शायद इस बात का मलाल हो सकता है कि कुछ जवाब उसे नहीं मिले जैसे पहलगाम में पर्यटकों की सुरक्षा में चूक क्यों हुई ;ख़ुफ़िया तंत्र विफल क्यों रहा ;अमेरिका ने बीच ऑपरेशन में भांजी क्यों मारी ; हमारे कितने लड़ाकू विमान नष्ट हुए और चीन-पाकिस्तान एक मंच पर साथ आने की समझ सरकार को क्यों नहीं हुई। बेशक सरकार ने अपना पक्ष रखने की पुरज़ोर कोशिश की लेकिन बीच -बीच में जब भी देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू का ज़िक्र आ जाता था तो लगता कि सरकार जैसे अब तक किसी नेहरूफोबिया से ग्रस्त है और हर मौके पर उन्हें  किसी ढाल की तरह ले ही आती है। बेशक बंटवारा हमारी दुखती रग है लेकिन हम कब तक उस घाव को हरा रखेंगे, सिर्फ ...

लड़कियों के लिए सामाजिक व्यवस्था अब भी क्रूर और जजमेंटल

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चंडीगढ़ की वामिका हो या जयपुर की स्वप्निल समाज और व्यवस्था अब भी इनके लिए बेहद क्रूर हैं । समाज इन्हें अपनी निगाहों  से तौलता -परखता रहता है और क़ानून व्यवस्था वह मंच नहीं दे पाती जहां वे निडर होकर अपनी पीड़ा कह सकें। कई बार दोनों युति बनाकर पीड़िताओं के हक़ में होने से इंकार करती हैं। नतीजतन एक के बाद एक कई लड़कियां और महिलाएं जुर्म का शिकार होती चली जाती हैं। आधी आबादी की तरक़्क़ी के रास्ते रुक जाते हैं। परिवार उन्हें कैद रखने में ही अपना हित समझने लगता हैं। उनकी पूरी कोशिश केवल इतनी होती है कि लड़की मायके में सुरक्षित रह कर सीधे ससुराल सुरक्षित पहुंच जाए। आंख फिर केवल तब खुलती है जब ससुराल से बेटी की असमय संदिग्ध मौत की ख़बर मिलती है।अब भी कई परिवार इसी सोच पर यकीन रखते हैं कि हमने डोली सजा दी , अब अर्थी भी वहीं से सज-धज कर  निकले। यह सोच घरेलू हिंसा को बढ़ावा देती है। कुछ माता-पिता विवाहित बेटी को घर में रखना भी चाहते हैं तो समाज दबाव बनाता है। अफ़सोस कि  इस इतवार को जयपुर की स्वप्निल संदिग्ध हालात में मौत की नींद सो गई और चंडीगढ़ की वामिका के आरोपी को बीच सुनवाई में सरकार ने ज़िम्...

बिहार: 'सर' पर क्यों है संदेह

जैसे–जैसे कृष्ण पक्ष का पखवाड़ा अमावस की काली रात की ओर बढ़ता जाता है ठीक वैसे ही बिहार चुनाव में सर(स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न )के काम में भी हर रोज़ कोई न कोई खामी जुड़ जाती है। पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने तो कह भी दिया कि यह प्रक्रिया पूरी तरह से अनुचित, आक्रामक और जल्दबाज़ी में की गई ऐसी क़वायद है जिसका इस समय किया जाना कतई ज़रूरी नहीं था। सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में भी जारी है क्योंकि पहचान के जो ज़रूरी दस्तावेज़ हैं जैसे  वोटर आईडी ,राशन कार्ड, यहां तक की आधार कार्ड भी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किए गए हैं। अब जो नई मतदाता सूची बनेगी उसके लिए  2003 के बाद शामिल मतदाताओं की गहन जांच होगी। यही रिविज़न है।  प्रशासन पर 30 सितंबर तक इसे पूरा करने का ऐसा दबाव है कि कहीं कहीं  बीएलओ ख़ुद  ही मतदाता के फॉर्म भर रहे हैं और फ़र्ज़ी हस्ताक्षर भी कर रहे हैं। अब सवाल यही है कि क्या चुनाव आयोग नया गृह मंत्रालय है जो नागरिकता के प्रमाण-पत्र  भी बांटेगा। संवैधानिक स्तर पर ही चुनाव आयोग की भूमिका जोड़ने की रही है ,हटाने की नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि आयोग इन पहचान पत्रों...

बिहार :आख़िर क्यों है संदेह 'सर' पर

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और क्यों बिहार में चुनाव आयोग को अपने ही पहचान पत्र वोटर आईडी पर शक़ है  बीते कुछ समय से देश के नागरिकों पर ही यह साबित करने का दारोमदार डाल दिया गया है कि वे इस देश के नागरिक हैं। ऐसा लगभग धमकाने की मुद्रा में है कि जो ऐसा नहीं कर पाए तो व्यवस्था आपको बाहर कर देगी। कागज़ दिखाने की ऐसी ज़ोर-ज़बरदस्ती पहले कभी नहीं देखी गई। अब नया यह कि जो काग़ज़ हैं भी तो ये पहचान के लिए काफ़ी नहीं हैं। वोटर आईडी, राशन कार्ड, यहां तक कि आधार कार्ड भी कोई मायने नहीं रखता। अब नई मतदाता सूची बनेगी  और उसमें आप हो तब ही वोट डाल सकोगे। जो आवाज़ ऊंची की तो फिर घुसपैठिये का तमगा पक्का है।बिहार में बीते तीन सप्ताह से ऐसी ही क़वायद चल रही है और 'सर' जी इस बड़े अभियान में लगे हुए हैं। अब सवाल यही है कि क्या चुनाव आयोग नया गृह मंत्रालय है जो नागरिकता के प्रमाणपत्र  भी बांटेगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि आयोग इन पहचान पत्रों को शामिल करे, अब यह आयोग की ज़िम्मेदारी है कि वह नागरिकों को विश्वास में ले कि यह उन्हें शामिल करने के लिए हो रहा है दूर करने के लिए नहीं। विपक्ष तो कुछ दिनों से लगातार चीख़ ही रहा है...

क्यों लगा रायटर्स पर प्रतिबंध और फिर उठ गया

एक राजा था। बड़े ही गाजे-बाजे के साथ उसका राज्याभिषेक हुआ था। वह दिखता तो बहुत आत्मविश्वासी था लेकिन उसे हमेशा यह डर बना रहता था कि कहीं उसका राज-पाट छिन ना जाए। राजसी परिवार के वृक्ष में से कुछ के ख़लबली का अंदेशा भी उसे बना रहता। वह आए दिन इसी  चिंता में लगा रहता और अपने दरबारियों को ऐसा करने की खुली छूट देता जिससे जनता में यह संदेश जाए कि केवल वही इस पद के सर्वथा योग्य है और शेष सब नाकारे और निकम्मे हैं। राजा के इस डर से दरबारी और उनके जानने वाले तो वाक़िफ़ थे ही लेकिन अब तो दुश्मनों को भी ख़बर हो गई थी। उन्होंने भी भांप लिया था कि राजा डरता है और इसका फ़ायदा उन्हें मिल सकता है। राजा के गद्दी बचाने के तमाम हथकंडों को उसकी रियाया भी समझ रही थी लेकिन उसे अपने राज्य की फ़िक्र थी। दुश्मनों को भला प्रजा की क्या परवाह होती वे  बस केवल मौके की तलाश में रहते। राजा की सत्ता लिप्सा और डर उन्हें बैठे-बिठाए यह सब उपलब्ध करा रहा था। दरबारी और चाटुकार अपना रोब -दाब बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक चले जाते थे बिना इस बात की परवाह किये कि इस राजा के पुरखों ने राजदंड के साथ कुछ नियम कायदे...