संदेश

2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

देश के बाहर देश के लिए उठे दो बड़े क़द

चित्र
हम अक्सर नेताओं के भाषण सुनते हैं। लगभग सबका यही दावा होता है कि हम जो कह रहे हैं वही जनता के हित में है। ये अवसर मिलते ही हर मुद्दे पर बोलते हैं फिर चाहे उस मुद्दे पर इनका ज्ञान लगभग शून्य ही क्यों ना हो। ऐसे में देखा गया है कि विशेषज्ञ और बड़े पदों पर बैठे बुद्धिमान और ज़िम्मेदार दिमाग ज़्यादातर चुप्पी साध लेते हैं क्योंकि वे जब भी बोलते हैं सत्ता के पिट्ठू या तो समझ नहीं पाते या फिर उन्हें इस तरह घेरते हैं जैसे उन्होंने कोई देश विरोधी बात कह दी हो, गुनाह कर दिया हो। वही घिसे-पिटे चेहरे टीवी चैनलों पर आकर उन्हें दोषी ठहराने लगते हैं। कई गंभीर मुद्दे यहां 'ऐलिस इन वंडरलैंड' की तरह खो जाते हैं। सियासी दलों को भले ही तुरंत लाभ मिल जाता है लेकिन देशहित में कोई सार्थक विचार कभी आगे नहीं बढ़ पाते। शायद यही वजह है कि विशेषज्ञ देश के भीतर कुछ बोलने में हिचकते हैं लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बोलने का अवसर मिलता है तो वे बेहद सधे हुए ढंग से अपनी बात रखते हैं क्योंकि  बड़े मंचों पर आप केवल 'पॉलिटिकली मोटिवेटेड' नहीं हो सकते,वहां आप अपने विषय के विशेषज्ञ हैं । इस सप्ताह देश के दो...

ऑपरेशन सिंदूर जारी है और जारी है चुनावी रोड शो

चित्र
ऑपरेशन सिंदूर के बाद सरकार कुछ ज़्यादा ही बेचैन नज़र आ रही है। यह बेचैनी कभी मंत्रियों की ज़ुबां से झलकती है तो,कभी विधायकों की तो कभी   प्रधानमंत्री के भाषणों से।  हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख ने भी अपने साक्षात्कार में जो कहा है, वह भी इस बेचैनी को पुष्ट करता है। आख़िर प्रधानमंत्री को विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करो और संघ प्रमुख को यह कहने की ज़रूरत क्यों पड़ी कि भारत के पास ताकतवर होने के आलावा कोई विकल्प नहीं है और हिन्दू शक्ति को एक होना पड़ेगा ? कहा तो ये जा रहा है कि ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है। सीमांत प्रदेशों में मॉक ड्रिल चल रही है और सेना अलर्ट मोड में है। जब सीमा पर यूं तनाव बना हुआ है तब जनमानस को  तमाम रोड शो और घर-घर सिंदूर बांटने जैसी प्रक्रिया में क्यों उलझाया जा रहा है ? क्या यह युद्ध के माहौल को चुनावी उन्माद में बदलने की कोशिश है ? आपातकालीन हालात बने रहें और ज़्यादा सवाल-जवाब भी ना हों ? लिखने-बोलने पर तो गिरफ़्तारियों का सिलसिला जारी है ही। फिर ये कौनसी नई परिस्तिथियां हैं कि पक्ष-विपक्ष के अन्य नेता तो विदेश में हिंदुस्तान का ...

चकमा देने वाली कहानियों का दौर

चित्र
अध्यात्म और भारतीय पौराणिक ग्रंथों के विवेचनाकार देवदत्त पटनायक एक जगह लिखते हैं कि प्राचीन काल से ही गाथाओं के माध्यम से सत्ता की स्थापना होती आई है। राजा में देवत्व का अंश बताया जाता था। यूं तो राजा अक्सर वंश विशेष से ही चुने जाते थे लेकिन जब ऐसा भी नहीं हो पाता था तब जो भी चुना जाता था, उसे लेकर यही साबित किया जाता था कि उस पर देवताओं की असीम कृपा है। वह परम प्रतापी और विलक्षण है। तब ऐसा कौन कर पाता था और किसे यह जिम्मेदारी दी जाती थी? कौन यह स्थापित करता था कि इस पर देवताओं की कृपा है और यह आम से बहुत अलग और विशेष है? क्योंकि ऐसा न होने पर प्रजा का उस पर विश्वास होना संभव नहीं होता था जिससे राजकाज में बाधा आती थी। इसके लिए प्राचीन भारत के वैदिक काल में दूसरों पर राज करने के इच्छुक महत्वाकांक्षी क्षत्रप ब्राह्मणों द्वारा अनुष्ठान करवाते थे और इन अनुष्ठानों के सफ़लतापूर्वक पूरे होने का तात्पर्य यह था कि देवता उस क्षत्रप के साथ हैं। अग्निष्टोम,अग्निचयन,अश्वमेध यानी वाजपेयी और हिरण्यगर्भ यजुर्वेद और ब्राह्मण साहित्य में अनुष्ठान का ब्यौरा मिलता है। फिर भी केवल इतना पर्याप्त नहीं था। बाद...

पाकिस्तान :' टू ' मैनी नेशन थ्योरी

चित्र
टू नेशन थ्योरी के आधार पर बना कृत्रिम राष्ट्र पसकिस्तान अब कई राष्ट्र वाला बनने जा रहा है। बांग्लादेश के बाद अब बलूचीस्तान ने अपना झंडा लहरा दिया है। लगता है कि पाकिस्तान का एक और हिस्सा उसके गले की नस बनने जा रहा है। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष  आसिफ़ मुनीर ने पिछले महीने ज़रूर कश्मीर को अपने गले की नस बताया था लेकिन सच्चाई यह है कि अब जिसने पाकिस्तान की नाक में विध्वंस मचा रखा है, वह उसी के देश का अपना हिस्सा बलूचिस्तान है। 'ऑपरेशन सिंदूर' के बाद एक बलोच नेता मीर यार बलूच ने बलूचिस्तान को आज़ाद घोषित कर दिया है बाक़ायदा अपने एक झंडे और राष्ट्रगीत के साथ। बलूच जनजाति का संघर्ष यूं तो सदियों पुराना है लेकिन कुछ समय से यह सतह पर है जिसका जन्म पाकिस्तान बनते ही हो गया था। पाकिस्तान ने हमेशा इस संघर्ष को विद्रोह मानकर कुचलने की कोशिश की। देश का सबसे बड़ा और संसाधनों के हिसाब से बेहद समृद्ध हिस्सा होने के बावजूद बलूचिस्तान को कोई तवज्जो नहीं मिली। पाकिस्तान में पहले दिन से ही पंजाब मूल के हुक्मरानों, सेनाध्यक्षों और बुद्धिजीवियों का दबदबा  रहने से उसके अन्य हिस्से  छिटके ही रहे। सिंध, ख...

हिंद की सेना का जवाब कि हां तुम एक विफल राष्ट्र हो

चित्र
पाकिस्तान एक विफल देश है क्योंकि इसका जन्म ही नफ़रत की बुनियाद पर हुआ है। अंग्रजों से आज़ाद होते ही भारत का बंटवारा हुआ और मानवता ने जिस वीभत्स मंज़र को देखा,उसकी मिसाल कम मिलती हैं। कई कलाकार, लेखक और पॉलिटिशियन मज़हब के आधार पर बंटे पाकिस्तान  में चले तो गए लेकिन उम्र भर सिर्फ हिंदुस्तान को ही याद करते रहे, अपने दोस्तों से मिलने के लिए तड़पते रहे जैसे उन्हें यह अहसास हो गया था कि ग़लती हो चुकी है और समय का पहिया अब पीछे नहीं खींचा जा सकता। जो लिख सकते थे, उनके शब्दों में यह दर्द बयां हुआ और बा क़ी अपने दिलों में इस टीस के साथ ज़िंदा रहे। मशहूर और बेहतरीन कहानीकार सआदत हसन 'मंटो' (दो दिन बाद उनकी सालगिरह है) उन्हीं में से एक थे। उन्होंने विभाजन के समय हुए दंगों की त्रासदी को भीतर तक उतारा और फिर पन्नों पर। 'टोबा टेकसिंह' और 'खोल दो' उनकी ऐसी ही महान रचनाएं हैं। मंटो दोस्तों को अक्सर लिखा करते थे कि यार मुझे वापस बुला लो। उन्होंने ख़ुदकुशी की नाकाम कोशिश भी की थी। वे बहुत कम (43) उम्र जी पाए जैसे चिंता और जीवन का कोई गहरा रिश्ता हो। यूं तो मंटो के बारे में कहने को इ...

कमंडल को चाहिए मंडल का टेका

चित्र
अब तक कमंडल से अपनी राजनीति को चमकाने वालों को अचानक मंडल की याद आ गई है, वह भी तब जब देश पहलगाम आतंकी हमले के बाद सरकार से बड़े एक्शन की उम्मीद कर रहा था। मुख्य धारा के मीडिया ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ऐसा माहौल तैयार कर दिया था कि लगने लगा था कि सरकार घर में घुसकर मारने की नीति टाइप किसी कदम का खुलासा देशवासियों से करेगी। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और बुधवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति ने आगामी जनगणना के साथ जाति की गिनती कराने का फ़ैसला कर लिया। आज़ादी के बाद पहली बार देश के नागरिकों से उनकी जाति पूछी जाएगी। अब तक अनुसूचित जाति और जनजाति को अवश्य गिना जाता था लेकिन अब शायद अन्य पिछड़ा वर्ग का बढ़ता संख्याबल  सरकार को इस निर्णय के लिए मजबूर कर रहा है। विपक्ष जिसकी जितनी आबादी उतनी उसकी भागीदारी का नारा पहले ही बुलंद किये हुए था। ऐसे ही मकसद  में सरकार की दिलचस्पी होगी तो फिर इस मासूमियत पर कौन न फ़िदा हो जाए। इसमें कोई शक नहीं कि इस मसले पर देश जिस नेता को लगातार बोलते हुए देख-सुन रहा था वो राहुल गांधी थे । इस हद तक कि लगभ...

कोई भी कहानी ऐसे अंत के लिए नहीं बनी

चित्र
हरेक भारतीय उदास है,हर दिल रो रहा है। जैसे-जैसे देश के हिस्सों में ये दुःख के ताबूत पहुंचे हैं वैसे वैसे ही लोगों के दिल चीत्कार कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे समय पीछे लौट जाए और सबकुछ वैसा ही सुहावना हो जाए पहलगाम की ठंडी वादियों की तरह। पत्नी के विलाप का यह दृश्य हृदय तोड़ने वाला है और इस दर्द को जैसे पांच सौ साल  पहले   कश्मीरी शायरा हब्बा ख़ातून (जूनी )लिख गईं थी। विरह में डूबी जूनी ने लिखा था - बल खाती बहती नदियों के मुहाने तक जाउंगी मै तुम्हें  ढूंढ़ते  हुए  विनती-अरदास करती यहां-वहां  डोलुंगी मैं   तुम्हें  ढूंढ़ते हुए/  ढूंढूंगी मैं तुम्हें चमेली की कुंजों में,   मत कहो, दुबारा अब मिलना नहीं होगा। पीले गुलाब के झाड़ों पर फूल मुस्कुरा रहे   मेरी भी कलियां  फूल बनने को कसमसा रहीं, दरसन की प्यासी इन अंखियों को और न तरसा मत कहो, दुबारा अब मिलना नहीं होगा। ओह ऐसा दर्द एक विरहिणी ही लिख सकती है। अब जब यह लहू जमा देने वाली, आतंकी हरकत हो चुकी है,इतना दर्द देश भर में भेजा जा चुका है तब क्या देशवासी ये उम्मीद कर सकते हैं कि कोई कोशिश...

झेलम रो रही है कश्मीरियत के क़त्ल पर

चित्र
हां,झेलम अब तक रो रही है, कश्मीरियत के इस क़त्ल पर क्योंकि यही वह नदी है जो कश्मीर की जीवनरेखा है और गवाह है धरती के इस ख़ूबसूरत हिस्से  की भोगी हुई पीड़ाओं की। इसने जाना है कि धरती का स्वर्ग कहलाने के बाद आताताई किस तरह पहले लालची नज़रों से देखते हैं और फिर ख़ूनी वार करते हैं।  इसने देखा है कि शातिरों ने इसके अपने बच्चों के हाथ कैसे बंदूकें थमा दी लेकिन अब इसने चाहा है कि इस बेहद सुन्दर जगह को बहुत बुरी नज़र वालों ने घेर रखा है और अब उनकी शिनाख्त ज़रूरी है।  उस दिन  मंगलवार को झेलम भी ज़ार ज़ार रोई है क्योंकि जिन मासूम बेगुनाहों का खून उसने देखा है, वह उसे भीतर से सुखा दे रहा है। वह नईनवेली दुल्हन जो अपने पति के शव के पास बिलख रही है, झेलम उसके दुःख को झेल पाने में नाकाम है। इसे कश्मीरी आवाम ने भी उसी तरह महसूस किया है और यही वजह है कि ग़मज़दा होकर सड़कों पर हैं ,मशाल लेकर विरोध प्रदर्शन  कर रही है। अपने शहर बंद कर रही है। जम्मू से श्रीनगर तक यही भावना है जैसे अभी चुप रहेंगे तो आगे और बड़े गुनाहों  के भागी होंगे । वह गुहार लगा रही है बंद करो, बंद करो यह ख़ूनी हिंसा बंद ...

वक़्फ़ ने किया क्या नया सितम ..

चित्र
मधुर गीत के बोल  वक़्त ने किया क्या हंसी सितम . . के साथ छेड़ छाड़ के लिए माफ़ी के साथ यह शीर्षक लिखा है। गीत जिसे कैफ़ी आज़मी साहब ने  लिखा और गीता दत्त ने  गाया था। दरअसल  वक़्फ़  ( संशोधन)  अधिनियम, 2025 ने अजब सितम यह किया है कि संसदीय शक्ति और न्यायिक शक्ति के बीच जारी टसल को और तेज कर दिया है। हाल ही में कुछ ऐसे फैसले और टिप्पणियां आई हैं  कि सरकार को यह लगने लगा है कि सर्वोच्च न्यायालय अपनी लक्ष्मण रेखा लांघ रहा है तभी तो पहले किरन रिजिजू और फिर शुक्रवार को उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कह दिया कि  अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। उन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के ख़िलाफ़ 24 घंटे उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि सर्वोच्च  कौन  है न्याययालय या संसद।  वक़्फ़  ( संशोधन) बिल पर सुनवाई के दौरान तीन न्यायाधीशों की पीठ ने भले ही कोई स्टे नहीं दिया है लेकिन अगली सुनवाई तक तत्काल  कुछ बातों पर रोक लगा दी ...

देश को एक ही फ्रेम में फिट करने की मनमानी !

ऐसा लगता है जैसे देश पर राज करने वालों ने अपने लिए एक फ्रेम बनवा ली  है और फिर देश को हर हाल में उसी फ्रेम में फिट करने की ज़िद है, बिना इस बात की परवाह किये कि उनकी इस कोशिश में उसका मूल तत्व ही फ्रेम से छिटक रहा है,कट रहा है ,टूट रहा है । यकायक यह कोशिश और तेज़ हो गई है जैसे किसी राजा को यकीन दिला दिया गया हो गया हो कि ऐसा ना हुआ तो अनर्थ हो जाएगा। बेचैनी इन दिनों इस कदर बढ़ी है कि नागरिकों में  डर बैठाया जा रहा है, खेमे बनाए जा रहे हैं। बस एक ही कोशिश कि बांटों बांटो और बांट दो। देश के कुछ हिस्से हिंसा की चपेट में हैं ,निर्दोष नागरिक मर रहे हैं लेकिन चिंता बस फ्रेम की है। यह चिंता इतनी सघन और स्वनिर्मित है कि देश की जनता को मूल खतरों से आगाह ही नहीं किया जा रहा है। दुनिया की नई उथल-पुथल के बीच आर्थिक खतरों और मंदी की आशंका से देश को मज़बूत करने की बजाय वह अफीम दी जा रही है, जिसमें देश सब दर्द भूलकर बस नारे लगाने लगता है। नेताओं को यह दंदफंद अब रास आ गया है। यह झूठ है तो फिर क्यों एक तरफ़ तो हवाई अड्डे का शिलान्यास होता है और दूसरी ओर वह बात छेड़ दी जाती है जिस पर जब बहस हुई तो सद...

केवल आइसक्रीम चिप्स मत बेचो चिप बनाओ

वाणिज्य और उद्योमंत्री पीयूष गोयल के भाषण के बाद उपजे बवाल को समझने के लिए शहरों में डिलीवरी सर्विसेस पर एक निगाह डालना ज़रूरी है । कुछ समय से जयपुर के कुछ हिस्सों में रहने वाले खुद को ऐसे नागरिक के रूप में देख रहे हैं जिनके क़दमों में हर चीज़ बस आठ से बीस मिनटों में हाज़िर रहने के लिए आतुर है। 'हुकुम करो आका' की तर्ज़ पर ये डिलीवरी बॉयज़ दौड़ते रहते हैं और हर ज़रूरत का सामान पहुंचा देते हैं। 43 डिग्री की तपती दोपहरी में सड़कों पर कोई नहीं हैं पर ये हैं। इस चाल में महामारी कोविड ने जान फूंकी थी लेकिन अब जो हो रहा है इसमें कीमतों में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा है और कई बड़े प्लेयर मैदान में उतर आए हैं। केवल आठ मिनट में ज़रूरी सामान पहुंचाने की होड़ तो दो सालों से है लेकिन अब तो पूरा का पूरा राशन, उसे पकाने के लिए स्टोव, कुकर और इलेक्ट्रॉनिक सामान भी जल्दी पहुंचाने की ज़िद है। जिनके पास धन है, वे फ़ोन में बंद जिन्न  को आदेश देते हैं और वह चुटकी बजाते सब हाज़िर कर देता है। हज़ारों स्टार्टअप्स इन अमीरों की ज़रूरतों को पूरा करने में लगे हुए हैं। ऐसा लगता है जैसे चंद शहरी अमीरों की चाकरी में बड़ी तादाद में...