ऑपरेशन सिंदूर जारी है और जारी है चुनावी रोड शो
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ऑपरेशन सिंदूर के बाद सरकार कुछ ज़्यादा ही बेचैन नज़र आ रही है। यह बेचैनी कभी मंत्रियों की ज़ुबां से झलकती है तो,कभी विधायकों की तो कभी प्रधानमंत्री के भाषणों से। हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख ने भी अपने साक्षात्कार में जो कहा है, वह भी इस बेचैनी को पुष्ट करता है। आख़िर प्रधानमंत्री को विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करो और संघ प्रमुख को यह कहने की ज़रूरत क्यों पड़ी कि भारत के पास ताकतवर होने के आलावा कोई विकल्प नहीं है और हिन्दू शक्ति को एक होना पड़ेगा ? कहा तो ये जा रहा है कि ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है। सीमांत प्रदेशों में मॉक ड्रिल चल रही है और सेना अलर्ट मोड में है। जब सीमा पर यूं तनाव बना हुआ है तब जनमानस को तमाम रोड शो और घर-घर सिंदूर बांटने जैसी प्रक्रिया में क्यों उलझाया जा रहा है ? क्या यह युद्ध के माहौल को चुनावी उन्माद में बदलने की कोशिश है ? आपातकालीन हालात बने रहें और ज़्यादा सवाल-जवाब भी ना हों ? लिखने-बोलने पर तो गिरफ़्तारियों का सिलसिला जारी है ही। फिर ये कौनसी नई परिस्तिथियां हैं कि पक्ष-विपक्ष के अन्य नेता तो विदेश में हिंदुस्तान का पक्ष रखने के लिए भेजे गए हैं और देश में किसी रॉकस्टार की तरह रोड शो आयोजित हो रहे हैं ?
बेशक सत्तर और अस्सी के दशक में लोकप्रिय फ़िल्मी शैली के संवाद आज भी लोगों में जोश भर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने जब बीकानेर की भरी सभा में ऑपरेशन सिंदूर को लेकर कहा कि मोदी की नसों में खून नहीं सिंदूर बह रहा है तब मौजूद लोगों के भीतर जोश का एक ज्वार -सा पैदा हो गया था। कुछ तो 'पाकिस्तान को उड़ाना है' जैसे संवाद बोल रहे थे। लगभग ऐसा ही जोश ओ जूनून जैसे कोई सेनापति अपने सैनिकों को युद्ध से पहले देता है। फिर गुजरात की एक सभा में उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी देते हुए कहा -"सुख चैन से रोटी खाओ वरना मेरी गोली तो है ही" इस पर कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य ने एक कार्टून बनाया है जिसमें इस कोट के साथ सेना के कंधे पर बन्दूक और पीछे दो हाथ हैं। क्या वाक़ई देश को ऐसे उन्माद की आवश्यकता है? यदि हमारा मक़सद अभी पूरा नहीं हुआ तब वो देश जो हमारे नागरिकों को बेड़ियों में बांधकर भेज देता है,व्यापार को मुश्किल बना दे रहा है, विद्यार्थियों को देश निकाला दे रहा है,उनके वीसा इंटरव्यू रद्द कर रहा है ,तब फिर उसके कहने पर हमें युद्ध विराम क्यों करना पड़ा ? ज़ाहिर है हम ऐसा नहीं चाहते थे ? अब तो इस बात की पुष्टि उस हलफ़नामे ने भी कर दी है जो ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका की एक संघीय अदालत में दाख़िल किया। इसमें कहा गया है कि टैरिफ नामक हथियार का प्रयोग दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच युद्ध रुकवाने के लिए किया गया। यह सरकार के उन दावों को भी ख़ारिज करता है कि व्यापार को लेकर कोई बात नहीं हुई। अफ़सोस यह भी होना चाहिए कि भारत -पाकिस्तान के बीच अमेरिका
अब मध्यस्थ बन बैठा है।
प्रधानमंत्री अपने भाषणों में विदेशी सामान के बहिष्कार की बात भी कर रहे हैं ऐसा क्या इसलिए क्योंकि ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान ने जो किया उसमें चीन का पूरा समर्थन उसे मिला और चीनी सामान हमारे घर-घर तक पहुंच चुका है? यह बेचैनी और असहजता अब साफ़ नज़र आती है कि दुनिया ने हमारा साथ नहीं दिया और हमें उसे सबक सिखाना चाहते हैं । बीकानेर के बाद प्रधानमंत्री ने गुजरात के भुज में जो कहा वह गौर करने लायक है -"हम इतना तय कर लें कि 2047, जब भारत के आजादी के 100 साल होंगे। विकसित भारत बनाने के लिए तत्काल भारत की इकोनॉमी को 4 नंबर से 3 नंबर पर ले जाने के लिए अब हम कोई विदेशी चीज का उपयोग नहीं करेंगे। हम गांव-गांव व्यापारियों को शपथ दिलवाएं, व्यापारियों को कितना ही मुनाफा क्यों ना हो, आप विदेशी माल नहीं बेचोगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, गणेश जी भी विदेशी आ जाते हैं। छोटी आंख वाले गणेश जी आएंगे। गणेश जी की आंख भी नहीं खुल रही है। सचमुच में ऑपरेशन सिंदूर के लिए एक नागरिक के नाते मुझे एक काम करना है। आप घर में जाकर सूची बनाइए कि आपके घर में 24 घंटे में कितनी विदेशी चीजों का उपयोग होता है। आपको पता ही नहीं होता है, आप हेयरपिन भी विदेशी उपयोग कर लेते हैं, कंघा भी विदेशी होता है, दांत में लगाने वाली जो पिन होती है, वो भी विदेशी घुस गई है, हमें मालूम तक नहीं है। पता ही नहीं है दोस्तो। देश को अगर बचाना है, देश को बनाना है, देश को बढ़ाना है, तो ऑपरेशन सिंदूर यह सिर्फ सैनिकों के जिम्मे नहीं है। ऑपरेशन सिंदूर 140 करोड़ नागरिकों की जिम्मे है।"
आपको याद आएगा कि यह मार्मिक अपील सुनी-सुनी सी है। ठीक पांच साल पहले चीन ने पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में हमारे 20 सिपाही शहीद किए थे। तब 15 और 16 जून 2020 की रात चीनी सैनिकों के साथ हिंसक झड़प हुई थी। पांच साल पहले भी ऐसा जुनून दिखाते हुए भारत सरकार ने कई चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाया था। चीनी सामान के बहिष्कार की बात की थी। आज फिर वही सब क्यों दोहराना पड़ रहा है ? क्यों कोई हल नहीं निकाला गया ?अब तो चीन के साथ तुर्किए भी शामिल हो गया है। बार बार की इन भावनात्मक अपीलों के ठोस नतीजे क्यों नहीं आते? आखिर सरकार ही तो चीनी सामान के भारत में दाखिल होने को रोक सकती है या फिर सरकार की अपेक्षा है कि वे चीन का सस्ता माल भारत आता रहे और लोग सड़कों पर आकर उस सामान की होली जलाएं। ऐसा तो अंग्रेज़ों के ज़माने में होता था। फिरंगी सरकार सामान लाती थी और आज़ादी के परवाने उसकी सड़कों पर होली जलाते थे। यह अजीब विरोधाभास है।
दो पल ठहरकर यह सोचिए कि 'छोटी आंख वाले गणेश जी आएंगे। गणेश जी की आंख भी नहीं खुल रही है' यह बात अगर विपक्ष के किसी सदस्य ने कही होती तब सत्ता पक्ष की क्या प्रतिक्रिया होती ? घर -घर सिंदूर बांटने का ऐलान भी अगर उधर से होता तब भारतीय जनता पार्टी क्या नहीं कहती कि इन्हें ना संस्कारों का पता है ना संस्कृति का कि आख़िर सिंदूर पहुंचाने का अर्थ क्या होता है। संघ प्रमुख मोहन भागवत का साक्षात्कार भी इस बेचैनी और उहापोह की तस्दीक करता है। उन्होंने कहा कि हमें बल संपन्न होना ही पड़ेगा। भारत के पास ताकतवर होने के आलावा कोई विकल्प नहीं है और हिन्दू शक्ति को एक होना पड़ेगा। संघ में प्रार्थना की पंक्ति ही है 'अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम्' हमें कोई जीत ना सके, इतना सामर्थ्य होना ही चाहिए। उन्होंने 'हमें' को संबोधित करते हुए देश नहीं हिंदू शक्ति कहा है । उन्होंने बांग्लादेश के लिए भी कहा कि अब वहां के हिंदुओं पर हुए अत्याचार की बात दुनिया भी सुन रही है।
बांग्लादेश के साथ भारत के संबंध इस हद तक क्यों बिगड़े इसका जवाब देने के लिए भी सरकार में कोई प्रस्तुत नहीं है। हमने चीन और बांग्लादेश को पाकिस्तान वाले प्लेटफॉर्म पर लाकर खड़ा कर दिया है। आखिर हर सीमा पर तनाव क्यों है ? वैश्विक समुदाय से भी हमें वैसा समर्थन नहीं मिला है जिसकी अपेक्षा थी। हम अलग पड़ गए इसीलिए पक्ष-विपक्ष के धुरंदर वक्ता चुनकर दुनिया में भेजे गए हैं। संभव है कि भविष्य में इसके अच्छे नतीजे मिले लेकिन यह विदेश नीति की खामी और नाकामी कही जाएगी कि हम पीड़ित होकर भी दुनिया को अपने हक़ में नहीं कर पाए। प्रधानमंत्री ,विदेश मंत्री लगातार दुनिया के देशों की यात्रा पर रहे हैं। पहले और दूसरे कार्यकाल में तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ हंसती-बोलती तस्वीरें हमने देखी हैं जिसके नतीजे तीसरे कार्यकाल में मिलने थे। खासकर इस भयावह पहलगाम आतंकी हमले के बाद जिसमें धर्म पूछ कर जान ली गई। धार्मिक सौहार्द्र और सद्भाव की बात करने वाले देशों ने क्यों यकीन नहीं किया ? हम कहां चूके, बहस होनी चाहिए। संसद सही जगह हो सकती है। चाणक्य के कूटनीतिक विचार साम (शांतिपूर्ण तरीके से किसी विवाद को सुलझाना) और दाम (धन या उपहार से किसी का समर्थन लेना )को पार कर हम दंड पर आ गए हैं ? पाकिस्तान के लिए तो यह सर्वथा उपयुक्त है लेकिन बांग्लादेश और चीन ? इस ख़ूनी नरसंहार के बाद दुनिया हमारे साथ क्यों नहीं आई ? यहां हम नाकाम क्यों हुए ? एक बुलंद सरकार को चैन के साथ इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने चाहिए।
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