चकमा देने वाली कहानियों का दौर
अध्यात्म और भारतीय पौराणिक ग्रंथों के विवेचनाकार देवदत्त पटनायक एक जगह लिखते हैं कि प्राचीन काल से ही गाथाओं के माध्यम से सत्ता की स्थापना होती आई है। राजा में देवत्व का अंश बताया जाता था। यूं तो राजा अक्सर वंश विशेष से ही चुने जाते थे लेकिन जब ऐसा भी नहीं हो पाता था तब जो भी चुना जाता था, उसे लेकर यही साबित किया जाता था कि उस पर देवताओं की असीम कृपा है। वह परम प्रतापी और विलक्षण है। तब ऐसा कौन कर पाता था और किसे यह जिम्मेदारी दी जाती थी? कौन यह स्थापित करता था कि इस पर देवताओं की कृपा है और यह आम से बहुत अलग और विशेष है? क्योंकि ऐसा न होने पर प्रजा का उस पर विश्वास होना संभव नहीं होता था जिससे राजकाज में बाधा आती थी। इसके लिए प्राचीन भारत के वैदिक काल में दूसरों पर राज करने के इच्छुक महत्वाकांक्षी क्षत्रप ब्राह्मणों द्वारा अनुष्ठान करवाते थे और इन अनुष्ठानों के सफ़लतापूर्वक पूरे होने का तात्पर्य यह था कि देवता उस क्षत्रप के साथ हैं। अग्निष्टोम,अग्निचयन,अश्वमेध यानी वाजपेयी और हिरण्यगर्भ यजुर्वेद और ब्राह्मण साहित्य में अनुष्ठान का ब्यौरा मिलता है। फिर भी केवल इतना पर्याप्त नहीं था। बाद के दौर में ब्राह्मण कथाकार बन गए और उन्होंने राजा के राजत्व की पुष्टि करने के लिए कथाएं बताईं जिनसे साबित हो जाता था कि राजाओं का उद्गम अलौकिक है।
वैसे यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि आधुनिक भारत में किसने खुद को अलौकिक और नॉन बायोजिकल बताने की कोशिश की। आज का मुख्यधारा का लगातार मीडिया कहानियां सुनाने की भूमिका में है। बस, किसी तरह देवत्व स्थापित हो जाए। येन-केन बस वह यही स्थापित करने की जुगत कि यह सत्ता दूध से धुली है और इसका जयकारा नहीं लगाया तो अनर्थ हो जाएगा, राज्य कष्टों से घिर जाएगा। हम सब जानते हैं कि निकट अतीत में किन-किन रूपों को स्थापित करने के प्रयास समय-समय पर हुए। तब के संजय (महाभारत युग में युद्ध का सीधा हाल सुनाने वाले) ने तो धृतराष्ट्र को युद्ध का सीधा हाल ही जस का तस सुनाया था, आज का दौर तो उन्माद पैदा कर 'ज़ोम्बी जनरेशन' बना रहा है। वो ज़ोम्बी जो मुर्दा होकर भी अपनी जानलेवा हरकतों से किसी को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं।
अभी हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय मुख्यधारा के मीडिया की जो भूमिका रही, उस पर पूरी दुनिया में बहस -बातचीत हो रही है कि आख़िर इस उत्तेजना की ज़रूरत क्या थी, जिसने शौर्य और वीरता के असली पराक्रम को ही जनता तक नहीं पहुंचने दिया। युद्ध जिसका दूसरा नाम केवल ज़िन्दगियों का ख़ात्मा है, उसकी इतने उन्मादी ढंग से वकालत क्यों की जा रही थी ? वह भी सदियों से शांति का संदेश देने वाली भारत भूमि से। राम, महावीर, बुद्ध, नानक और कबीर की धरा से ऐसे विध्वंस के संदेश क्यों? क्या केवल सत्ता को स्थापित और ख़ुश करने के लिए? फिर जो मीडिया की भूमिका इतनी ही छोटी, सीमित और अविश्वसनीय हो गई है तब उस पर वह भरोसा भी क्यों किया जाए? सत्ता तो चाहती है कि जनता पहले मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह के सांप्रदायिक, स्त्री विरोधी और अश्लील बयान को सुने, फिर समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव के जातिसूचक बयानों को और फिर अली खान महमूदाबाद की फेसबुक पोस्ट में ऐसी उलझे कि सवाल-जवाब का स्तर बस गिरता ही चला जाए।
अली खान महमुदाबाद हरियाणा में स्थित अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर और हेड हैं। वे अपने विषय के स्कॉलर माने जाते हैं। उनकी राय सुनी जाती है। कैंब्रिज और दमस्कस यूनिवर्सिटी से उनकी पढ़ाई हुई है और वे उस अशोका यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं जिसकी बुनियाद लिबरल एजुकेशन की रही है। जब वह प्रोफ़ेसर अपनी बात कहता है तब बजाय उसे समझने के राज्य सरकार उसे तुरंत जेल में डाल देती है, पूछताछ के लिए रिमांड पर ले लेती है । कल्पना कीजिये कि आप रात में अपनी कोई बात लिखकर सोए हों और अगले दिन पुलिस फ़ोर्स इस तरह आपको ग़िरफ़्तार करने घर में दाख़िल हो जाए जैसे आप कोई आतंकवादी हों। गर्भवती पत्नी की फ़रियाद का भी कोई असर ना हो। तब क्या हम देश में लिखने-बोलने की आज़ादी को ख़त्म कर केवल दमन का शासन स्थापित कर रहे हैं? फिर तो जॉर्ज वाशिंगटन ने ठीक ही कहा है कि बिना इसके मनुष्य केवल भेड़ों का एक झुंड है।
प्रो. अली ने अपनी पोस्ट (अंग्रेजी में) में लिखा थस "अनेक दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर्नल सोफ़िया कुरैशी की प्रशंसा कर रहे हैं, यह ख़ुशी की बात है लेकिन ये लोग अगर इसी तरह ऐसे लोगों के लिए भी आवाजें उठाएं जो मॉब लिंचिंग, गैर-कानूनी बुलडोज़र और सत्तादल की शह पर चलाए गए साम्प्रदायिक नफ़रत के शिकार हुए हैं। वे सरकार से मांग करें कि इन्हें भारतीय नागरिक के तौर पर सुरक्षा दी जाए तो देश आगे बढ़ेगा। दो महिला सैनिकों के ज़रिए जानकारी देने का नज़रिया बेहतरीन है लेकिन इस नज़रिये को हक़ीक़त में बदलना चाहिए नहीं तो यह केवल सरकार का दिखावा या पाखंड माना जाएगा।" सुप्रीम कोर्ट से अली को ज़मानत तो मिल गई है लेकिन उन्हें पासपोर्ट जमा करने के लिए कहा गया है और हिदायत दी गई है कि जांच तक आप इस मामले में कुछ नहीं लिखेंगे और मीडिया से भी बात नहीं करेंगे। न्यायालय को पोस्ट लिखने का समय भी सही नहीं लगा। अब सरकार शायद इसे अपने हिसाब से देखेगी। इससे उसकी समय, भावना और अभिव्यक्ति पर नियंत्रण की सोच को बल मिलेगा। लोकतंत्र पर नए पहरे होंगे। क़ानूनविद कह रहे यह बोलने की आज़ादी बनाए रखने की बजाय एक विचारधारा को पुष्ट करना है। कोर्ट क़ा काम राष्ट्र भक्ति की कक्षा लगाना नहीं है लेकिन बेशक ज़मानत बड़ी राहत है।
मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह पर भी मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के संज्ञान के बाद एफआईआर दर्ज़ की गई लेकिन न कोई गिरफ़्तारी हुई और न ही इस्तीफ़ा। कर्नल सोफ़िया कुरैशी को 'आतंकवादी की बहन' बताने पर पार्टी और सरकार की चुप्पी बताती है कि उसे मंत्रियों को हर बयान पर संरक्षण देना है और शिक्षाविदों को डराना। मासूम हैं वे बहस करने वाले जो सत्ता के इस व्यवहार को हिन्दू-मुस्लिम का फर्क बता रहे हैं। वे कह रहे हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उनके नाम में अली है और उनका नाम विजय है। यह गिरफ़्तारी इस आधार पर नहीं बल्कि सत्ता को आईना दिखाने वालों को सबक सिखाने के लिए है। यह बताने के लिए कि, 'सावधान, ऐसा लिखोगे तो कुचले जाओगे'। नाम का ध्यान तो केवल इसलिए रखा जाता है कि इससे मुद्दा बनता है, चीखने वाली बहस बनती है। आप बहस करना बंद कर दीजिए, मुद्दा ख़ुद अपनी मौत मर जाएगा लेकिन इसमें किसकी दिलचस्पी है? जिस मीडिया को ऑपरेरशन सिंदूर के दौरान ही कम लोगों ने देखा, उसे ज़िंदा रखने के लिए ऐसे ही मसलों की तलाश रहती है। अगर आप 'विजय बनाम अली' करते रहेंगे तभी तो कहानियां बनती रहेंगी और सत्ता की ताजपोशी जारी रहेगी।
सत्ता को स्थापित करने के लिए अजब -गजब कहानियों का यह दौर आधुनिक और नए भारत में नहीं चलना चाहिए। देवदत्त पटनायक के अनुसार पश्चिम भारत की एक कहानी में ऋषियों की मुलाक़ात ऐसे पुरुष से हुई थी जो नाग के फन के नीचे सोए रहकर धूप से बचते थे या फिर कुछ शेर से दो-दो हाथ कर लेते थे। गुजरात के चावड़ा राजवंश के अनुसार एक राजकुमार इसलिए अलौकिक बताए गए क्योंकि वह झूले में पड़े रहते थे और धूप उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाती थी जबकि ऐसा पेड़ की छाया के स्थिर रहने के कारण होता था। आज ऐसी हर कहानी के जवाब विज्ञान के पास हैं। आज़ाद भारत में सब नागरिक बराबर और समान हैं। सब में देवत्व है क्योंकि सबके जन्म लेने की प्रक्रिया भी एक है। हां, प्रशिक्षण और अभ्यास ज़रूर किसी को भी खास बना सकता है। नए भारत को जो चकमा देने वाली कहानियों की बजाय उड़िया कहानीकार बानू मुश्ताक़ के कहानी संग्रह 'हार्ट लैंप' को पढ़ना चाहिए जिन्हें अनुवादक के साथ अंतर्राष्ट्रीय बुकर सम्मान मिला है। बानू ज़मीन पर संघर्ष करतीं महिलाओं के अधिकारों की पैरोकार हैं और उनकी कहानियां के किरदार भी इन संघर्षरत महिलाओं के हैं।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 26 अप्रैल 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत आभार यशोदा जी
जवाब देंहटाएंलम्बे समय बाद 🙏