जान का सदका





मैं फिर जिंदा हो जाना चाहती हूँ
तेरी जान का सदका लेना चाहती हूँ
 
नज़र ए बद से दुआ का सफ़र
एक  पल में करना चाहती हूँ
 


ये जो ख्वाहिश  दिल ने की है अल सुबह
तेरे ज़ख्मों में खुद को पैबस्त करना चाहती हूँ

 माजी कहकर भूलने को न कहना दोस्त
स्वर्णिम दौर को लौटा लाना चाहती हूँ
 

पाषाण युग से यही आरज़ू  रही है मेरी
तेरे लिए कायनात किनारे कर देना चाहती हूँ
 
यह लोह-ओ-क़लम  भी ले जा रहा है तेरे  करीब
मैं तो बस इसमें सवार हो जाना चाहती हूँ
 
होगी जब कभी क़यामत एक रोज़
 मैं  पूरी तरह सज जाना चाहती हूँ

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