खेल में दो दो हाथ क्यों?

दो राजा थे। दोनों पड़ोसी थे। उनकी रियासत की लंबी-लंबी  सीमाएं एक दूसरे से मिलती थीं। यूं तो दोनों में गाढ़ी शत्रुता थी लेकिन बड़ी-बड़ी  खेल प्रतियोगिताओं  में हिस्सा लेने का लालच वे छोड़ नहीं पाते थे। इनमें एक छोटी रियासत का राजा ज़्यादा हमलावर तबियत का था और उसकी सेना और प्रशिक्षित गुर्गे कई बार दूसरे राज्य में घुसपैठ कर चुके थे। सीमा पर भी ये भीषण उत्पात मचाते और मौका देख कर निहत्थी निर्दोष प्रजा की जान भी ले लेते। राजा ने सुरक्षा के लिए कटीली बाड़ भी लगाई, कोई फ़ायदा ना हुआ। इस बार राजा ने तय किया कि अब इनसे कोई व्यवहार नहीं होगा। यहां तक की  धनुर्विद्या और मल्ल्युद्ध की बेहद लोकप्रिय प्रतिस्पर्धाएं भी अब हमारे बीच नहीं होंगी। पूरी रियासत ने राजा की घोषणा का स्वागत किया कि ख़ून की होली खेलनेवाले पड़ोसी के साथ अब कोई खेल नहीं होगा। फिर पता नहीं कब, किसी तीसरी  रियासत में एक नियत दिन दोनों राज्यों के मल्ल योद्धा अखाड़े में पहुंचे और भिड़ गए। प्रजा में कोई उत्साह नहीं था और ना ही वह अखाड़े में पहुंची। घुसपैठिये राजा के योद्धा, धोबी पछाड़ के साथ धो दिए गए। जीतने वाले ने कहा कि यह विजय हमारी सेना और लड़ाई में प्राण न्योछावर करने वालों के नाम है। हम अपने विरोधियों से कोई गले नहीं मिलेंगे। नियम था कि कोई जीते, कोई हारे अंत में गले मिल कर खेल भावना को आगे बढ़ाया जाता था । प्रजा हैरान थी कि ऐसे खूंखार पड़ोसी के साथ खेल क्यों खेलना था फिर भले ही क्यों ना वह क्रीड़ा (खेल) परिषद के ख़ज़ाने  को भर देता हो?

बीते रविवार टी -20  एशिया कप में भारत-पाकिस्तान का लीग मैच दुबई में हुआ। भारत ने शानदार जीत हासिल की। अगर जो यह युद्ध था तो भारत ने पाकिस्तान को बुरी तरह परास्त कर दिया था। जीत के लिए आवश्यक रन 20 के बजाय 15 ओवर में ही बना लिए गए थे। पहले तो दोनों टीमों के कप्तानों के टॉस के बाद भी हाथ नहीं मिले जिसे पाक ने अम्पायर की ग़लती मान लिया था और फिर भारत के कप्तान सूर्यकुमार यादव ने मैच जीतने के बाद भी पाकिस्तानी कप्तान और शेष खिलाड़ियों से हाथ नहीं मिलाए । प्रेसवार्ता में उन्होंने अपनी जीत को पहलगाम शहीदों को समर्पित किया। यह बेहतरीन था लेकिन हाथ ना मिलाना ऐसा था जैसे दुबई की रेगिस्तानी हवाओं में खेल भावना का पूरी तरह उड़ जाना। इन खेलों में देशों के राष्ट्रीय ध्वज होते हैं, राष्ट्रगान होता है,खेल प्रेमी जनता होती है। तब क्या यहां भी लकीरें खिंच जानी चाहिए ? दर्शकों के अलग-अलग बॉक्स बन जाने चाहिए ताकि वे एक-दूसरे से पर्दा करते हुए मैच का आनंद ले सकें ? ऐसे में जब किसी विरोधी खिलाड़ी के दमदार छक्के पर खेल सीख रहे किशोर का ताली बजाने का मन करे तो वह खुद को रोक ले ? भारत के कप्तान का तब रवैया क्या होगा जब वह  यूएई की टीम में शामिल पाकिस्तानी और भारतीय खिलाड़ियों  के साथ खेलेगा ? ये कमज़ोर स्ट्रोक्स भारत जैसे बड़े और महान देश की सोच से मेल नहीं खाते और न ही यह खेल का 'न्यू नॉर्मल' होना चाहिए कि जब मन किया खेलेंगे,जब नहीं किया तब नहीं खेलेंगे और खेले भी तो खेल भावना को अलग रखेंगे। वैसे भी जिस देश ने खून बहाया हो उसके साथ खेल क्यों ?

तब क्या खेल अब व्यापार है। सच है कि जिस तरह खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते ठीक वैसे ही खेल और सियासत भी एक साथ नहीं चल सकते। यह हुआ तो खेल से  दमख़म और आनंद जाता रहेगा। 2020 के टोकियो ओलंपिक्स में भारत के आठवें आश्चर्य नीरज चौपड़ा (27) के गोल्ड मैडल की जीत में फिर वह आनंद और चमक कहां रहेगी जो वहां भी नफ़रत की सियासत घुसा दी जाए। टोकियो ओलंपिक्स में नीरज भाला फेंक में सोना जीतने वाले पहले एशियाई थे। तब पाकिस्तान के अरशद नदीम पांचवें स्थान पर रहे थे और उन्होंने कहा था कि नीरज ही मेरी प्रेरणा हैं। फिर 2024 के पेरिस ओलंपिक्स में नदीम स्वर्ण जीते और  नीरज चौपड़ा को रजत मिला। वह मंज़र कैसा होता जब नदीम इस तरह पेश आते जैसे कोई युद्ध जीत लिया हो बल्कि हिंदुस्तान में तो नीरज की माता जी ने दोनों बच्चों को आशीर्वाद  देते हुए कहा था कि अरशद भी हमारा ही बच्चा है। यह वाक़ई बहुत ही दरियादिली से भरा बयान था जिसने खेल भावना के परचम  को बहुत ऊंचाई पर फ़हरा दिया था। बाद के एक इंटरव्यू में नीरज ने कहा भी था -यह शब्द मेरी मां और उसके मां वाले दिल से आए थे ,वे बहुत छोटे से गांव में सादा तरीके से बड़ी हुई हैं, उन पर किसी सोशल मीडिया या सियासी विचारधारा का असर नहीं है। " 

तब क्या वाक़ई राजनीतिक नैरेटिव सेट करने के लिए ये सारी कूद -फांद मची रहती है जिसके शिकार अब खेल भी हो चले हैं। सोशल मीडिया में इस मैच को लेकर उत्साह कम नाराज़गी ज़्यादा थी। फिर एक लोकप्रिय नज़रिया बना कि भारतीय कप्तान सूर्यकुमार यादव ने हाथ ना मिलाकर बिलकुल सही काम किया है। पाकिस्तान ने जो पहलगाम में किया उसके बाद यही  प्रतिक्रिया सही है। मैच के बाद भारतीय कप्तान ने कहा कि बीसीसीआई ,भारत सरकार और खिलाड़ी इस मुद्दे पर सब एक हैं। इससे तात्कालिक राहत तो मिल गई लेकिन खेल, सियासत का हिस्सा भी बन गया। खेल के मैदान को क्यों जंग का मैदान बनना चाहिए। फिर तो नेता अपने सियासी हिसाब-किताब यहीं बराबर करने लगेंगे। खिलाड़ी उनके मोहरे भर होंगे।शतरंज के वैसे खिलाड़ी नहीं जो मोहरे अपने हिसाब से चलते हैं। 


सच है कि अतीत में फुटबॉल,टेनिस ,मुक्केबाज़ी की अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में ऐसा हुआ है। यूक्रेन की टेनिस प्लेयर मार्ता कोस्तियुक ने साल 2022 में  बेलारूस की विक्टोरिया से हाथ मिलाने से इंकार कर दिया था क्योंकि बेलारूस ने यूक्रेन पर रूस के हमले का समर्थन किया था। 2023 में विश्व तलवार बाज़ी में यूक्रेन की खिलाड़ी ने भी रूस की खिलाड़ी से हाथ नहीं मिलाया था जिसे प्लेयर का निजी अधिकार मान लिया गया था। अरब और इज़राइल के खिलाड़ी भी ऐसा करते आए हैं। 2011-12 की इंग्लिश प्रीमियर लीग में लिवरपूल ने मैनचेस्टर युनाइटेड से रंगभेद विवाद की वजह से हाथ नहीं मिलाया था। इसके आलावा कभी-कभार आपसी विवाद में भी खिलाड़ी हाथ मिलाने का शिष्टाचार नहीं निभाते हैं। क्रिकेट में ही 2013 की एशेज शृंखला में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के दो खिलाड़ियों ने एक दूसरे पर भद्दे फ़िकरे कसने के बाद  हाथ नहीं मिलाया था। शीत युद्ध के दिनों में अमेरिका सोवियत संघ ,ईरान-अमेरिका ,चीन ताईवान के खिलाडी भी मुंह फेर लेते थे लेकिन तब हाथ मिलाने की रस्म अंतर्राष्ट्रीय दबाव की वजह से क़ायम रही।  खेल भावना बड़ी है। आज जब आधुनिक ओलंपिक्स खेलों को 130 साल हो चुके हैं, इसका बड़ा श्रेय खेल भावना को ही जाता है जो हर हार-जीत से बड़ी है। भारत में क्रिकेट को बहुत ऊंचा दर्जा हासिल है। पड़ोसी पाकिस्तान इसमें और रोमांच भरता है। देखना होगा कि टी-20 एशिया कप के अगले मैच में जो फिर रविवार को ही है, पाकिस्तान का रवैया क्या होता है। खेल और जंग एक नहीं हो सकते। हाथ मिलाना फ़िज़ूल लगे तब भी क्योंकि एक न एक दिन राह यहीं से निकलेगी। नया भौगोलिक परिदृश्य भी इस तरफ़ इशारा कर रहा है। फ़िलहाल भले ही हालात दिनेश कुमार द्रोण के इस शेर की तरह लग सकते हैं -

है ये तकाज़ा  रस्म ए अदब का वर्ना 

तो मैं जनता हूं हाथ मिलाना फ़ुज़ूल है 



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