फेसबुक से बड़ी है संविधान की बुक

क़रीब  चार दशक पहले की बात है। इंदौर की विष्णुपुरी भी किसी आम मोहल्ले जैसे ही थी और यहां के रहवासियों ने भी रात की चौकीदारी के लिए एक नेपाली तैनात कर रखा था। कोई उन्हें गोरखा कहता, कोई नेपाली तो कोई जंग बहादुर के नाम से बुलाया करता। रात को साइकिल पर चलकर जब वे सीटी बजाते तो हम बच्चे डर कर बिस्तर में दुबक जाते। जब यही सीटी  बार -बार बजती तो लगता कि आज तो ज़रूर बहादुर अंकल  ने  किसी चोर को देख लिया है। महीने के अंत में जब वे अपनी  गहरी हरी वर्दी में 30-40 रुपए लेने आते तो सब बड़े उनसे एक ही शिकायत करते, रात को सिटी क्यों नहीं बजाते, बहुत दिनों से आवाज़ ही नहीं सुनी तुम्हारी,सो जाते हो क्या? पता नहीं कितने घरों में  इन सवालों को उन्हें सुनना पड़ता लेकिन उनकी ज़ुबां से कभी किसी ने कोई तेज़ या कर्कश ध्वनि नहीं सुनी। शलाम शाब ,जी शाब कहते-कहते वे विदा ले लेते। आज जब उनके बच्चों के बच्चों ने यानी जेन ज़ी जो 1996 के बाद पैदा हुई है, उसने आंदोलन कर दिया है तो विचार करना चाहिए कि पड़ोस में इस अशांति और बेचैनी किस क़दर रही होगी ? क्यों अपने चुने हुए नेताओं के प्रति 15 -24 साल की इस 21 प्रतिशत युवा आबादी में इतना आक्रोश था कि उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा ? क्या इसके मूल में केवल सोशल मीडिया पर प्रतिबंध था या फिर विदेशी हाथ ? ग़ुस्सा इतना कि नई प्रधानमंत्री सुशीला कार्की के शपथ समारोह में एक भी सियासी दल को बुलाया नहीं गया। 

दरअसल जब नेता लंबे समय तक कुर्सी पर टिके रहने के बाद और ज़्यादा टिकने के लिए आपस में ही अन्य राजनीतिक दलों के साथ समझौता  कर भ्रष्टाचार पर पर्दा डाल लेते हैं तब जनता में आक्रोश पैदा होता है। ऐसे में  बीच-बीच में लोकलुभावन फ़ैसले भी फिर जनता को लुभा नहीं पाते। नेपाल की के पी शर्मा ओली सरकार ने के एक हिस्से को अपने नक़्शे में दिखाया लेकिन यह पैंतरा  भी काम ना आया। रोष और बढ़ा जब इन नेताओं के बच्चों की मौज-मस्ती की तस्वीरें सोशल मीडिया पर रील बन कर घूम रही थी और एक बड़ी आबादी अब भी छोटे -मोटी मज़दूरी के लिए दुनिया पर आश्रित थी। जब देश में अधिकांश युवाओं के पास करने के लिए कुछ ना हो तब मान लेना चाहिए की भीतर ही भीतर बहुत कुछ सुलग रहा होता है जिसे बस ज़रा सी हवा की ज़रूरत होती है।युवाओं ने तो सर पर कफ़न ही बाँध लिया था। 20 जानें ले ली गईं। जेन ज़ी जो बदलाव पर अडिग थी। 


 चौकीदारी पर लौटते हैं।  इस देश की जीडीपी में (30 -40 फ़ीसदी)का सबसे बड़ा योगदान इन बाहर जाकर काम करने वाले नौजवानों का है। भारत समेत कई खाड़ी के देशों में काम कर ये अपने देश में पैसा भेजते हैं जिससे गुज़ारा हो जाता है लेकिन विकास नहीं । आरुषि तलवार केस याद होगा जिसमें बच्ची के साथ एक नेपाली नौकर की भी हत्या हो गई थी और  जिसकी निष्ठा और ईमानदारी पर किसी जांच में कोई संदेह ज़ाहिर नहीं हुआ था। आशय ये कि उनके अपने देश में रोज़गार के विकल्प बेहद कम  हैं और वे अपने घरों से दूर रहकर छोटे-छोटे काम करने के लिए मजबूर हैं। भारत से भी ड्राइवर,घरेलू नौकर ,श्रमिक विकसित देश में काम पाने के रास्ते ढूंढ़ते रहते हैं। इसके लिए उन्हें डंकी (अवैध रास्तों से सीमा पार करना) मारने से भी कोई एतराज़ नहीं होता और फिर इन्हीं मजबूर नागरिकों को अमेरिका जैसे देश पैरों में बेड़ियां डालकर वापस भेजते हैं। अपमान के ऐसे घूंट पीकर जीने वाली आबादी की तक़लीफ़ समझने में ये नेता नाकाम ही रहते हैं ।

युवा अपने नेताओं के भ्रष्टाचार से त्रस्त और दुखी हो,उसके हित की कोई परवाह मुल्क के हुक्मरानों को नहीं हो, कुर्सी के सिवाय उन्हें कोई लक्ष्य नज़र ना आता हो तो हालात केवल नेपाल में नहीं बांग्लादेश और श्रीलंका में भी बेक़ाबू होते हैं। ठीक एक साल पहले बांग्लादेश जब वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना और तीन साल पहले श्रीलंका भी ऐसी स्थिति को प्राप्त हुआ था तब प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ऐसे ही देश छोड़कर भागे थे। हिंसक हो चुके आंदोलन के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने भी तुरंत इस्तीफा दिया और फिर धीरे धीरे कई मंत्रियों ने भी। इस समय नेपाल में दो दलों की मिली जुली सरकार थी जिसके बारे में पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' का कहना है कि इन दोनों सीपीएन,यूएमएल  (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल,यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) और नेपाली कांग्रेस ने 14 महीने पहले मेरी चुनी हुई सरकार को हटा दिया था जब मैं भ्रष्टाचार को लेकर सख़्त कार्रवाई कर रहा था।  नेपाली कांग्रेस के ही सदस्य ओली और किसी को भी सरकार में शामिल करने के लिए जेन-ज़ी तैयार नहीं है । इनकी सरकार के प्रति ही जेन ज़ी का यह आक्रोश उबला था । बताया जाता है कि पहले प्रदर्शन शांतिपूर्ण था लेकिन 20  युवाओं की हत्या ने इसे हिंसक रूप दे दिया। फिर तो आंदोलनकरियों ने पार्टी पहचान से परे हरेक दल को निशाना बनाया। जेलें भेद दी गईं। पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाल की चौथी सबसे बड़ी राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के रबी लामिछाने को मुक्त करा लिया गया। रबी पहले पत्रकार थे और उनकी लोकप्रियता उस शो ने बढ़ाई जिसमें वे नेताओं और समाज की स्थापित शक्तियों से सीधे, तीखे सवाल करते थे। 2013 के आस-पास उनका शो 'सिद्ध करो जनता संग' खूब मशहूर हुआ जिसमें एक बार ओली भी शामिल हुए। 2022 में इस पत्रकार ने अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी बनाई तब तक वे भ्रष्टाचार विरोधी आवाज़ बतौर नेपाल में स्थापित हो चुके थे। चुनाव लड़ा और धमाकेदार  जीत के साथ उनकी पार्टी नेपाल की चौथी बड़ी पार्टी बन गई। प्रचंड  के साथ मिलकर उन्होंने सरकार बनाई और उप प्रधानमंत्री बन गए। इस जेन ज़ी आक्रोश ने उन्हें ही जेल से मुक्त कराया है क्योंकि सरकार ने उन्हें एक कॉर्पोरटे घोटाले के आरोप की सुनवाई में जेल में डाल दिया था। 

Sushila karki: first woman pm of nepal

दो और नाम जो ईमानदारी के लिए दोहराएं जा रहे थे उनमें नेपाल सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की हैं। वे भी  अपनी बुलंद और स्वतंत्र आवाज़ के लिए जेल में डाल दी गईं थीं।  उनकी दो किताबें न्याय और कारा (जेल) प्रकाशित हुई हैं। पद स्वीकारने से पहले उन्होंने साफ़ कह दिया कि कोई सियासी दल सरकार में नहीं होगा और वे भ्रष्टाचार की निष्पक्ष जांच कराएंगी। जेन ज़ी के बीच दूसरा प्रिय नाम काठमांडू के मेयर बालेन्द्र शाह 'बालेन' का है। उन्होंने ही कार्की का नाम  प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था। दस साल पहले नेपाल हिन्दू राष्ट्र से धर्म निरपेक्ष राज्य के साथ नए संविधान को अपना चुका है और इसी संविधान के हिसाब से न्यायाधीश ना प्रधानमंत्री बन सकते थे  और ना राष्ट्रपति। लेकिन कार्की अब देश की पहली महिला प्रधानमंत्री हैं। नेपाल  राजशाही के भीतर भी ख़ूनी संघर्ष का साक्षी रहा और फिर देश के भीतर ही लम्बे समय तक चले माओवादी संघर्ष के बीच 18 हज़ार जाने गईं,16 सौ के लगभग लापता हैं। बीते दस सालों में सात साल तक तीन अलग अलग कार्यकाल में ओली ही प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए अलग-अलग साझेदार चुनें। युवाओं को कुर्सी के प्रति ऐसा अनुराग बर्दाश्त नहीं हुआ और पूरी दुनिया ने इस दहला देने वाले विद्रोह को देखा। 

कार्टूनिस्ट उन्नी के एक कार्टून में कहते हैं ये युवा केवल फेसबुक की बहाली नहीं बल्कि उससे भी बड़ी संविधान की बुक की बहाली चाह रहे हैं। सोशल मीडिया पर प्रतिबंध ने इस आंदोलन में ट्रिगर का काम किया। नेपाल की आंच भारत पर भी है। ओली का इलज़ाम भी यही है कि उन्होंने लिपुलेख को नेपाल के नक़्शे में दिखाया इससे भारत को तकलीफ है और इस हिंसा में उसका हाथ भी हो सकता है। नेपाल में चल रही जबरदस्त अस्थिरता और हिंसा के माहौल के बीच सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बी. आर. गवई ने भी बड़ा बयान दिया है। गवई ने कहा, “हमें अपने संविधान पर गर्व है, जब हम पड़ोसी देशों में हो रही घटनाओं को देखते हैं, जैसे कल नेपाल में हुआ।” जस्टिस विक्रम नाथ ने भी बांग्लादेश में पिछले साल हुए इसी तरह के विरोध प्रदर्शनों का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘हां, बांग्लादेश में भी…।’’वे तब अपनी  अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच के साथ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा दिए गए संदर्भ के मामले की सुनवाई कर रहे थे । सच ही तो है संविधान की किताब ही सबसे बड़ी है । हिन्दू राष्ट्र ,इस्लामी राष्ट्र की पहचान किसी देश की मज़बूती और सुरक्षा की गारंटी नहीं हो सकती। नेताओं का पहला और अंतिम दायित्व जनता के लिए है। नेपाल सरकार यहां चूकी थी। 


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

मिसेज़ ही क्यों रसोई की रानी Mr. क्यों नहीं?

पाकिस्तान :' टू ' मैनी नेशन थ्योरी