26 और 30 गठन-पतन की दो तिथियां
जनवरी महीने की ये दो तारीखें हैं तो एक दूसरे के बेहद क़रीब लेकिन भारत के उत्थान और पतन की कहानी एक साथ सुनाती हैं। 26 को जहां हमने आत्मबोध और वजूद को शब्द दिए;देश को विधान दिया , 30 को उसी बोध को ध्वस्त किया था। 26 जनवरी 1950 को देश की महान सोच को अंगीकार करने के बाद बना संविधान लागू हुआ और 30 जनवरी 1948 को जिन बापू ने बिना खड्ग और ढाल के भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया, उनकी हत्या कर दी गई। उस फ़क़ीर की जिन्हें सुभाष चंद्र बोस ने राष्ट्रपिता और रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने महात्मा कहा था। उन्हें ख़त्म किया जिनका केवल लक्ष्य स्वराज और भाईचारा था जो भारत की आज़ादी के साथ नफ़रत को हमेशा -हमेशा के लिए मिटा देना चाहते थे। वे कौन थे जो उनके इन विचारों से कसमसा उठे? किसे लगा कि उनकी जान लेने में ही उनका जीवन है ? इस हत्या का लंबा मातम हमने किया लेकिन कुछ ठोस नहीं कर सके। अब उस मातम को गर्व में बदलने और सही ठहराने के प्रयास सुनियोजित तरीके से जब-तब होने लगे हैं। हत्या को सही ठहराने का नैतिक साहस आख़िर क्यों खाद-पानी पाता है ? इसे पढ़ते हुए यदि आप मेरे विचार से सहमत ना हों तो मेरी हत्या कर दें, क्या यही भारत माता का इतिहास कहता है ? राम, महावीर,बुध्द,नानक,कबीर क्या इसी सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं? 30 जनवरी 1948 के बाद से तो यह भी हुआ कि इस हत्या को वध कहकर आमजन में ऐसा भ्रम फैलाओ कि वह इस क़त्ल और कातिल दोनों को सही समझ हमदर्दी की ओर बढ़ने लगे। इस अराजक सोच को रोकने के कोई प्रयास दशकों बाद भी नहीं ही हो रहे हैं।
संकट तो संविधान पर भी बन आया है। क्या इतने वर्षों में संवैधानिक संस्थाओं में हमारा यकीन मजबूत हुआ है ? क्या हमारे गण को लगता है कि तंत्र उसकी हिफ़ाज़त के लिए है या स्वराज उसके दैनिक जीवन में मौजूद है? डॉ भीमराव आंबेडकर का कथन है कि सरकार का काम ऐसा हो कि वो जनता के आर्थिक और सामाजिक जीवन में बड़े से बड़े क्रांतिकारी बदलाव भी बड़ी ख़ामोशी से लाए। क्या कोई ख़ामोशी नज़र आती है इधर ? यहां इतना शोर है कि शांति और सलीक़ा तो जैसे गुज़रे ज़माने की बात हो गए हैं। श्रेय लेने की ऐसी होड़ अतीत में कभी नहीं दिखी। क्यों ना कहा जाए कि संविधान के फ्रेम को तो बरक़रार रखा गया है लेकिन भीतर ही भीतर उन सबको मान्यता है जो संविधान सम्मत नहीं है। राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर सुहास पलशीकर एक और तारीख़ 22 जनवरी का भी ज़िक्र अपने लेख में करते हैं जिसे सच्ची आज़ादी बताया जा रहा है। वे लिखते हैं बीते पखवाड़े भारतीय गणराज्य की दो छवियों दर्शन हुए। एक संवैधानिक स्टेट के और दुसरे हिन्दू स्टेट के। एक अपने इरादों में बेहद आदर्श और दूसरा वह जो वर्तमान में दिखाई दे रहा है। पिछले जनवरी में मंदिर के भव्य अभिषेक समारोह के बाद भले ही भारतीय जनता पार्टी को चुनावी लाभ न मिला हो लेकिन इसकी महत्ता को कम आंकना गलत होगा और यह मानना भी गलत होगा कि अयोध्या मंदिर ने जनभावनाओं को आकार देने में भूमिका नहीं निभाई। इसमें प्रधानमंत्री को केवल एक भक्त के रूप में नहीं बल्कि मेज़बान पुजारी के रूप में प्रस्तुत किया गया था। समारोह में आरएसएस प्रमुख ने भी प्रधानमंत्री के साथ गर्वपूर्ण स्थान साझा किया। ये छवियां केवल सजावट नहीं बल्कि वे डिज़ाइन का हिस्सा हैं ,सोच की अभिव्यक्ति है।
30 जनवरी पर लौटते हैं। यह भ्रम पर्याप्त रूप से पोषित और फलित है कि विभाजन के लिए महात्मा गांधी ज़िम्मेदार हैं जबकि तथ्य कुछ और कहते हैं । आज़ादी के पहले के बरसों में जिन्ना मुस्लिम लीग के बड़े नेता बन चुके थे। मोहम्मद अली जिन्ना के बारे में गांधीजी कहते हैं-" जिन्ना समझौता चाहते हैं लेकिन वे नहीं जानते कि वे चाहते क्या हैं ?" दरसल जिन्ना जानते थे कि वे अलग देश चाह रहे हैं और वे इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। फिर तो जो भी बातचीत होती उसका टूटना भी तय था। विनायक दामोदर सावरकर और हिन्दू महासभा, जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत से सहमति जता रहे थे। सावरकर के शब्द हैं -"मुझे जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत से कोई समस्या नहीं है। हम हिन्दू लोग अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं।" जबकि नाथूराम गोड़से को महिमामंडित करते हुए आज भी यही कहा जाता है कि विभाजन के लिए गांधी ही ज़िम्मेदार हैं जबकि गांधी साफ़ कहते हैं कि यह कल्पना ही व्यर्थ है कि भारत का एक अप्राकृतिक विभाजन इसके निवासियों के लिए कोई ख़ुशी या समृद्धि ला सकता है। बहरहाल शायद इन पंक्तियों में राष्ट्र के विभाजन की बजाय हिन्दू राष्ट्र को पाने का स्वप्न भी पढ़ा जा सकता है और इसी का उल्लेख प्रोफेसर पलशीकर भी वर्तमान में दो स्टेट के आपसी संघर्ष और जटिलता की बात कह कर करते हैं। एक नया है जो तेजी से सामने घूम रहा है और दूसरा पुराना है लेकिन जिसे निष्प्राण घोषित नहीं किया गया है ।
क्या यह महात्मा गांधी का दोष है कि वे नोआखली (आज बांग्लादेश) में सुलगते दंगों के बीच दो महीने तक खुद की जान की परवाह किए बगैर हिन्दुओं के पुनर्वास के लिए काम करते रहे और फिर दिल्ली में हिंसा के शिकार मुसलमानों की रक्षा में भी लगे रहे। "मैं भारत को मुत्मइन नहीं कर सका। हमारे चारों तरफ़ हिंसा है। मैं एक दागी जा चुकी गोली हूं।" महात्मा गांधी ने 26 जून, 1946 को ये शब्द अपने जीवनी लेखक लुई फिशर से कहे थे। सच है कि गांधी उन दिनों बेहद बेचैन और अकेले थे। नोआखली में बापू अपनी अंतिम प्रार्थना सभाओं में दिल खोल कर रख देते थे। यहां आने वाले ज्यादातर उपवास पर होते थे।चरखा कताई भी नियमित होती थी। वे नोआखली से लौट आए थे और वहां दिलों की खाइयों को भी देख आए थे। अप्रैल, 1947 की प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा मुझे जो कहना है वह तो एक ही बात है कि हमें अपनी भलाई नहीं छोड़नी चाहिए। "अगर सब के सब मुसलमान मिलकर हमें कह दें कि हम हिंदुओं के साथ किसी किस्म का वास्ता नहीं रखना चाहते,उनसे अलग रहना चाहते हैं तो क्या हमें गुस्से में भरकर मारकाट शुरू कर देनी चाहिए? अगर हमने ऐसा किया तो चारों ओर ऐसी आग फेल जाएगी कि हम सब उसमें भस्म हो जाएंगे। कोई नहीं बचेगा। अंधाधुंध लूट-खसोट और आग जलाने से देश में बर्बादी ही फैलेगी। मैं तो कहूंगा जो योद्धा लोग लड़ते हैं उसमें भी विनाश ही होता है, हाथ कुछ भी नहीं आता। महाभारत में जो बात कही गई वह सिर्फ हिंदुओं के काम की नहीं है, दुनिया भर के काम की है। पांडव राम के पुजारी यानी भलाई के पूजने वाले रहे और कौरव रावण के पुजारी यानी बुराई को अपनाने वाले रहे,वैसे तो दोनों एक ही खानदान के भाई -भाई थे। आपस में लड़ते हैं और अहिंसा छोड़ हिंसा का रास्ता लेते हैं। नतीजा ये कि रावण के पुजारी कौरव तो मारे ही गए पर ,पांडव ने भी जीतकर हार ही पाई। युद्ध की कथा सुनने को भी इने- गिने लोग ही बचे और आखिर उनका जीवन भी इतना किरकिरा हो गया कि हिमालय में जाकर स्वर्गारोहण ही करना पड़ा। आज हमारे देश में जो चल रहा है वह सब ऐसा ही है।" इस दर्शन को कोई भी कैसे विरोध कर सकता है विरोध भी ऐसा कि जान ही ले लेता है। बेशक जनवरी महीने की 26 और 22 में कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए और 30 का पश्चाताप और दुख सबको होना चाहिए। गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर यही शुभकामना कि हम भारत के लोग एक और अजेय हों।
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