दोनों ही करते हैं 80 और 20
15 अगस्त को मिली आज़ादी सच्ची आज़ादी नहीं राजनीतिक आज़ादी थी। देश को सच्ची आज़ादी तो उस दिन मिली जिस दिन राम मंदिर की प्रतिष्ठा हुई। आख़िर इस बात के मायने क्या हैं ? निर्माण तो राम मंदिर का भी संविधान सम्मत तरीके से ही हुआ, तब भी यह कहना क्या सही होगा कि देश में संविधान का पालन नहीं हो रहा है ? क्या वाक़ई शहीदों को नमन करने और 15 अगस्त, 26 जनवरी को कौमी तराने गाने का कोई अर्थ नहीं है? अब हम सब केवल राम मंदिर निर्माण के दिन भजन गाएं और केवल इसी दिन गर्व से भर जाएं ? क्या दोनों को जोड़ना ठीक है ? अब क्या अंग्रेजों के दमन को भूल जाएं और यह भी कि गोरों से मिली स्वतंत्रता के बाद ही हमें तमाम तरह की अतीत की बेड़ियों से भी आज़ादी मिली थी। इससे पहले एक अभिनेत्री ने भी कहा था कि देश को असली आज़ादी तो 2014 में मिली है।आख़िर शहीदों के संघर्ष और लहू से मिली इस आज़ादी को कोई भी कम करके क्यों देखना चाहता है ? क्या ऐसा है कि एक वर्ग स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को भी नए सिरे से लिखना चाहता है और जो इसमें शामिल नहीं थे, उनकी नैतिकता भी बची रहे ?अगर नहीं तो फिर इससे तकलीफ़ क्या है ? इतने बरसों बाद भी जनता को इसी असमंजस क्यों डालना कि नहीं वो आज़ादी नहीं थी ,ये आज़ादी है। क्या एक बार भी यह विचार नहीं आना चाहिए कि बच्चे इस दुविधा में पल कर कैसे भावी नागरिक बनेंगे ?
इधर वाले 1947 को आज़ादी बताते हैं उधर वाले उसे 2024 को । गजब तमाशा है, भारत वर्ष की जनता के आगे। ये दोनों ही पक्ष आपस में लड़ते हैं और जनता की भावनाओं को भुनाते हैं, उन्हें परेशान करते हैं। जनता को दोनों से इस तकलीफ़ का इलाज मांगना चाहिए। ये जहां भी मिलें इनसे जवाब मांगें जाएं कि आखिर महंगाई,रोज़गार, इलाज की व्यवस्था क्यों नहीं करते ?सड़क पर बेहिसाब ट्रैफिक की फ़िक्र क्यों नहीं करते ? बीमार रास्ते में ही दम तोड़ देता है और गर्भवती इस ट्रैफिक में ही बच्चे को जन्म दे देती है ? आखिर तुम देश में बढ़ते अपराध और साइबर अपराध की चिंता क्यों नहीं करते ? जनता का ये डेटा साइबर क्रिमिनल्स के पास क्यों पहुंचता है ? हर वक्त सियासत का गन्दा खेलने वाले व्हाट्स ऍप संदेश लोगों के दिमाग को उद्वेलित क्यों रखते हैं ? थोक में इन संदेशों को पढ़कर समाज में कैसे कोई अपना रचनात्मक योगदान दे सकता है ? किसी विचारवान को इस पर विचार क्यों नहीं करना चाहिए? संविधान लागू होने की पचहत्तर साल पूरे होने की तारीख़ क़रीब है और अब कहा जा रहा है कि यह सही मायने में लागू ही नहीं हुआ। फिर यही समय है फ़ैसला कर लो कि कौनसा सच देश का सच है,भ्रम ना फैलाओ। फ़िलहाल जो धर्मिक वैमनस्य है ,आवाज़ उठाने वाले जेल में हैं,जो दलितों का दमन है, जो महिलाओं का शोषण है यह संवैधानिक बराबरी तो वैसे भी नहीं ही है?
जनता को इस 75 वें साल में यह भी समझना होगा कि वे बांटे जा रहे हैं। एक पक्ष धर्म के आधार पर अस्सी और बीस करता है और दूसरा भी अस्सी और बीस ही करता है। शायद 85 और 15 की क्योंकि इस देश में जो छुए जा सकने वाले उच्च वर्णीय लोग हैं वे 15 फीसदी से ज़्यादा नहीं हैं। 85 फ़ीसदी अब भी एक कमतरी में ही जीते हैं। हार्वर्ड और ऑक्सफ़ोर्ड के स्कॉलर और किताब 'कास्ट मेटर्स' के लेखक सूरज एंगडे ने दो साल पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कहा था -" आज़ादी के 75 साल बाद भी उस वर्ग को नया भारत बनाने में वह भागीदारी नहीं मिली है। वे कहते हैं ब्राह्मण केवल चार फीसदी हैं ,क्षत्रिय उससे भी कम और बनिया समुदाय और अन्य मिलकर भी केवल 15 प्रतिशत होते हैं और शेष 85 इस जातीय व्यवस्था तले खुद को अपमानित महसूस करता है। वह अपना अतीत भूलना चाहता है ,अपनी जाति को तजना चाहता है। सवाल किया जाता है कि भारत में ही बीते दो हज़ार साल में इतने आंदोलन या सम्प्रदाय क्यों पनपे ?दरअसल वे किसी न किसी रूप में इस जातीय व्यस्था के ही खिलाफ थे और इसे बदल देने के लिए आतुर। " डॉ येंगड़े का यह भी कहना था कि कबीर धारा क्यों चली क्योंकि वे मंदिर-मस्जिद की बजाय इंसान के लिए कहते हैं कि आओ मेरा हाथ पकड़ो मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। सवाल हो सकता है कि इस वर्ग को क्यों त्यागनी है अपनी कास्ट , इन्हें तो संविधान से मलाई मिलती है इसके में जवाब युवा डॉ येंगड़े कहते हैं यह तीन फ़ीसदी से ज़्यादा को मिलने वाली सुविधा नहीं है।
जाति आधारित भेद अपने साथ विदेश भी गया है। इसके मनोवैज्ञानिक असर का अध्ययन अमेरिका में भी हुआ है क्योंकि वहां की आबादी में डेढ़ प्रतिशत दलित हैं। यह आबादी कम आत्मविश्वास और डर में जीती है। उन्हें डर है कि इस वजह से वे मुख्यधारा से बाहर हो जाएंगे,इसलिए वे उपनाम छिपाना चाहते हैं। अमेरिका में इक्वलिटी लैब्स का अध्ययन बताता है कि वे 'कास्ट न्यूट्रल' उपनाम (जैसे कुमार,सिंह,या खान) उपयोग में लाते हैं ताकि अलग-थलग होने से बच सकें। अध्ययन कहता है कि पहचान के इस संकट से मानसिक सेहत प्रभावित होती है। क्या भारत में कभी भी इस मानसिक सेहत को कोई नेता ज़रूरी बताता है ? ये बस सियासी फायदे का गणित साधते हैं। एक आंबेडकर के नाम लेने को फैशन कह देता है और दूसरा नीले कपड़ों में आकर अपना विरोध जता देता है।
इस दमन की रेखा को पत्रकार और लेखक अइसाबेल विल्कर्सन ने भी शोध का विषय बनाया। अफ़्रीकी मूल की अमेरिकी पत्रकार पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता हैं और उनकी किताब 'कास्ट:द ओरिजिन्स ऑफ़ डिस्कन्टेन्ट्स' बेस्ट सेलर रही है। किताब यह साबित करने की कोशिश करती है कि अमेरिका में रंगभेद ,जर्मनी में हिटलर का एक जाति के ख़िलाफ़ नरसंहार इन सबकी जड़ों में कास्ट यानी जाति है और यह जाति व्यवस्था भारत से जुड़ती है। एक वर्ग को अपने से हीन समझना ,आर्थिक लाभ के लिए उनका इस्तेमाल करना जैसा की ब्लैक्स के साथ हुआ और उन्हें ढाई सौ सालों तक गुलाम बना कर रखा गया। जिस ब्लैक जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या गोरे अमेरिकी पुलिस अधिकारी से हो जाती है उसके मूल में जाति व्यवस्था है। यही जर्मनी में भी हुआ, यह साबित करने की कोशिश हुई की यहूदी हावी हो जाएंगे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मन का साथ नहीं दिया। अंग्रेजों ने इसे भारत में सीखा और फिर वे इस आईडिया को अमेरिका ले गए और रंगभेद शुरू किया और जर्मन वासियों ने संस्कृत शास्त्र पढ़े और फांसीवाद की नींव रखी।
बेशक हमें चिंता होनी चाहिए कि भारत की इस प्राचीन व्यवस्था में ही तमाम तरह के अत्याचारों की बुनियाद क्यों ढूंढी जा रही है। इसाबेल विल्कर्सन की किताब जूनियर मार्टिन लूथर किंग की कहानी को भी कोट करती है जो उन्होंने दलित छात्रों के एक स्कूल में जाने के बाद लिखी थी और कहा था कि भारत की जातीय व्यवस्था और अमेरिका की जातीय व्यवस्था एक सी हैं। किताब पर एक फ़िल्म 'ओरिजिन'भी बनी है। हालांकि भारत में किताब की आलोचना भी हुई। आईआईटी चेन्नई के प्रोफ़ेसर कहते हैं-"इसे एक किस्म की जागरूकता कहा जाता है। हम ब्लैक्स की जागरूकता का समर्थन करते हैं लेकिन हम नहीं मानते कि अमेरिकी रंगभेद की जड़ें जातिवाद में हैं और ब्राह्मण भारत के गोरी चमड़ी के लोग हैं।" किताब इस बात की ज़रूरी वकालत करती है कि इंसान-इंसान के बीच इस फर्क को मिटना चाहिए ,हरेक को चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। उसे जीवन में अपनी पीढ़ियों का संताप लेकर चलने की अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए। ये बातें केवल साहित्यिक मंचों और एक्टिविस्टों की शब्दावली का हिस्सा नहीं होनी चाहिए इसे नेताओं से भी आना चाहिए। 'जय भीम' केवल नारा नहीं है,जागरूक दलित समाज की अंतरात्मा में बसी आवाज़ है और इस आवाज़ को भारत के संविधान ने ही ताकत दी है। एक और बात आदिवासी समुदाय भी अलग नहीं है ,उनके लिए भी देशद्रोही जैसी भाषा का प्रयोग सोच समझ कर करना होगा। किसी अधिनायक की तरह नहीं।
Ps: Isabel Wilkerson ki kitab par ek film origina bhi bani hai jo Netflix par dekhi ja sakti hai
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