सरोगेसी कानून- 'फिलहाल' सब ठीक नहीं है

 "अगर आप में सामर्थ्य है कि आप किसी को खुशियां दे सकते हैं तो फिर देर मत कीजिये। दुनिया को इसकी ज़रुरत है "-जर्मनी केंट 

सरोगेसी शब्द लेटिन भाषा से आया है। सरोगेट का अर्थ है विकल्प या विस्थापन, किसी एक की जगह दूसरे का विस्थापन। सरोगेट मदर्स यानी वे माताएं जो दूसरे का गर्भ अपने भीतर रखती हैं और फिर बच्चे के जन्म के बाद उसके माता पिता को सौंप देती हैं, जिन्होंने उससे करार किया था। ऐसा अपनी भावनाओं,हार्मोन्स के ख़िलाफ़ जाकर करना होता है फिर भले ही करार आपने अपनी मर्ज़ी से क्यों ना किया हो। कुछ समय पहले तक इस करार के एवज में गर्भ में रखने वाली सरोगेट मदर को पैसा और देखभाल दोनों मिलती थी,अब कानूनन ऐसा संभव नहीं है। व्यावसायिक सरोगसी अब अपराध हैं जिसके दंड स्वरुप दस साल की सजा और दस लाख रुपयों का जुर्माना हो सकता है। इससे पहले भारत 'सरोगेसी हब' के बतौर दुनिया में उभरने लगा था। दुनिया भर के जोड़े फिर चाहे वे समलैंगिक हो या सामान्य, पति -पत्नी जो माता-पिता नहीं बन पा रहे थे, भारत का रुख कर रहे थे। यहां  तक की अकेली ,तलाकशुदा और विधवा महिलाएं भी संतान की चाहत में सरोगेसी को अपना रही थीं। गरीब सरोगेट महिलाओं को पैसे मिल रहे थे और वे इस काम से अपने बच्चों और परिवार का जीवन चला रहीं थीं। सरोगेट मदर्स और बच्चा चाहने वालों के बीच की कड़ी बने दलालों की भी बड़ी लॉबी सक्रिय हो चली थी। 


  व्यावसायिक सरोगसी पूरी तरह एक बड़े बाजार में तब्दील होने लगी थी। लगभग एक से तीन लाख रूपए तक महिला को इस काम के लिए मिल जाते थे।  अक्सर बिचौलिए या फिर रिश्तेदार उसे सरोगेसी का प्रलोभन देते थे। कुछ मामलों में महिला दबाव का शिकार भी होती थी। फिर ऐसा क्या था जो उस पर रोक लगाने की नौबत आई ? क्या यह मनुष्य की निजता और उसकी स्वतंत्रता को कम कर के नहीं आंक रहा था ?क्या हरेक को यह हक नहीं कि वह अपना बच्चा पाल सके ? कानून को उसकी इस चाहत में मददगार होना चाहिए या उसके खिलाफ होना चाहिए ?दरअसल भारत में सरोगेसी की बुनियाद उस दिन से ही  पड़ जाती है जब 1986  में पहले आईवीएफ बच्ची ने जन्म लिया था। यह उन करोड़ों जोड़ों के लिए उम्मीद की रौशनी बनकर आई थी जो बच्चा पैदा करने में अक्षम थे। भारत में कई मशहूर हस्तियों ने भी इसे अपनाया। खासकर बॉलीवुड में तो कई सिंगल पैरेंट यानी एकल अभिभावकों ने इस तकनीक को अपनाया। एक समय तो  सरोगसी का ताँता लग गया था। यूं सरोगेसी की अवधारणा से जुड़ी एक छोटी-सी कथा महाभारत में भी है।   

कितना विचित्र है अपनी कोख को यूं किराए पर देना और फिर  कितना मुश्किल एक बच्चे को नौ महीने तक गर्भ में रखना और उसके पैदा होते ही उससे नाता तोड़ कर अपने जीवन में सामान्य ढंग से लौट जाना। बेशक इस कानून के दुष्परिणाम सामने आ रहे थे लेकिन यह मनुष्य के परिवार बनाने की ख्वाहिश ,उसकी आज़ादी को नई उड़ान भी दे रहा था। किन्हीं दो  के बीच की आपसी डील और सामंजस्य के साथ चिकित्सा की आधुनिक तकनीक उन्हें भी अपन बच्चा या 'बायोलॉजिकल चाइल्ड '  पालने का सुख दे रही थी जो कुदरती ढंग से अपने खुद के बच्चे 'बायोलॉजिकल चाइल्ड ' पैदा नहीं कर पा रहे थे। सरोगसी ने  उन्हें अपने पार्टनर के ओवम या स्पर्म से आई संतान का सुख दिया था । साधारण शब्दों में सरोगसी आईवीएफ के जरिये ओवम और  स्पर्म का शरीर से बाहर फर्टिलाइसेशन है जिसे एक स्वस्थ गर्भाशय में स्थापित कर दिया जाता है। यह स्वस्थ गर्भाशय उस सरोगेट मदर का होता है जो एक करार के तहत बच्चे को जन्म देती है। यह व्यवस्था पूरी तरह व्यावसायिक हो चली थी जिस पर  सरोगेसी रेगुलेशन एक्ट 2021 में संशोधित कर रोक लगा दी गई। देश में अगस्त 2021से  व्यावसायिक सरोगसी पूरी तरह प्रतिबंधित है। विदेशियों के लिए इस पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध है। देश में जोड़े चाहें तो आपसी समझ से अपने रिश्तेदार के साथ कोई डील कर सकते हैं जिसमें पैसों और देखभाल से जुड़ा कोई समझौता नहीं हो सकता। 

यह सच है कि ऐसी परिस्थितियां सामने आई थीं जो इस कानून में बदलाव की पैरवी कर रही थी। फिर भी कानून को और सशक्त कर महिला की निजी इच्छा और आज़ादी  को जगह दी जानी चाहिए थी। कुछ कारण जो सामने आ रहे थे। 

शोषण -गुजरात के नड़ियाद और आणंद में ऐसा देखने में आया था कि कमज़ोर आर्थिक वर्ग से जुडी महिलाएं अपनी सेहत को दांव पर रख कर व्यावसायिक सरोगसी को अंजाम दे रहीं थीं। कई बार ऐसी  प्रेगनेन्सी में उनकी जान को भी खतरा होता था। 

प्रजनन का व्यावसायिकरण -आलोचकों का कहना था कि इससे मानव जन्म की व्यवस्था बाजार में बदल जाएगी और बच्चे के जन्म का यह तरीका गरिमा और नैतिकता की अवहेलना होगा। सवाल यही है कि जितने  भी 'बायोलॉजिकल चाइल्ड ' हैं क्या वे आदर्श परिस्थितियों में जन्म ले रहे हैं ,क्या उनमें जीवन में कोई जटिलता नहीं है ?

अपने पेशे का उल्लंघन - कुछ मामले में ऐसे लोग भी इस काम को कर रहे थे जो विशेषज्ञता नहीं रखते थे। सरोगेट मां और बच्चा चाहने वाला जोड़ा दोनों ही इस तकलीफ और आर्थिक शोषण का शिकार होते थे। सवाल फिर वही है कि क्या इसे नियमित कर सुधारा नहीं जा सकता। बॉलीवुड की कई हस्तियां जो इस तकनीक से बच्चे हासिल कर अपनी खुशियों का इज़हार जब तब करती आईं हैं वे ऐसा चाहने वालों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि अब हम क्यों नहीं इनकी तरह मॉम या डेड बन सकते ?

बाल कल्याण- यह सबसे महत्पूर्ण बिंदु कहा जा सकता है कि उसकी परवरिश में इस तकनीक का कोई असर नहीं होना चाहिए। इस बच्चे को भी एक सामान्य बच्चे की तरह जीने का ही हक़ है। जापानी बेबी मांजी  बनाम भारत सरकार से जुड़े मामले ने इस तरफ भी ध्यान आकर्षित किया था। 

व्यावहारिक दिक्कत को समझने के लिए जापानी बेबी मांजी  बनाम भारत सरकार से जुड़े मामले को जानना जरूरी है। साल 2007 के नवंबर में एक जापानी जोड़ा डॉ युकी यमादा और डॉ इकुफुमी यमादा सरोगेसी के जरिए बच्चे की चाहत लिए गुजरात के आणंद ज़िले में आया। यहां  का एक सेंटर पूरी दुनिया में  सरोगेसी के लिए जाना जाने लगा था। पिता यमादा के स्पर्म से एक अनाम महिला के अंडाशय से इनविट्रो फर्टिलेसशन कराया गया फिर इस भ्रूण को एक सरोगेट मदर के गर्भ में स्थापित कर दिया गया। इस बीच जून 2008 में इस जोड़े के बीच अनबन हुई और तलाक हो गया। डॉ युकी जिनका आने वाले बच्चे से कोई 'बायोलॉजिकल' और कानूनी संबंध नहीं था, उन्होंने इसे अपनाने से इंकार कर दिया। यह बहुत अजीब हालात थे कि बच्चे मांजी के पैदा होने से पहले ही उसके माता -पिता में गहरी अनबन हो गई थी। जुलाई 2008 में बेबी मांजी का जन्म हुआ लेकिन तब तक पिता यमादा का भारत में रहने का वीसा समाप्त हो चुका था इसलिए उन्हें वापस भेज दिया गया। बेबी के पालन पोषण और उस पर अपने दावे के लिए उसकी दादी भारत आईं। इस बीच एक गैर सरकारी संस्था ने भारत में सरोगेसी की इस विचित्र स्थिति और गैर कानूनी ढंग से फलते -फूलते उद्योग पर सवाल खड़े करते हुए जयपुर उच्च न्यायालय में एक जनहित  याचिका दायर की। बेबी मांजी को न्याय दिलाने के लिए मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा।  कहा जा सकता है कि इसी याचिका ने सरोगेसी पर  एक नए  कानून की बुनियाद रखी। इससे पहले यह उद्योग बिना किसी कानून के अपनी चाल से चल रहा था।  सरोगेसी पर आया यह पहला फैसला था जिसने यह भी साफ किया था कि इससे जुड़े कॉन्ट्रैक्ट कानूनन और स्पष्ट होने चाहिए। 2008 में यह फैसला सुनाया गया था जिसमें बेबी मांजी को उनके पिता और दादी के सुपुर्द कर दिया गया क्योंकि मां का कोई दावा नहीं था,वह पहले से ही अनाम या गोपनीय थी। 

यहां गौर करने वाली बात यह है कि सरोगसी ने कई मशहूर हस्तियों  को संतान की ख़ुशी दी है। शाहरुख खान और गौरी खान के घर तीसरी संतान अबराम का जन्म सरोगसी से ही हुआ है। अबराम अब दस साल के हैं।  यह उनका सरोगेट बेबी है यानी जैविक रूप से वे दोनों ही बच्चे के माता-पिता हैं, लेकिन उसे जन्म देने वाली यानी नौ माह कोख में रखने वाली सरोगेट मां  शाहरुख खान की पत्नी गौरी की भाभी नमिता छिब्बर थीं। बच्चे का जन्म  समय से दो माह पहले ही हो गया और उसे मुंबई के प्रमुख अस्पताल की इंटेसिव केअर युनिट में रखना पड़ा। पूरी देखरेख डॉ. इंदिरा हिंदुजा की रही, जिन्होंने 1986 में  देश के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म करवाया था। शाहरुख-गौरी के दो बच्चे पहले ही थे । तब बेटा आर्यन पंद्रह साल का है और बेटी सुहाना तेरह साल की। शाहरुख पर यह इलजाम भी लगा था कि उन्होंने अपने तीसरे बेटे का लिंग परीक्षण पहले ही करा लिया था। यानी उन्हें लिंग पता था जबकि भारत में ऐसा करना गैरकानूनी है। यहां सरोगेट मां उनके परिवार की ही सदस्य थी इसलिए कहा जा सकता है कि अब भारतीय कानून भी यहां ऐसी ही व्यवस्था की अनुमति देता है। 

यूं करण जौहर ,एकता कपूर,तुषार कपूर, सिंगल पैरेंट हैं जो सरोगसी से जन्में  बच्चे के मॉम या डेड बने हैं। नए कानून में सिंगल या तलाकशुदा पैरेंट को कोई जगह नहीं है। ऐसे में या तो ओवम की व्यवस्था की गई है या फिर स्पर्म की। फिल्म विकी डोनर में एक बेहतरीन स्पर्म की तलाश को मज़ेदार तरीके से दिखाया गया है जो इस ओर भी संकेत करता है कि अगर चयन की यह सुविधा मिल गई तो फिर हर कोई ऐसे स्पर्म की तलाश में होगा जो एक आदर्श बच्चा पैदा कर सके। मनुष्य की यह  चाहत क्या उसे एक रोबोटिक इंसान में बदलने की ओर बढ़ता हुआ कदम है ? बेशक हर मां जो सरोगसी से बच्चा चाहेगी वह यह भी चाहेगी कि वह बेस्ट स्पर्म या शुक्राणु से पैदा हो। वैसे सरोगेट मां की तकलीफ को मेघना गुलज़ार की फिल्म फिलहाल (2002) से भी समझा जा सकता है। कहानी में सरोगेट माँ बच्चा चाहने वाली माँ की दोस्त है और बच्चे से जुड़ जाती है। वह  फिर उस जोड़े को बच्चा नहीं लौटाना चाहती। वर्तमान कानून भले ही किसी रिश्तेदार के साथ सरोगसी की अनुमति देता है लेकिन वह महिला के रिप्रोडक्टिव राइट्स को और स्पष्ट नहीं कर पाता और ना ही उसकी अपनी इच्छा को कोई महत्व देता है। जोड़े के पास भी बहुत ही सीमित विकल्प रह जाते हैं। ऐसा क्यों नहीं होगा एक पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में कि सरोगसी के लिए परिवार की महिला पर ही दबाव बनाया जाएगा  ? आधुनिक दुनिया में बहुत से लोग अपनी पसंद का परिवार बनाना चाहते हैं। यह कानून केवल विवाहित,लिंग और सेक्सुअल रुझान की पुरानी सोच को ही आगे बढ़ाता है जबकि भारतीय किशोरों और युवाओं में मॉडर्न फेमिली नामक अमेरिकी शो बेहद लोकप्रिय है।  

भारतीय ग्रंथों में भी सरोगेसी से जुड़ी कथा मिलती है। कृष्ण के भाई बलराम का जन्म सरोगेसी की ही कहानी कहता है। हम सब जानते हैं कंस के बढ़ते अत्याचारों के बाद आकाशवाणी हुई थी कि कंस की बहन देवकी के गर्भ से जो भी शिशु जन्म लेगा वह  कंस का काल बनेगा। इस डर से  कंस ने देवकी और उनके पति वासुदेव दोनों को कारावास में डाल दिया था । कहते हैं सातवें पुत्र के रूप में बलराम का जन्म हुआ था जिसे कंस से बचाने के लिए स्वयं विष्णु ने उन्हें रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया था और रोहिणी की पुत्री योगमाया को देवकी के गर्भ में। रोहिणी ने गोकुल में बलराम को जन्म दिया और देवकी के गर्भ से योगमाया का जन्म हुआ जो पैदा होते ही अंतर्ध्यान हो गई। योगमाया तो अंतर्ध्यान हो गई लेकिन कृष्ण के भाई बलराम जीवित रहे। वह मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूपों में सशक्त  थे। माता यशोदा ने इन्हें पालकर संतान सुख पाया था। ज़ाहिर है हर उस जोड़े को यह ख़ुशी हासिल करने का हक़ है जो प्राकृतिक तौर पर माता पिता नहीं बन पाते हैं। गोद लेना भी एक अच्छा कदम साबित हो सकता है। देश में लाखों बच्चे हैं जिन्हें मूल माता -पिता की गोद नसीब नहीं होती है ,वे अनाथालय में पलते हैं। ऐसे में कोई जोड़ा उन्हें गोद लेता है तो समाज में वह आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ता है। मां और पिता न बन पाने की पीड़ा के बीच दुनिया में आ चुके बच्चे को माता-पिता मिले क्या यह ज़रूरी नहीं है ? व्यवस्था को इसे आगे बढ़ाना चाहिए। एडॉप्शन के नियम आसान करने चाहिए। 




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