सबसे ज़रूरी होता है सायरन की तरह गूंज जाना
"यदि मैं स्त्री के रूप में पैदा होता तो पुरुषों द्वारा थोपे गए हर अन्याय का जमकर विरोध करता तथा उनके खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद करता" -महात्मा गांधी
रेवा का घर जाने का बिलकुल मन नहीं था। ऑफिस से तेज बाइक चलाकर ईपी में फिल्म देखना चाहती थी। जयपुर के कैफे 'क्यूरियस लाइफ' में कैपेचिनो का स्वाद लेते हुए स्टेचू सर्कल की रोशनी में नहाते हुए जनपथ से गुजरते हुए बेवजह जेएलएन मार्ग का चक्कर काटना चाहती थी, फिर उसने अपना हुलिया चैक किया। स्लीवलैस टॉप और शॉर्ट्स ! नहीं...आज नहीं। उसने सिर को झटका और वक्त से घर पहुंच गई। कई बार रेवा का मन करता है कि वह इस शहर को जिए। कभी नुक्कड़वाली पान की दुकान पर ही खड़ी हो जाए, तो कभी थड़ी या गुमटी के बाहर पड़े उन मुड्ढों पर चाय की चुस्कियां ले और कभी रैन बसेरे के बाहर खड़ी हो वहां की रात पर भरपूर निगाह डाले। भीषण सर्दी से बचने के लिए बेघर लोगों के लिए जयपुर नगर निगम जगह-जगह रैन बसेरों का निर्माण करता है। एक बार पहुंच भी गई एक रैन बसेरे के बाहर लेकिन एक पुलिस वाला जो उसे कुछ देर से देख रहा था, बोला- मैडम घर जाओ...यहां अच्छे लोग नहीं आते। कुछ हो गया तो हम परेशानी में पड़ जाएंगे। रेवा चुपचाप वहां से चल पड़ी। सर्दी की रात, साढ़े दस बजे उसने सुलभ शौचालय का इस्तेमाल करना चाहा, तो वह भी बंद मिला, अलबत्ता पुरुष सुविधाएं यथावत थीं।क्या एक महिला का उसके शहर की संपत्ति पर भी आधा -अधूरा हक है? दृष्टि आईएएस ब्लॉग्स में प्रकाशित मेरे लेख का पहला पैरा... लिंक कमेंट बॉक्स में.
में कौन भारतीय अपने मानस से दिसंबर 2012 की वह रात भूल सकता है जब पैरामेडिकल की छात्रा निर्भया से सामूहिक बलात्कार और फिर जानलेवा हमला हुआ था। वह इतनी घायल थी कि बच नहीं सकी। इस घटना ने समूची भारतीय चेतना को हिला कर रख दिया था और साथ ही चेतावनी भी दे दी थी कि एक लड़की का सड़क पर चलना और उस सड़क पर चलने वाली बस दोनों ही उसके लिए किस कदर असुरक्षित है।
यह अंदाज़ा लगा पाना कोई मुश्किल नहीं कि महिला मुक्त होकर भी किस कदर कैद है। यह असुरक्षा घर,कार्यस्थल,सड़क ,मेट्रो, ट्रैन आदि जगहों पर सतत उसके वजूद पर हावी रहती है। वह खुद ही खुद पर कितनी बंदिशे लादती चली जाती है फिर भी कोई न कोई अनहोनी हो ही जाती है। तथ्य और आंकड़े चीख-चीख कर यही कहानी कहते हैं। औरतों के खिलाफ हिंसा, बलात्कार की ख़बरों से अखबार भरे पड़े होते हैं। न्यूज़ रूम के भीतर संपादक अक्सर कहते पाए जाते हैं कि इन ख़बरों का तो एक स्थाई स्तंभ बना दिया जाना चाहिए। एक दिन में कई अपराध महिलाओं के साथ होते हैं।एक स्त्री शहर की सार्वजनिक संपत्तियों पर तो आधा अधूरा हक़ रखती ही है, एक नागरिक के बतौर भी वह आधी नागरिक ही मालूम होती है। कितना अजीब है कि इंसानी आबादी का आधा हिस्सा अपने जैसे इंसानों से ही डरता रहे, जैसे वे कोई हिंसक जानवर हों। किसी भी महिला के मन में हमेशा एक ही खयाल हावी रहता है कि कहीं कोई दुर्घटना ना घट जाए। कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा कितना संवेदनशील है इसका अंदाज़ा 'मी टू ' अभियान से लगाया जा सकता है। अभियान क्या शुरू हुआ महिलाओं अपने में अपने खिलाफ छेड़छाड़ और दुष्कर्मों को लिखने की सुनामी आ गई। पूरी दुनिया में अनगिनत घटनाओं से सोशल मीडिया के पन्ने रंग गए । कलाकार ,राजनेता ,व्यवसाई, पत्रकार कोई अछूता नहीं था। दफ्तरों में काम करने वाली शायद ही कोई महिला अपने दिल पर हाथ रखकर यह कह सकती है कि उसके साथ कोई अपराध नहीं हुआ। लगातार घूरने , फ़ोन पर अश्लील मैसेज भेजने , वॉशरूम की तरफ जाते हुए मौका देखकर छेड़खानी करने और अपराधी का अश्लील किस्से सुनाना जैसे मामलों को तो स्त्रियां अपराध के दायरे में रखतीं ही नहीं। ऐसे मामलों को दफ़्तरों में कोई भी ज़िम्मेदार न सुनने में दिलचस्पी रखता है और ना थानों में किसी कार्रवाई की कोई उसे कोई उम्मीद होती है जबकि यह सब भारतीय कानून के मुताबिक अपराध की श्रेणी में आते हैं। सच तो यही की अगर ये मामले दर्ज़ होने लगें तो रोजनामचों की बाढ़ आ जाएगी।
निर्भया के बाद 2013 में ही भारतीय दंड विधान की धारा 375 और 376 में बड़े संशोधन हुए। धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा बड़ी की गई। स्त्री की अस्मिता के साथ जबरदस्ती के कई तरीके बलात्कार के दायरे में आते हैं। धारा 376 के मुताबिक पहले सात साल
की सज़ा तय थी लेकिन निर्भया के बाद इसे दस साल और पीड़िता की मृत्यु या कोमा में चले जाने पर 20 साल की सज़ा का प्रावधान किया गया।
धारा 166 (A) जोड़ी गई जिसके तहत पुलिस अधिकारी जिसने जांच में लापरवाही बरती हो उसे भी 6 से 24 महीने की जेल हो सकती है।
धारा 166(B) के तहत यदि हॉस्पिटल पीड़िता का इलाज नहीं करता है और अपराध को छिपाता है तो ज़िम्मेदार को एक साल की सज़ा या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
धारा 354 (A ) के मुताबिक किसी भी तरह का अवांछित स्पर्श और अश्लील बातचीत,अभद्र इशारे,यौन दुराचार को भी एक से तीन साल की सजा के दायरे में लाया गया है।
धारा 354 (C) के मुताबिक किसी महिला की निजता के क्षणों में उसकी सहमति के बिना तस्वीर,विडिओ लेने पर भी एक साल की सजा का प्रावधान किया गया है।
धारा 354 (C) के हिसाब से किसी भी तरह की ताक -झाँक ,पीछा करने के लिए भी अधिकतम एक साल की जेल है।
धारा 354 (D) में घूरने के लिए अधिकतम तीन साल की सजा सुनाई जा सकती है। यही हरकत दोबारा होने पर पांच साल की जेल हो सकती है।
निर्भया के बाद किशोर अधिनियम में भी महत्वपूर्ण बदलाव किये गए थे। जघन्य अपराधों में 16 से 18 साल का अपराधी एक किशोर अपचारी की तरह नहीं बल्कि वयस्क अपराधी की तरह देखा जाएगा, हालांकि उसे उम्र कैद या फांसी नहीं दी जा सकेगी । निर्भया मामले में छह दोषियों में से एक किशोर था लेकिन इस जघन्य अपराध में उसकी भूमिका बड़ी थी लेकिन वह सुधार गृह में रहते हुए 2015 में छूट गया था। कानून में यह बदलाव निर्भया मामले के बाद जस्टिस जे एस वर्मा समिति की सिफारिशों के बाद किया गया था। समिति के कुछ सुझाव तब भी नहीं माने गए थे मसलन वैवाहिक बलात्कार में भी फांसी की सजा और सहमति की उम्र को घटाकर सोलह कर दिया जाना। भारतीय न्याय संहिता 2023 में यौन अपराधों से निपटने के लिए महिला और बच्चों के प्रति अपराध का नया अध्याय जोड़ा गया है। अब सहमति की उम्र 18 है। सामूहिक बलात्कार के सभी मामलों में 20 साल या उम्र कैद का प्रवधान है। यौन हिंसा के मामले में पीड़िता का बयान महिला न्यायिक मजिस्ट्रेट रिकॉर्ड करेंगी। बयान रिकॉर्ड करते समय माता -पिता या अभिभावक भी मौजूद रह सकेंगे। यौन उत्पीड़ित को यह सुविधा भी है कि वह महिला पुलिस अधिकारी की मौजूदगी में अपने घर पर बयान दर्ज करवा सके। पीड़िता की मेडिकल रिपोर्ट 7 दिनों के भीतर जांच अधिकारी को फॉरवर्ड करनी होगी।
इससे पहले जिस एक घटना ने पूरे देश का ध्यान खींचा था वह राजस्थान की भंवरी देवी से जुड़ी है। 1992 में जयपुर से 60 किमी दूर अपने गाँव भटेरी में भंवरी देवी ने ऊंची जाति में हो रहे एक बाल विवाह को रुकवाया था। वह सरकार की नुमाइंदी थीं और यही उनका फर्ज था। स्वयं उनका भी बाल विवाह हुआ है। बाल विवाह रुकवाना कथित ऊंची जाति वालों को बरदाश्त नहीं हुआ। भंवरी देवी को बिरादरी से निष्कासित कर दिया गया और पांच लोगों ने उसके पति के सामने उसका बलात्कार किया। 22 सितंबर 1992 के से भंवरी देवी 'मन्ने न्याय चाहिए' कि पुकार लगा रहीं हैं और तब से ही उनकी पुकार पर प्रहार का सिलसिला जारी है घटना के 52 घंटे बाद तक उमका मेडिकल मुआयना नहीं किया गया था। वे अपने पेटीकोट को ले लेकर भटकती रहीं। फिर कोर्ट ने तो यहाँ तक कह दिया कोई ऊंची जातवाला नीची जात से बलात्कार कैसे कर सकता है। उन पर दबाव बनाया गया कि मुकदमा वापस ले लें लेकिन उनका कहना था कि अगर ये मेरा मान लौटा सकते हैं तो मैं भी मुकदमा वापस ले लूंगी। भंवरी देवी को आज तक न्याय ना मिला हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उनके लिए लड़ी विशाखा संस्था को इस बात का श्रेय जाता है कि महिलाओं के लिए कार्य स्थल पर लिंग भेद न हो। कानून बनने तक कार्य स्थल पर यौन शोषण को रोकने के लिए हर दफ्तर में ऐसी समिति का गठन अनिवार्य किया गया था जिसकी अध्यक्ष संस्था की ही वरिष्ठ महिला कर्मचारी को नियुक्त किया जाए। ऐसे कई सुझावों को विशाखा गाइडलाइन की तरह आज भी अमल में लाया जाता है।
भारतीय समाज और सरकार लड़कियों का वह भी देश का मान बढ़ने वाली लड़कियों के सम्मान की कितनी रक्षा करता है इसे समझने के लिए ज़्यादा पीछे जाने की ज़रुरत नहीं है। 28 मई 2023 को संसद के भीतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजतंत्र के प्रतीक राजदंड को पुनर्स्थापित कर रहे थे तो बाहर दिल्ली पुलिस डंडे का ज़ोर दिखा रही थी। उन फ़रियादी पहलवान लड़कियों को डंडे मारे जा रहे थे जिन्होंने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत की थी। सात महिला पहलवान जिनमें एक नाबालिग भी है उनकी सामूहिक शिकायत पर जनवरी महीने से कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। 28 मई को जब ये पहलवान पिट रही थीं आरोपी पूरी ठसक के साथ नई संसद में मौजूद था। कभी ये पहलवान भी प्रधानमंत्री के निकट थीं जब वे दुनिया के सबसे बड़ी खेल प्रतिस्पर्धा ओलिम्पिक्स से पदक जीत कर लाई थीं। तब पूरा देश उन पर गर्व कर रहा था। सात माह बाद इस कुश्ती संघ को भंग किया गया।
दरअसल इस भेदभाव को समझना बहुत ज़रूरी है कि एक वर्ग किस कदर दूसरे की ताकत से भयभीत है और कानून कैसे बराबरी का और भयमुक्त वातावरण सुनिश्चित करने में विफल रहता है । कामकाज की दुनिया में सब बराबर हों और वह जगह पूरी तरह हिंसा और शोषण से मुक्त हो ऐसी ही सोच इस कानून की बुनियाद में भी रही थी। पूरी दुनिया में इसकी ज़रुरत को समझा गया और इसीलिए देशों के संविधानों और मानवाधिकार करारों में इस बात को केंद्र में रखा गया। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की 1944 फिलाडेल्फिया घोषणा में कहा गया था कि सभी इंसान चाहे वह किसी भी नस्ल ,जाति ,समुदाय या लिंग के हों उन्हें सम्मान के साथ आज़ादी ,आर्थिक सुरक्षा और अवसरों की समान उपलब्धता वाले माहौल में अपनी भौतिक और मानसिक तरक्की करने का अधिकार है। इस मूल भावना के साथ तकरीबन पंद्रह साल बाद यानी 1958 में सदस्य देशों ने इसे लागू किया जिसका बुनियादी मकसद मनुष्यों को कार्यस्थल पर भेदभाव से मुक्त रखना है। भारत समेत 172 देश इस समझौते से जुड़े हैं। समानता के इस समझौते के बावजूद कार्य स्थल पर महिला और पुरुष सम्मानजनक काम से वंचित रह जाते हैं। इस राह में लैंगिक आधार पर होने वाला यौन उत्पीड़न सबसे बड़ी बाधा है। सवाल उठता है कि आखिर यौन उत्पीड़न क्या है ? दरअसल यह ऐसा व्यवहार जिसमें किसी व्यक्ति के अनपेक्षित यौन व्यवहार के कारण किसी व्यक्ति के कामकाज में अनुचित दखल होता है और काम का माहौल शत्रुतापूर्ण ,अपमानजनक और भयभीत करने वाला बन जाता है। इससे उलट आपसी सहमति से किया जाने वाला बर्ताव ,प्रेम ,या प्रेम सम्बन्ध यौन उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आता है। ऐसा पुरुष के साथ भी हो सकता है लेकिन देखने में आया है कि जिसके पास ताकत है वही इस अपराध को अंजाम देता है।
भारतीय समाज में अनजाने ही यह हक़ पुरुष को हासिल रहता है। इस हक़ का इस्तेमाल वह इस हद तक करता है कि यदि कोई लड़की उसे शादी के लिए इंकार कर देती है तो वह उस पर तेज़ाब फैंक देता है। भारत में ऐसी हज़ारों लड़किया हैं जो अपने झुलसे चेहरे के साथ जीने के लिए मजबूर हैं। लक्ष्मी अग्रवाल ऐसी एसिड अटैक सर्वाइवर हैं जो अब पीड़ित की नहीं बल्कि सशक्तिकरण की मिसाल बन चुकी हैं। साल 2005 में उस पर तेज़ाब से हमला हुआ था क्योंकि उसने कथित प्रेम प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था। हमलावर और उसके भाई ने उस पर नई दिल्ली में सड़क पर एसिड फेंका ,उस समय लक्ष्मी की उम्र केवल पंद्रह साल थी।उसके चेहरे के कई ऑपरेशन हुए ,बमुश्किल ही आंख को बचाया जा सका। लक्ष्मी ने लम्बी लड़ाई लड़ी। उसके साहस का नतीजा यह हुआ कि साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एसिड की बिक्री पर रोक लगा दी। लक्ष्मी के साहस पर दीपिका पादुकोण अभिनीत फिल्म छपाक भी बनी है और साल 2014 में इंटरनेशनल वुमन ऑफ़ करेज अवॉर्ड भी मिशेल ओबामा ने उन्हें प्रदान किया। यह बेशक एक लड़की के साहस की कहानी हैं लेकिन कई एसिड पीड़िताएं आज भी ज़िंदगी और मौत से जूझ रही हैं और सामने नहीं आ पातीं। वे निर्पराध होकर भी चेहरा छुपाने के लिए मजबूर हैं और उनके अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं। ये वे उद्द्ण्ड हैं जो लड़की से ना नहीं सुन पाते और फिर उन पर हमलावर हो जाते हैं। उन्हें प्रेमी कहना प्रेम की अवमानना है। 2013 में ही भारतीय कानून की धारा में 326 A और 326 B जोड़ी गई जिसके अनुसार एसिड हमलावर को न्यूनतम 10 साल की सजा या आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया।
किसी भी भारतीय महिला के डर का कोई अंत नहीं है। पूरी ज़िन्दगी या कहें कि ज़िन्दगी के पचास साल वह इसी खौफ में जीती है कि कहीं उसके साथ बलात्कार ना हो जाए। क्या यह खौफ बेवजह है ? 2002 के गुजरात दंगों की बिलकिस बानो और हाल ही में 2023 में मणिपुर की जातीय हिंसा में महिलाओं का वायरल हुआ विडिओ मनुष्य के अब तक बर्बर होने की हकीकत कहता है। किसी समुदाय को नीचा दिखाने के लिए स्त्री से बलात्कार ऐसा तो शायद पाषाण युग में भी दुर्लभ रहा होगा। देश में यह आज भी होता है। कानून तब ही काम करेगा जब सोच बदलेगी। बदला लेने के लिए स्त्री से बलात्कार, बेहद खोखले समाज का प्रतिबिंब है। सुरक्षित तो खेतों में नित्य क्रिया के लिए जाती किशोरियां, स्कूल में पढ़ने के लिए जाती बच्चियां भी नहीं । निर्भया के बाद भी कुछ नहीं बदला है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की आईआईटी की छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के जिन तीन आरोपियों को हाल ही में गिरफ़्तार किया है उनके मोबाइल को जब दो महीने तक जांचा गया तो पता चला कि वे आदतन लड़कियों से छेड़-छाड़ करते आए हैं। उस दिन भी उन्होंने आईआईटी की छात्रा के बलात्कार की तस्वीरें खींचीं और विडिओ बनाया था। सुकून की बात है कि छात्रों ने मिलकर यह लड़ाई लड़ी और आरोपियों के सियासी रसूख के बावजूद गिरफ्तार हुए। महिलाओं को किसी भी परिस्थिति में मुर्दा शांति से भर नहीं जाना है। लड़ना है हर पल। पंजाबी भाषा के कवि अवतार सिंह ‘पाश’ ने लिखा है–
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलकर काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक तो वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है...
सार्थक
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक सार्थक एवं चिंतनपरक
जवाब देंहटाएंप्रेरक लेख....।
मुर्दा शान्ति से ही भरकर जीती हैं यहाँ औरतें..
बहुत ही मार्मिक लेख हेतु बधाई आपको ।
thanks a lot
हटाएंसुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंdhanywad
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