छीजता कुछ नहीं



मुकम्मल नज़र आती देह में
रूह का छीजना मुसलसल 
अधूरे चाँद का 
पूरेपन की और बढ़ना मुसलसल 

छीजता कुछ नहीं 
न ही बढ़ता है कुछ 

महसूसने और देखने के 
इस हुनर में ही एक दिन 
ज़िन्दगी हो जाती है मुकम्मलI 

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