झुमरी तलैया से चीत्कार


बरसों तक झारखण्ड के इस क़स्बे के साथ मीठी फर्माइशों का नाम जुड़ा रहा है. आकाशवाणी के विविध भारती चैनल  पर कई मधुर गीत केवल यहीं के बाशिंदों के आग्रह पर बजते रहे हैं. आज एक बार फिर यह नाम सुर्ख़ियों में है लेकिन इस बार सुर-ताल के लिए नहीं बल्कि एक लड़की की चीत्कार के लिए. बाईस साल की निरुपमा पत्रकार थी और प्रियभान्शु रंजन नाम के हमपेशा लड़के को हमसफ़र बनाना चाहती थी. लड़की ब्राह्मण और लड़का कायस्थ. दोनों दिल्ली में थे .
छोटे शहरों से झोला उठाकर चलनेवाले लड़के-लड़कों में माता-पिता तमाम ख्वाब भर देते हैं लेकिन उसका अहम् हिस्सा अपने कब्ज़े में रखना चाहते हैं . खूब पढो, अच्छा जॉब चुनों, ज्यादा कमाओ लेकिन जीवनसाथी? वह मत चुनों. बेटी को खुला आसमान देनेवाले पढ़े-लिखे अभिभावक भी यहाँ पहुंचकर उनके पंख कतरना चाहते हैं. निरुपमा के साथ भी यही हुआ. पुलिस ने माँ को गिरफ्तार करते हुए आरोप लगाया की उसने ख़ुदकुशी नहीं की उसकी गला दबाकर हत्या की गयी है वह दस हफ्ते के गर्भ से थी.
दरअसल, हर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार के भीतर एक खांप जिंदा है.हम उस खांप से बहार आना नहीं चाहते. शादी के ज़रिये हम यह साबित करते हैं की हमारे बच्चों पर हमारी कितनी नकेल है.यह कसी हुई रहे तो ही बेहतर. अपने बच्चों को जी-जान से पालनेवाले आखिर इतने कटु और सख्त क्यों हो जाते हैं? क्यों उन्हें  कथित सम्मान अपनी संतान से प्यारा हो जाता है? क्यों वे राहत की सांस  केवल तब लेते हैं जब उनकी शिक्षित बेटी उनकी कही जगह पर ब्याह कर विदा हो जाती है?

शायद वे समाज से डरते हैं . उन्हें लगता है की वे बिरादरी का सामना नहीं कर पाएंगे . वही बिरादरी जो उनके छोटे-बड़े समारोहों में महज़ औपचारिकता पूरी करने के लिए इकट्ठी हो जाती है, उन्हें अपनी लगती है. शादी हो यां मौत बड़ी भीड़ सभी को प्रभावित करती है . ख़ुशी और गम में चंद करीबियों का साथ हमें सुकून नहीं देता . हम सब ऐसी शादियों के साक्षी हैं जहाँ दूल्हा-दुल्हन बिना जाने आनेवालों के लिए नकली मुस्कान बिखेरते ही चले जाते हैं . सच तो यह है कि हम एक नकली समाज हैं जो भ्रम में जीता है . और माता-पिता इसी समाज का हिस्सा. ऐसे मामलों में वे खुद को ठगा हुआ ही नहीं मृत मान लेते हैं या मार डालते हैं. पीढ़ियों से यह भारतीय परिवारों की कश्मकश है और अब इस संघर्ष के और बढ़ने की आशंका है .

निरुपमा के मामले में दुःख इसलिए भी होता है क्योंकि यह एक पढ़ा-लिखा परिवार है. पिता बैंक में बड़ा भाई इनकम टैक्स में छोटा भाई रिसर्च स्कोलर . बात एक निरपराध निरुपमा की नहीं बल्कि उन सब लड़कियों की है जिन्हें हम आज़ादी तो दे रहे हैं लेकिन नाप-तौल के . ऐसे समाज के लिए क्या यही बेहतर नहीं की बचपन में ही लड़की का ब्याह कर दे   . नकेल कसी रहेगी . न वह दुनिया देखेगी न उसके ख्वाब जागेंगे . हमने देखा-देखी आधुनिक नीयम कायदे तो बना दिए हैं लेकिन हैं लकीर के फ़कीर. शिक्षित  लड़की जब अपनी राह चुनती  है तो बर्दाश्त नहीं कर पाते. जाति का दंभ पशुता पर उतर आता है . आज इसी दंभ के खिलाफ निरुपमा के मित्र एक हो गए हैं. अँधेरे में केवल यही एक उम्मीद बाकी दिखाई देती है


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टिप्पणियाँ

  1. आपकी विवेचना सही है ,लेकिन जिन्दगी के कुछ उसूल भी होते हैं जो माँ ,बाप,बेटा,बेटी सब पर लागू होता है /

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  2. इसी विषय पर आधारित आज की चिठ्ठा चर्चा में जो कहा था वही यहाँ भी लिख रहा हूँ..

    इक्कतीस मार्च को निरुपमा ने अपनी फेसबुक प्रोफाईल में लिखा था कि
    "She tells enough white lies to ice a wedding cake."
    शायद वो अपनी बात ही कर रही हो.. निरुपमा का जाना सो कॉल्ड समाज को कठघरे में खड़ा करता है.. कुछ दिन पूर्व आयी फिल्म लव सेक्स और धोखा में ओनर किलिंग की कहानी दर्शायी है.. गाँवों में इस तरह की घटनाये होती रहती थी पर अब तो पढ़े लिखे शहरी लोग भी ऐसी हिंसक वारदाते अंजाम देने से नहीं कतराते.. जैसा कहा जा रहा है कि निरुपमा को उसके ही परिवार वालो ने मार डाला.. जबकि उनकी ऑरकुट प्रोफाईल में पांच चीजों के बारे लिखने को कहा जाता है जिनके बिना वे जी नहीं सकती तो निरुपमा अपने परिवार के बारे में लिखती है..

    five things I cannot live without: Not five Things rather five people(my family)......I m one of them.

    इंसान कब अपनी इंसानियत उतार फेंकता है पता ही नहीं चलता.. ऐसे में ब्लॉग सच में की ये पंक्ति बहुत सार्थक है.. आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।

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  3. मैने उसके पिता का पत्र पढ़ा था। कुश जी ने जो लिखा वह भी साथ मे रखूं तो फिर लगता है कि वह सबसे प्यार करती थी, सब पर विश्वास…वह सब एक साथ चाहती थी लेकिन धर्म की रुढ़ियों से बंधे पिता और परिवारजन के लिये प्यार और स्नेह उन नियमों से बंधा था…बेटी से कहीं आगे…

    भले ग़लत लगे पर मुसीबत के वक़्त एक परिवार अपनी बेटी से ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है? अगर यह अमानवीयता नहीं तो और क्या है?

    इसे जिस तरह से ब्लाग और अन्य जगहों पर जस्टिफ़ाई किया जा रहा है…ऐसा लगता है कि समाज का तालिबानीकरण हो गया है…खाप पंचायतें पूरे देश में फैल गयी हैं…और संविधान किसी कोने में दुबका आधुनिकता के कांधे पर सिर रख बस आंसू बहा रहा है…शायद सामने पड़ी संवेदना की लाश पर!

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  4. पोस्ट पर कुछ कहने से अधिक जरूरी है कि आपकी इस प्रभावी भाषा शैली और लेखन कौशल की अद्भुतता के लिए बधाई दी जाये. मैंने इस पोस्ट को देखा फिर इससे प्रेरित या स्वप्रेरित कुछ और पोस्ट्स का सिलसिला भी देखा. घटना को सामान्य कहना अनुचित होगा मगर जिस तरह से ऐसे कृत्यों सिलसिला थम नहीं रहा हमने इन्हें बिना अफ़सोस अपनी ज़िन्दगी की सामान्य खबरों का हिस्सा बना लिया है. खैर आपकी लेखनी के समक्ष सर झुका जाता है, अभिवादन.

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  5. क्या कहा जाए?

    सर को केवल शर्म से झुकाया जा सकता है।

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  6. भारतीय परिवारों की तथाकथित आधुनिकता व उसकी पुरातनपंथी सोच का नतीजा कुछ इसी तरह का निकलता है। हम पढ़े-लिखे, विद्वान एवं ज्ञानवान तो हुए है लेकिन मानसिक रूप से आदिमानव ही है, हमारी सोच का दायरा बहुत ही सीमित है। जिसका परिणाम निरूपमा जैसी प्रतिभासम्पन्न युवती के असमय देहावसान के रूप में सामने आता है। आपके विचार, ‘‘सच तो यह है कि हम एक नकली समाज हैं। जो भ्रम में जीता है।’’ मेरी बात को पुरजोर तरीके से पुष्ट करते हैं।

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