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ऑपरेशन सिंदूर : पक्ष और विपक्ष के बीच बुलंद हुई निर्दलीय आवाज़

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  ऑपरेशन सिंदूर पर लोकसभा में चली सोलह घंटे की बहस जब मंगलवार को पूरी हुई तो साफ़ हो गया कि देश के पास ऐसे धुरंदर नेता हैं जो सरकार की आंख में आंख डाल कर बात करते हैं और सटीक सवाल करते हैं। उधर  सरकार भी भले ही भाग नहीं रही थी लेकिन जवाब देने में उसे भी बड़ी तैयारी और मेहनत और लग रही थी। देश के हर हिस्से से शामिल सांसदों की यह ज़रूरी और अच्छी बहस थी।  फिर भी विपक्ष को शायद इस बात का मलाल हो सकता है कि कुछ जवाब उसे नहीं मिले जैसे पहलगाम में पर्यटकों की सुरक्षा में चूक क्यों हुई ;ख़ुफ़िया तंत्र विफल क्यों रहा ;अमेरिका ने बीच ऑपरेशन में भांजी क्यों मारी ; हमारे कितने लड़ाकू विमान नष्ट हुए और चीन-पाकिस्तान एक मंच पर साथ आने की समझ सरकार को क्यों नहीं हुई। बेशक सरकार ने अपना पक्ष रखने की पुरज़ोर कोशिश की लेकिन बीच -बीच में जब भी देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू का ज़िक्र आ जाता था तो लगता कि सरकार जैसे अब तक किसी नेहरूफोबिया से ग्रस्त है और हर मौके पर उन्हें  किसी ढाल की तरह ले ही आती है। बेशक बंटवारा हमारी दुखती रग है लेकिन हम कब तक उस घाव को हरा रखेंगे, सिर्फ ...

लड़कियों के लिए सामाजिक व्यवस्था अब भी क्रूर और जजमेंटल

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चंडीगढ़ की वामिका हो या जयपुर की स्वप्निल समाज और व्यवस्था अब भी इनके लिए बेहद क्रूर हैं । समाज इन्हें अपनी निगाहों  से तौलता -परखता रहता है और क़ानून व्यवस्था वह मंच नहीं दे पाती जहां वे निडर होकर अपनी पीड़ा कह सकें। कई बार दोनों युति बनाकर पीड़िताओं के हक़ में होने से इंकार करती हैं। नतीजतन एक के बाद एक कई लड़कियां और महिलाएं जुर्म का शिकार होती चली जाती हैं। आधी आबादी की तरक़्क़ी के रास्ते रुक जाते हैं। परिवार उन्हें कैद रखने में ही अपना हित समझने लगता हैं। उनकी पूरी कोशिश केवल इतनी होती है कि लड़की मायके में सुरक्षित रह कर सीधे ससुराल सुरक्षित पहुंच जाए। आंख फिर केवल तब खुलती है जब ससुराल से बेटी की असमय संदिग्ध मौत की ख़बर मिलती है।अब भी कई परिवार इसी सोच पर यकीन रखते हैं कि हमने डोली सजा दी , अब अर्थी भी वहीं से सज-धज कर  निकले। यह सोच घरेलू हिंसा को बढ़ावा देती है। कुछ माता-पिता विवाहित बेटी को घर में रखना भी चाहते हैं तो समाज दबाव बनाता है। अफ़सोस कि  इस इतवार को जयपुर की स्वप्निल संदिग्ध हालात में मौत की नींद सो गई और चंडीगढ़ की वामिका के आरोपी को बीच सुनवाई में सरकार ने ज़िम्...

बिहार: 'सर' पर क्यों है संदेह

जैसे–जैसे कृष्ण पक्ष का पखवाड़ा अमावस की काली रात की ओर बढ़ता जाता है ठीक वैसे ही बिहार चुनाव में सर(स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न )के काम में भी हर रोज़ कोई न कोई खामी जुड़ जाती है। पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने तो कह भी दिया कि यह प्रक्रिया पूरी तरह से अनुचित, आक्रामक और जल्दबाज़ी में की गई ऐसी क़वायद है जिसका इस समय किया जाना कतई ज़रूरी नहीं था। सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में भी जारी है क्योंकि पहचान के जो ज़रूरी दस्तावेज़ हैं जैसे  वोटर आईडी ,राशन कार्ड, यहां तक की आधार कार्ड भी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किए गए हैं। अब जो नई मतदाता सूची बनेगी उसके लिए  2003 के बाद शामिल मतदाताओं की गहन जांच होगी। यही रिविज़न है।  प्रशासन पर 30 सितंबर तक इसे पूरा करने का ऐसा दबाव है कि कहीं कहीं  बीएलओ ख़ुद  ही मतदाता के फॉर्म भर रहे हैं और फ़र्ज़ी हस्ताक्षर भी कर रहे हैं। अब सवाल यही है कि क्या चुनाव आयोग नया गृह मंत्रालय है जो नागरिकता के प्रमाण-पत्र  भी बांटेगा। संवैधानिक स्तर पर ही चुनाव आयोग की भूमिका जोड़ने की रही है ,हटाने की नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि आयोग इन पहचान पत्रों...

बिहार :आख़िर क्यों है संदेह 'सर' पर

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और क्यों बिहार में चुनाव आयोग को अपने ही पहचान पत्र वोटर आईडी पर शक़ है  बीते कुछ समय से देश के नागरिकों पर ही यह साबित करने का दारोमदार डाल दिया गया है कि वे इस देश के नागरिक हैं। ऐसा लगभग धमकाने की मुद्रा में है कि जो ऐसा नहीं कर पाए तो व्यवस्था आपको बाहर कर देगी। कागज़ दिखाने की ऐसी ज़ोर-ज़बरदस्ती पहले कभी नहीं देखी गई। अब नया यह कि जो काग़ज़ हैं भी तो ये पहचान के लिए काफ़ी नहीं हैं। वोटर आईडी, राशन कार्ड, यहां तक कि आधार कार्ड भी कोई मायने नहीं रखता। अब नई मतदाता सूची बनेगी  और उसमें आप हो तब ही वोट डाल सकोगे। जो आवाज़ ऊंची की तो फिर घुसपैठिये का तमगा पक्का है।बिहार में बीते तीन सप्ताह से ऐसी ही क़वायद चल रही है और 'सर' जी इस बड़े अभियान में लगे हुए हैं। अब सवाल यही है कि क्या चुनाव आयोग नया गृह मंत्रालय है जो नागरिकता के प्रमाणपत्र  भी बांटेगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि आयोग इन पहचान पत्रों को शामिल करे, अब यह आयोग की ज़िम्मेदारी है कि वह नागरिकों को विश्वास में ले कि यह उन्हें शामिल करने के लिए हो रहा है दूर करने के लिए नहीं। विपक्ष तो कुछ दिनों से लगातार चीख़ ही रहा है...

क्यों लगा रायटर्स पर प्रतिबंध और फिर उठ गया

एक राजा था। बड़े ही गाजे-बाजे के साथ उसका राज्याभिषेक हुआ था। वह दिखता तो बहुत आत्मविश्वासी था लेकिन उसे हमेशा यह डर बना रहता था कि कहीं उसका राज-पाट छिन ना जाए। राजसी परिवार के वृक्ष में से कुछ के ख़लबली का अंदेशा भी उसे बना रहता। वह आए दिन इसी  चिंता में लगा रहता और अपने दरबारियों को ऐसा करने की खुली छूट देता जिससे जनता में यह संदेश जाए कि केवल वही इस पद के सर्वथा योग्य है और शेष सब नाकारे और निकम्मे हैं। राजा के इस डर से दरबारी और उनके जानने वाले तो वाक़िफ़ थे ही लेकिन अब तो दुश्मनों को भी ख़बर हो गई थी। उन्होंने भी भांप लिया था कि राजा डरता है और इसका फ़ायदा उन्हें मिल सकता है। राजा के गद्दी बचाने के तमाम हथकंडों को उसकी रियाया भी समझ रही थी लेकिन उसे अपने राज्य की फ़िक्र थी। दुश्मनों को भला प्रजा की क्या परवाह होती वे  बस केवल मौके की तलाश में रहते। राजा की सत्ता लिप्सा और डर उन्हें बैठे-बिठाए यह सब उपलब्ध करा रहा था। दरबारी और चाटुकार अपना रोब -दाब बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक चले जाते थे बिना इस बात की परवाह किये कि इस राजा के पुरखों ने राजदंड के साथ कुछ नियम कायदे...

आतंरिक्ष से भव्य हिंदुस्तान धरातल पर कैसा है ?

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'ऊपर से भारत कैसा दिखाई देता है आपको?' यही सवाल है जो भारत की दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दोनों ने अंतरिक्ष में जाने वाले यात्रियों से पूछा था और दोनों के ही जवाब दिल छू लेने वाले रहे। चालीस साल पहले जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने भारत के पहले स्क्वॉड्रन लीडर राकेश शर्मा से पूछा था कि, 'ऊपर से भारत कैसा दिखाई देता है आपको,' उन्होंने बिना किसी हिचक के अल्लामा इक़बाल की कविता 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' की पंक्ति के साथ जवाब दिया था। तब पूरा देश जैसे गदगद हो गया था और जो उस समय बच्चे थे उनके लिए तो स्क्वॉड्रन लीडर राकेश शर्मा का अंतरिक्ष के शून्य गुरुत्वाकर्षण के बीच वह मुस्कुराता चेहरा कभी न भूलने वाला क्षण हो गया था। वे ही गर्व के क्षण ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला ने भी दिए, जब उन्होंने कहा कि 'ऊपर से भारत बहुत भव्य दिखाई देता है।' शुभांशु (1985 )उस वक्त पैदा भी नहीं हुए थे जब राकेश शर्मा ने पहली बार अंतरिक्ष में भारत का झंडा लहराया था। बेशक ऊपर से भारतीय भूभाग बड़ा ही दिव्य और भव्य दिखाई देता है लेकिन क्या...

देश के बाहर देश के लिए उठे दो बड़े क़द

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हम अक्सर नेताओं के भाषण सुनते हैं। लगभग सबका यही दावा होता है कि हम जो कह रहे हैं वही जनता के हित में है। ये अवसर मिलते ही हर मुद्दे पर बोलते हैं फिर चाहे उस मुद्दे पर इनका ज्ञान लगभग शून्य ही क्यों ना हो। ऐसे में देखा गया है कि विशेषज्ञ और बड़े पदों पर बैठे बुद्धिमान और ज़िम्मेदार दिमाग ज़्यादातर चुप्पी साध लेते हैं क्योंकि वे जब भी बोलते हैं सत्ता के पिट्ठू या तो समझ नहीं पाते या फिर उन्हें इस तरह घेरते हैं जैसे उन्होंने कोई देश विरोधी बात कह दी हो, गुनाह कर दिया हो। वही घिसे-पिटे चेहरे टीवी चैनलों पर आकर उन्हें दोषी ठहराने लगते हैं। कई गंभीर मुद्दे यहां 'ऐलिस इन वंडरलैंड' की तरह खो जाते हैं। सियासी दलों को भले ही तुरंत लाभ मिल जाता है लेकिन देशहित में कोई सार्थक विचार कभी आगे नहीं बढ़ पाते। शायद यही वजह है कि विशेषज्ञ देश के भीतर कुछ बोलने में हिचकते हैं लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बोलने का अवसर मिलता है तो वे बेहद सधे हुए ढंग से अपनी बात रखते हैं क्योंकि  बड़े मंचों पर आप केवल 'पॉलिटिकली मोटिवेटेड' नहीं हो सकते,वहां आप अपने विषय के विशेषज्ञ हैं । इस सप्ताह देश के दो...