गुज़ारा भत्ता : हक़ है ख़ैरात नहीं
भारतीय अपने व्यवहार में काफी धार्मिक हैं, ठीक वैसे ही जैसे यूरोपियन लोकतांत्रिक -सर हरकोर्ट बटल
तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुज़ारा भत्ता मिले या नहीं यह सवाल जैसे 39 साल बाद परिक्रमा कर के फिर से सर्वोच्च न्यायालय के सामने आ गया और वहां उसने फिर वही फैसला दिया है जो तब दिया था। जैसे किसी बिंदु जोड़ने वाली पहेली का हल यकायक सामने आ गया हो। साल 1985 में इंदौर की शाहबानो बेग़म ने अपने पति अहमद ख़ान से गुज़ारा भत्ता मांगा था क्योंकि उन्होंने अपनी पकी उम्र में पत्नी को तलाक़ दे दिया था और बदले में उन्हें कोई रक़म अदा नहीं की थी । उनके पांच बच्चे थे। शाहबानो अदालत गईं। भारतीय दंड विधान की धारा 125 के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला उनके हक़ में दिया लेकिन तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने देश में जारी विरोध और मोर्चों को देखते हुए हुए संविधान में संशोधन इस तरह से कर दिया कि यह क़ानून मुस्लिम लॉ बोर्ड के अनुकूल हो जाए। एक नया मुस्लिम महिला विधेयक (1986) अमल में आया। इसके हिसाब से आपसी सहमती रिश्तेदारों या फिर वक़्फ़ बोर्ड के ज़रिये गुज़ारा भत्ता देने का निर्णय हो सकता था। कोर्ट का यह महत्वपूर्ण फैसला पलट दिया गया था। फिर यह भी हुआ कि पहली बार मुस्लिम महिला को इद्दत की अवधि में भत्ता देने का प्रावधान देश के कानून में किया गया। यदि महिला गर्भवती है तो इद्दत के बाद भी बच्चे की परवरिश और तलाकशुदा पत्नी के लिए गुज़ारा भत्ता देने का विकल्प शामिल किया गया। चूंकि आपसी सहमति इसका आधार था, नतीजतन शाहबानो बेग़म बनाम अहमद ख़ान (1986 ) मामले में शाहबानो जीतकर भी हार गईं लेकिन अब मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना सरकार के मामले से जुड़ी महिला के साथ ऐसा नहीं हो पाएगा। जानना दिलचस्प होगा कि उस दौरान गठित पांच सदस्यीय पीठ में वर्तमान सीजेआई डी वाय चंद्रचूड़ के पिता वाय वी चंद्रचूड़ थे। तब उन्होंने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के फ़ैसले को कायम रखते हुए कहा था कि धारा 125के प्रावधान सब के लिए समान है चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान ,क्रिस्चियन हो या पारसी ,बुतपरस्त हो या कुछ और।
क्या है इद्दत
इद्दत की अवधि 90 दिन की होती है। इसमें तलाक़ या पति की मृत्यु के बाद तीन महीने का इंतज़ार अनिवार्य होता है। इसका मकसद यह सुनिश्चित करना होता है कि महिला गर्भवती नहीं है और यदि है तो उसका पिता कौन है। महिला गर्भवती नहीं है तो यह अवधि तीन महीने में समाप्त हो जाती है और यदि है तो यह बच्चे के जन्म तक रहती है। यदि महिला के पति का निधन हो गया है तो इद्दत की अवधि चार महीने दस दिन और यदि वह गर्भवती है तो बच्चे के जन्म तक होती है। इस हालत को मुस्लिम महिला अधिनियम (1986) वैधता प्रदान करता है। पहले केवल तीन बार तलाक कहकर महिला को तलाक़ दे दिया जाता था, नए कानून के तहत यह भी संभव नहीं है और हाल ही के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक अब यह भी संभव नहीं हो सकेगा कि तलाक़ के बाद गुज़ारा भत्ता ही न दिया जाए। बेशक इस दौर में ऐसा होना स्त्री को एक सामान या फिर सिर्फ कोख के रूप में देखने के आलावा कुछ नहीं है। उसकी अपनी राय मर्ज़ी कोई मायने नहीं रखती।
दी थी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना सरकार केस में दोनों पक्षों ने 15 जुलाई 2012 को शादी की थी । रिश्ते खराब होने के कारण पत्नी ने अप्रैल 2016 को अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया। इसके बाद पत्नी ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी 1860) की धारा 498 ए और 406 (दहेज और धोखाधड़ी )के तहत अपनी शिकायत दर्ज की। जवाब में पति ने सितंबर 2017 को 'तीन तलाक' दे दिया। इस एकतरफा तलाक़ को मंजूर कर तलाक का प्रमाण पत्र भी जारी कर दिया गया। इसके बाद दावा किया गया कि पति ने इद्दत अवधि के लिए भरण-पोषण के लिए पंद्रह हजार रुपये भेजने का प्रयास किया, जिसे पत्नी ने अस्वीकार कर दिया। इसके बाद पत्नी ने पारिवारिक न्यायालय के समक्ष सीआरपीसी 1973 की धारा 125(1) के तहत अंतरिम भरण-पोषण के लिए याचिका दायर की, जिसे अनुमति दी गई। इस आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए पति मोहम्मद अब्दुल समद ने तेलंगाना उच्च न्यायालय का रुख किया। उसका तर्क था कि मुस्लिम महिला अधिनियम के तहत गुज़ारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है। तेलंगाना उच्च न्यायालय ने 13 दिसम्बर 2023 को दिए निर्णय में पति के दावे को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद पति ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। तेलंगाना उच्च न्यायालय ने गुज़ारा भत्ता ज़रूर घटाकर 10 हज़ार रुपए कर दिया था।
यह फैसले का दिन था
दस जुलाई वाकई फैसले का दिन था। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की दो जजों की पीठ ने फैसला दिया कि पत्नी गुज़ारा भत्ता पाने की हकदार है। इसका आधार मुस्लिम महिला अधिनियम ना होकर सीआरपीसी की धारा 125 थी जिसके मुताबिक हर तलाक़शुदा पत्नी को गुज़ारा भत्ता पाने का हक़ है। यह संविधान की भावना के अनुरूप हर भारतीय महिला को सामाजिक तौर पर सशक्त बनाने का कानून है और यह मुस्लिम महिला अधिनियम की वजह से कतई कमज़ोर नहीं पड़ जाता। शायद यही बहस का कारण भी है। कहा जा सकता है कि यह लेखिका नासिरा शर्मा की उस बात की तस्दीक है कि भारतीय परिवेश में रहने वाली औरतें अपनी सोच, संवेदना और व्यवहार में लगभग एक जैसी हैं। सवाल यही है कि एक देश की महिलाओं के लिए दो अलग-अलग कानून क्यों ? नासिरा शर्मा एक लेख में लिखती हैं -स्वतंत्र भारत में मुस्लिम स्त्री की दशा और दिशा का विश्लेषण इतना आसान नहीं है। भारतीय परिवेश में रहने वाली औरतें अपनी सोच, संवेदना और व्यवहार में लगभग एक जैसी हैं, चाहे परिवेश और भौगोलिक स्थिति में जितना भी अंतर हो। धर्म की विभिन्नता के कारण उनके कर्मकांड और रीति-रिवाज़ भले अलग हों ,मगर जब हम उन सारे रिवाज़ों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं,तो पता चलता है कि त्योहारों और मनौतियों में गजब की समानता है । उनका सर्वव्यापी वात्सल्य, परिवार से जुड़ाव ,असीम धैर्य ,दुःख को सहना, दूसरों के लिए कुर्बान हो जाना। लगभग सभी में यह गुण कूट-कूटकर भरा होता है इसलिए जब हम मुसलमान औरत की बात करते हैं, तो उसकी आत्मा की नहीं बल्कि उसके ऊपरी आवरण की बात करते हैं जिससे वह ढकी -छुपी रहती है और हम उसी सजावट को उसकी पहचान मान उसे देश की अन्य औरतों से अलग खड़ा कर देते हैं और उसके दुःख -सुख का बयान इस तरह करते हैं जैसे वह कोई अजूबा हो। इस फैसले ने तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकारों को सरंक्षित किया है।
इस तरह हुई मामले में जिरह
सुप्रीम कोर्ट में अपील करते समय अपीलकर्ता का मुख्य तर्क कि सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के प्रावधान मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अधिनियमन के कारण प्रभावित नहीं होते हैं। दूसरे पक्ष का तर्क था कि भले ही एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान के तहत न्यायालय में जाना चाहती हो, लेकिन यह स्वीकार्य नहीं होगा। इसकी सही प्रक्रिया 1986 अधिनियम की धारा 5 के तहत आवेदन दायर करना होगी। अपीलकर्ता के वरिष्ठ अधिवक्ता का तर्क था कि चूंकि 1986 का अधिनियम सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के विपरीत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिक लाभकारी और प्रभावी उपाय प्रदान करता है, इसलिए सहारा केवल 1986 अधिनियम के तहत ही है। इसके अलावा 1986 का अधिनियम एक विशेष कानून होने के कारण सीआरपीसी 1973 के प्रावधानों पर हावी है। अब इस फ़ैसले ने यह भी साफ कर दिया है कि मुस्लिम महिलाएं भी धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ते का दावा कर सकती हैं। मुस्लिम महिला अधिनियम इस राह में बड़ी बाधा बन रहा था। यह एक दुविधा की स्थिति थी जिसके कारण कई उच्च न्यायालयों में अलग -अलग और अंतर्विरोधी निर्णय हुए। हालांकि अभी पति अब्दुल समद के पास बड़ी पीठ में जाने का फैसला बचा हुआ है लेकिन वहां बदलाव की गुंजाईश ना के बराबर है।
बराबरी और जीवन की गरिमा का उल्लंघन
कोर्ट ने साफ़ किया है कि किसी भी अन्य महिला की तरह मुस्लिम महिला भी भत्ते या अन्य सभी अधिकार रखती है अन्यथा यह संविधान में दिए अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन होगा। यह भी देखा गया कि इन अधिकारों का कोई ताल्लुक पर्सनल लॉ से नहीं है और न ही कोई टकराव है। वे अपनी जगह पर अलग-अलग बने हुए हैं । यह सभी महिलाओं से जुड़ा मामला है और सामाजिक कल्याण की ज़िम्मेदारी राज्य की है। हो सकता है कि भारतीय बड़े हों लेकिन कई मामलों में धर्म के नाम पर जारी कुरीतियों ने जब कानून का जामा पहना तो बड़े सामाजिक बदलाव हुए हैं। मुस्लिम महिलाएं भी वही संवैधानिक अधिकार रखती हैं जो भारत की शेष महिलाएं। यूं भी शादी और परिवार से जुड़े सुधारवादी कानूनों के आभाव में उन्होंने लंबा संघर्ष किया है। यहां किसी को असमंजस में नहीं रहना चाहिए की यह भारत की विविधता को कम करने का प्रयास है। यह फर्क करना भी आना चाहिए कि उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक ढर्रे को चलाए रखने में कोई तरक़्क़ी नहीं है और कुछ भी पर्सनल नहीं है। 2017 के तीन तलाक़ की समाप्ति के बाद यह भी एक बड़ा कदम है। जस्टिस नागरत्ना ने अपनी टिप्पणी में ठीक ही तो कहा है कि गुज़ारे भत्ते को खैरात या दान की तरह देखा जाता है जबकि यह हर महिला का बुनियादी हक़ है हर तरह की धार्मिक सीमा रेखा से अलग सबके लिए समान।
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