नरेंद्र मोदी तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री का पद संभाल चुके हैं। मोदी 3.0 में विदेश नीति किस दिशा में रहने वाली है, उसे समझने के लिए हाल के दो बड़े घटनाक्रमों पर निगाह डालना ज़रूरी है। जिन दो देशों से इनका ताल्लुक है, वे दुनिया के दो बड़े मुल्क हैं और बड़ी ताकत रखते हैं। अमेरिका और रूस से जुड़े ये घटनाक्रम विदेश नीति पर रौशनी डालने में महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। हाल ही में रूस की यात्रा प्रधानमंत्री ने की और अमेरिका से वहां की प्रभावी प्रतिनिधि नैंसी पेलोसी भारत आईं थीं। दरअसल वे भारत में तिब्बत के आध्यात्मिक नेता और धर्मगुरु दलाई लामा से मिलने आईं थीं। नैंसी पेलोसी का संदेश साफ़ था कि चीन तुम हद में रहो और जिस तिब्बत पर तुम कब्ज़ा किये बैठे हो, हम उनके प्रमुख नेता और गुरु से मिल रहे हैं।रूस में भारत के प्रधानमंत्री ने वहां का सर्वोच्च नागरिक सम्मान हासिल किया और ऊर्जा हासिल करने को लेकर भी बड़े समझौते किये हैं। रूस चीन का बड़ा मित्र है और दोनों ही एक दूसरे का साथ हर हाल में देने की कसमें खा चुके हैं। चीन ताईवान में दखल देता है और तिब्बत पर अनाधिकृत कब्ज़ा रखता है। वह भारत के अरुणाचल प्रदेश को लेकर भी गलत टिप्पणी कर चुका है। रूस की रणनीति यूक्रेन पर हमला कर उसे खुद में मिलाने की है। यही चीन भी करता है। ऐसे में भारत कहां फिट होता है ? सवाल यही है कि जब चीन भारत की सीमा पर तनाव बनाए रखता है और अनाप-शनाप टिप्पणियां करता रहा है, ऐसे में वक्त आने पर रूस किसका साथ देगा ?
चीन भारत को धमका चुका है कि भारतीय प्रधानमंत्री को अरुणाचल नहीं जाना चाहिए। जून 2020 में हमारे 20 से ज़्यादा सैनिक चीन-भारत सीमा पर शहीद हो चुके हैं। यह झड़प थी या सोचा-समझा हमला सरकार की ओर से स्पष्ट नहीं है क्योंकि मोदी 2. 0 में प्रधानमंत्री ने कहा था कि न कोई घुसा है और ना कोई घुसाया है। तब भारत ने तमाम चीनी सामान के आयात और सैकड़ों चीनी एप्स पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। टिकटॉक जैसे कई एप्स तो बंद हैं लेकिन सामान अब भी बदस्तूर आ रहा है। चार महीने पहले प्रधानमंत्री ने एक अमेरिकी पत्रिका न्यूज़वीक को दिए इंटरव्यू में कहा था कि चीन- भारत सीमा पर लम्बे समय से तनाव है और द्विपक्षीय सम्बन्ध सुधारने के लिए इस पर तुरंत बात की जानी चाहिए। ऐसा नहीं लगता कि चीन ने इस बात पर कोई कान धरे हों। क्या रूस भारत के लिए चीन के कान पकड़ सकता है?
संभव है कि भारत को ऐसा कोई आश्वासन रूस से मिला हो, इसीलिए रूस की यात्रा भी हुई हो। कड़वी सच्चाई यह है कि रूस हमारे देश के वहां बसे नागरिकों का इस्तेमाल यूक्रैन युद्ध में कर रहा है। प्रधानमंत्री जब रूस में थे तब वहां की सेना ने कीव में बच्चों के अस्पताल पर हमला किया। यह अमानवीय हरकत थी जिसके बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने ऑस्ट्रिया में दुख भी व्यक्त किया। रूस के बाद उनका अगला दौरा इसी देश का था। बहरहाल रूस दौरे से युद्ध में झोंके जा रहे, भारतीयों को उम्मीद बंध गई थी कि शीघ्र ही उनकी वतन वापसी होगी लेकिन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के आश्वासन के बावजूद ऐसा नहीं हो सका। यात्रा के तुरंत बाद ही भारतियों ने अपना दुःख ज़ाहिर किया कि उन्हें वापस मोर्चे पर भेजा जा रहा है। यह बेहद अफ़सोसनाक है कि आपकी मर्ज़ी के खिलाफ कोई दूसरा देश के नागरिकों को युद्ध में झोंक रहा हो। अफ़सोसनाक तो यह भी है कि हैदराबाद के एक युवक की मौत यूक्रेन-रूस लड़ाई में हुई। परिवार का कहना है कि उनके बेटे को युद्ध में धकेला गया था।
चीन को लेकर अमेरिकी प्रतिनिधि ने धर्मशाला में जो कहा वह चीन को परेशान करने वाला बयान था। उन्होंने कहा कि दलाई लामा जो ज्ञान ,आत्मा की पवित्रता और प्रेम के प्रतीक हैं वे और उनकी विरासत तो हमेशा हमेशा के लिए ज़िंदा रहेगी लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग आपके बाद आपको इतिहास बिलकुल भी याद नहीं रखेगा। यह भारत की धरती से चीन को दी गई धमकी थी जो अमेरिकी रवैये को साफ़ करती है और बताती है कि इस बार वह किस कदर सख्त है। इस साल के शुरुआत में फरवरी महीने में अमेरिका एक बिल पास कर चुका है, जिसमें कहा गया कि चीन को तिब्बती अधिकारियों से बात करनी चाहिए। इससे पहले नैंसी पेलोसी ने ताईवान जाकर भी चीन की नाक में दम किया था। जून महीने के अंत में हुए इस अमेरिकी दौरे में शामिल रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों के प्रतिनिधि शामिल थे। वे तिब्बत के सबसे बड़े प्रतिनिधि से बड़े ही आत्मीय माहौल में भारत आकर मुलाकात करते हैं और ऐसा दलाई लामा के हिंदुस्तान आगमन के सत्तर साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ। यूं भी यूरोपीय संघ समेत दुनिया के कई लोकतांत्रिक देश अब तिब्बत की चर्चा दुनिया के मंचों से करने लगे हैं। फिर भारत को क्यों पीछे रहना चाहिए ? वह भारत जिसने सत्तर बरसों से तिब्बतियों को शरण दी ,तिब्बत आंदोलन भी यहीं खड़ा हुआ और दलाई लामा जिन्हें तिब्बती ईश्वर के तुल्य मानते हैं,वे भी यहीं निवास करते हैं। धर्मशाला में ही तिब्बत का प्रधानमंत्री भी चुना जाता है। बेशक दुनिया में यह बहुत ही अनूठा और अनुकरणीय उदाहरण है लेकिन फिर भी भारत कभी चीन पर दबाव नहीं बना पाता। क्या तिब्बत की बनिस्पत चीन को तवज्जो देना भूल थी ?
भारत के बड़े नेता कई बार चीन को पाकिस्तान से भी बड़ा दुशमन बता चुके हैं लेकिन वे कभी भी तिब्बत के ज़रिये चीन को कड़ा संदेश नहीं दे पाए। तिब्बती अपने देश से खदेड़ दिए जाने के बात भारत में ही शरण लिए हुए हैं। 1950 में लगभग 35 हज़ार चीनी फौजियों ने तिब्बत पर हमला कर कब्ज़ा कर लिया था। बारह लाख लोगों का बलात्कार,उत्पीड़न और हत्या हुई। छह हज़ार से अधिक मठों को नष्ट कर दिया गया। इस कब्ज़े से अचानक तिब्बत की सीमा चीन की सीमा में बदल गई थी। यहीं से भारत के लिए मुश्किलों का दौर भी शुरू होता है जिसका घातक अंजाम 1962 की जंग में दिखता है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए 1959 में चौदहवें दलाई लामा तिब्बतियों साथ भारत आ जाते हैं। दलाई लामा उस समय 24 साल के थे। भारत ने जहां तिब्बतियों को शरण दी वहीं तिब्बतियों ने भी इतने बरसों में शांति और सद्भाव का परिचय दिया। सर्दी के मौसम में वे भारत के लगभग हर शहर में गर्म कपड़ों का व्यापार करते देखे जा सकते हैं। भारत सरकार उन्हें स्थान मुहैया कराती है। फिर भी भारत ने कभी चीन पर दबाव नहीं बनाया।
मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल की शपथ में तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया था लेकिन 2019 और 2024 में फिर ऐसा नहीं हुआ। चीन से बढ़ी निकटता के बाद तो दिल्ली में प्रस्तावित महा तिब्बत समागम को भी अनुमति नहीं मिली थी। यह बर्फ तब पिघलती दिखी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2021 में दलाई लामा को उनके जनमदिवस पर शुभकामना संदेश दिया। मोदी कार्यकाल के सातवें साल में ऐसा हो पाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2010 में दलाई लामा से मिले थे ,उसके बाद किसी पीम की कोई मुलाकात नहीं है। क्या यह सही समय नहीं होगा जब भारत को सम्मलेन और सद्भावना से आगे बढ़कर तिब्बत के मसले को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाकर चीन पर दबाव बनाना चाहिए। बेशक इस तीसरे कार्यकाल की यह बड़ी उपलब्धि साबित हो सकती है। अपनी मातृभूमि से बेदखल लाखों तिब्बती यहां बसते हैं। सुधन्वा शेट्टी यह कविता उनके दर्द को बयां करती है -
39 साल से निर्वसित /फिर भी कोई देश हमारे साथ नहीं /कमबख़्त एक भी नहीं /हम लोग यहां शरणार्थी हैं /एक लापता देश के लोग /जो किसी देश के नागरिक नहीं /दुनिया की करुणा के पात्र/ तमाम संस्कृतियों के आधिपत्य में गुमे हुए /लाख और कई हज़ार लोग/ मैं हर नाके और कार्यालय/ में एक भारतीय तिब्बती हूं / हर साल नवीनीकरण कराता /भारत में जन्मा एक विदेशी/ मैं तिब्बती चिंकी चेहरे-मोहरे के बावजूद /कहीं अधिक भारतीय/नेपाली ?थाई ?जापानी ?चीनी?नागा ?मणिपुरी?/बस 'तिब्बती'? यह सवाल कभी नहीं। मैं एक तिब्बती /जो तिब्बत से नहीं आया /कभी गया भी नहीं वहां /फिर भी वहीं मर सकने का /स्वप्न देखता हूं ।

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