लेफ्ट राइट लेफ्ट
बीते दिनों जिन देशों में भी चुनाव हुए ,वहां के मतदाताओं ने अलग ही संकेत दिए हैं। भारत को भी इसे अलग नहीं किया जा सकता। ईरान, इंग्लैंड और अब फ्रांस ने तो जैसे राइट की ओर मुड़ते-मुड़ते यकायक लेफ्ट टर्न ले लिया हो। इन तीनों ही देशों के चुनावी नतीजे चौंकाने वाले इसलिए कहे जाएंगे क्योंकि ईरान ने अपनी कट्टरपंथी सोच के बीच एक उदारवादी नेता को चुन लिया है ,इंग्लैंड ने कंजर्वेटिव्स को हराकर चार सौ पार (बिना किसी नारे के बावजूद )के साथ डेमोक्रेट्स को जिता दिया और हाल ही में फ्रांस ने तो मज़बूत नज़र आ रही धुर दक्षिण पंथी पार्टी नेशनल रैली को तीसरे नंबर पर पटक दिया है। तब क्या दुनिया की सोच फिर बदल रही है। वह ऊब गई है, नफरत की राजनीति से ,थोथे राष्ट्रवाद से, युद्ध में झोंक देने वाले नेताओं से। वह दुखी है दुनिया में जारी दो बड़े युद्धों से और उनका समर्थन करने वालों से और चाहती है कि उनके देश के नेता उदारवादी रवैये की तरफ़ बढ़ें ना कि रूस और इजराइल के नेताओं का समर्थन कर दुनिया को युद्ध के ख़ूनी दलदल में धकेल दें । तब क्या वाकई यह उम्मीद बांध लेने का समय है ?
ईरान हमारा सदियों पुराना मित्र रहा है। सांस्कृतिक आदान -प्रदान के आलावा ईरान से हमारे व्यापारिक रिश्तों की कहानी,ईसा से भी छह सौ साल पहले ले जाती है। भारतीय कला,साहित्य,खानपान और शिल्प पर भी जबरदस्त ईरानी प्रभाव रहा है। यह वह दौर था जब दुनिया किसी एक देश के प्रभाव तले नहीं थी और रिश्ते केवल तेल और ताकत के दम पर नहीं बनते थे। मुग़लकाल में तो प्रशासन की भाषा ही फ़ारसी रही थी। अंग्रेजों के दौर में ज़रूर यह रिश्ते उतने प्रभावी नहीं रहे क्योंकि उनकी दिलचस्पी अलग कारणों से ईरान पर हो गई थी। यह मज़बूत ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्तों का ही नतीजा था कि आज भी हम ईरान से सबसे ज़्यादा तेल आयात करते हैं और चाबहार बंदरगाह परियोजना के बाद तो भारत के लिए सीधे ईरान,अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों से व्यापार के रास्ते खुल जाएंगे। पाकिस्तान को किनारे कर इन देशों के लिए रास्ता बनाया गया है। पाकिस्तान ने चीन के साथ मिलकर ग्वादर बंदरगाह समुद्र के भीतर बनाया है। बेहद महात्वाकांक्षी इस योजना में भारत ने बड़ा निवेश किया है।बहरहाल, इसी ईरान में अब उदारवादी व्यक्ति का उदय हो गया है जो भारत के लिए बेहतर द्विपक्षीय रिश्तों की मज़बूत वजह बनेगा। बीते जून में राष्ट्रपति इब्राहिम सईदी की हेलीकॉप्टर क्रैश में मौत और लगभग दो साल पहले एक युवती की हिजाब न पहनने को लेकर पुलिस हिरासत में मौत ने पूरी दुनिया को सकते में ला दिया था। नए चुने गए नेता मसूद पेजेश्कियान (69 ) औरतों के हक़ में यकीन रखते हैं और अपने पूर्ववर्ती कट्टरपंथी नेताओं से अलग हैं। राष्ट्रपति पेजेश्कियान ने तत्कालीन ईरानी हुकूमत का विरोध किया था, जब सलमान रुश्दी की किताब द सैटनिक वर्सेज (शैतान की आयतें )के विरोध में लेखक के ख़िलाफ़ मौत का फ़तवा जारी कर दिया गया था।
ईरान जो कभी बेहद आधुनिक और तरक्की पसंद देश था, बीते कुछ दशकों से कट्टरपंथियों के साए में अपनी स्त्री आबादी को दोयम दर्जे की नागरिक बना चुका है। एक युवती महसा अमिनी को वहां की पुलिस ने हिजाब ठीक से ना पहनने पर गिरफ्तार कर लिया और फिर पुलिस हिरासत में ही उसकी मौत हो गई। उसके बाद से हज़ारों महिलाएं सड़कों पर आ गईं । हॉलीवुड से भी कई एक्टर्स ने अपने बालों के एक हिस्से को काटकर इस अंदोलन को अपना समर्थन दिया था। भारतीय अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा अपनी इंस्टाग्राम पोस्ट में ने लिखा था कि जो आवाज़ें सदियों की चुप्पी के बाद बोलती हैं उन्हें चुप नहीं कराया जा सकता वे अब ज्वालामुखी की तरह फटेंगी। प्रियंका ने लिखा था कि पितृसत्ता को यूं चुनौती देते हुए आपके साहस को सलाम है।इस दौर में यह वाक़ई दुःख और हैरानी की बात है कि एक स्त्री को अपने बाल खुले रखने के लिए इतना बड़ा दंड। ख़ुशी की बात है कि उसी ईरान ने अब अपने तंग दिमाग वाले सियासतदानों को जवाब दे दिया है। पेशे से हार्ट सर्जन डॉ मसूद पेजेश्कियान उदार विदेश नीति, सामाजिक मुद्दों और परमाणु समझौते के पक्षधर हैं। उन्होंने महिलाओं से जुड़े कानूनों को उदार बनाने ,इंटरनेट फ्री करने और दुनिया में शांति लाने के मुद्दे पर चुनाव लड़ा , जबकि पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम सईदी और ईरान के सुप्रीम लीडर के बेहद करीबी माने जाने वाले सईद जलीली दोनों ही कट्टरपंथ की सियासत के हिमायती रहे। जलीली से दस फीसदी से ज़्यादा वोट पेजेश्कियान को मिले । यूं पेजेश्कियान को पहले चरण के चुनाव में कोई बढ़त हासिल नहीं हुई थी ,मतदान भी 40 फीसदी से कम था। इसके बाद पेजेशकियान की शहरी मतदाताओं से अपील ने उन्हें घरों से बाहर निकाला और नतीजों में जबरदस्त बदलाव आया ।
बेशक नतीजे बेहद उत्साह जनक हैं उस इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान में जिसका इतिहास कट्टरपंथियों और क्रांतिकारियों के खूनी संघर्ष से रंगा हुआ है। यहाँ 1979 में क्रांति के बाद एक उदारवादी सरकार का गठन हुआ था लेकिन कट्टरपंथियों ने सेना के समर्थन से सरकार का तख्ता पलट दिया और इंकलाब ईरान के पहले प्रधानमंत्री शाहपोर बख्तियार को भागकर फ्रांस में शरण लेनी पड़ी। वे कानून के विद्वान थे और दूसरे विश्वयुद्ध में फ्रांस की ओर से लड़ चुके थे। वे अंत तक निर्वासित जीवन जीते रहे और उन पर दो बार जानलेवा हमले हुए। साल 1991 में वे चाकुओं से हमले के बाद पेरिस के करीब एक गांव में मृत पाए गए। आशय यही है कि अगर ईरान में उदारवादी कामयाब हुए हैं तो उसके पीछे लम्बे संघर्ष की दास्तान जुड़ी हुई है। कई अन्य बुद्धिजीवी ,साहित्यकार ,शिक्षाविद भी देश छोड़कर दूसरे मुल्कों में रिफ्यूजी बन कर रहे और कई ईरान की जेलों में बंद।साहित्यकार नासिरा शर्मा ने इस दौर का विस्तार से ब्योरा दिया है। उन्होंने लिखा है कि कैसे एक मित्र को जो क्रांति के समर्थन में था उसे सूली पर चढ़ा दिया गया। नासिरा शर्मा ने साल 83 में इन इंकलाबी नेताओं से फ्रांस लन्दन में इंटरव्यू किए थे। इनमें से कई अपने निर्वासित जीवन से तंग आ चुके थे और वतन को बहुत याद कर रहे होते थे। असल में क्रांति की कीमत इन्हीं लोगों ने चुकाई थी
अब भी यह कहना जल्दबाज़ी ही होगी कि नए राष्ट्रपति बड़े कानूनी परिवर्तन कर पाएंगे क्योंकि ईरान में सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर अयातुल्ला अली खोमेनी(85) हैं । इस्लामी गणराज्य ईरान में दोहरी शासन व्यवस्था है। इसमें धर्म और गणतंत्र दोनों शामिल हैं। ईरान के राष्ट्रपति परमाणु कार्यक्रम और अरब देशों के साथ संबंधों में कोई नीतिगत बदलाव नहीं कर सकते हैं। यहां संसद में उम्मीदवार को पहुंचाने के लिए एक गार्जियन काउंसिल है जो यह तय करती है कि सुधारवादियों और कट्टरपंथी विचारधारा के बीच सही अनुपात कायम रखा सके। काउंसिल यह सुनिश्चित करती है कि कोई अस्वीकार्य व्यक्तित्व वाला नुमाइंदा चुन कर ना आजाए। ऐसा अतीत में हुआ है कि सुधारवादियों के ज़्यादा संख्या में चुने जाने के बाद उनके कानूनों को मंज़ूरी मिली है। फिर भी ऐसे सभी कानूनों को अंतिम मंज़ूरी गार्जियन काउंसिल से ही मिलती है।
पेजेश्कियान ने पश्चिमी देशों के साथ साल 2015 के असफल परमाणु समझौते के नवीनीकरण पर सकारात्मक बातचीत का भी आह्वान किया है जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी कट्टरपंथी सईद जलीली यथास्थिति के पक्ष में थे। जलीली पूर्व परमाणु वार्ताकार रह चुके हैं और उन्हें ईरान के सबसे ताक़तवर धार्मिक समुदायों में मज़बूत समर्थन हासिल रहा है.जलीली पश्चिम विरोधी रहे हैं। वो परमाणु समझौते को बहाल करने के भी ख़िलाफ़ रहे हैं। फिलहाल यह माना जा रहा है कि इस वक्त ईरान को पश्चिमी देशों का रवैया बदलने के लिए उदारवादी चेहरे की ज़रूरत है। जनता इस सतत पश्चिमी संघर्ष के हक़ में नहीं है, अपने परमाणु कार्यक्रम की वजह से कड़े प्रतिबन्ध ईरान को झेलने पड़े हैं। ईरान एशिया में बड़ा खिलाड़ी साबित हो सकता है खासकर तब जब दुनिया एक तरफ चीन और रूस की जुगलबंदी तथा दूसरी और यूरोप और अमेरिका के बीच अंतर्विरोधों को साफ़ देख रही हो। ग़ज़ा पर इजराइल के हमले और दिल्ली के लिहाज़ से वह अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान को संतुलित करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। जो भी हो यह समय बदलता हुआ दिख रहा है जबकि यूरोपीय संघ में धुर दक्षिण पंथियों की सीटें बढ़ी हैं और इसके तुरंत बाद ईरान, इंग्लैंड और फ्रांस के नतीजों में यह बदलाव। ज़ाहिर है दुनिया के लोग, देश और सरहद के नाम पर दुनिया से संघर्ष नहीं चाहते। ईरानी कवि साबिर हका की एक कविता है सरहदें।
जैसे कफ़न ढंक देता है लाश को /बर्फ़ भी बहुत सारी चीज़ों को ढंक लेती है/ ढंक लेती है इमारतों के कंकाल को/ पेड़ों को, क़ब्रों को सफ़ेद बना देती है/और सिर्फ़ बर्फ़ ही है जो /सरहदों को भी सफ़ेद कर सकती है।
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