अजमेर में 'संभल'ना होगा
उत्तरप्रदेश के संभल में चार भारतीय नागरिक मारे गए। कोई भी जांच या बातचीत केवल यह मानकर शुरू क्यों नहीं हो सकती। इस हिंसा को समुदाय के नज़रिये से क्यों देखा जाना चाहिए ? नहीं देखा जाएगा क्योंकि ऐसे तटस्थ रवैये में वह कवरेज कहां जो गर्मागर्म मुद्दों को लपक ले। शाम की हिंसक बहस फिर कहां होगी ? मंदिर -मस्जिद विवाद में घेरना ही तो मक़सद है। मन्टो की कहानियों को जैसे फिर ज़िंदा करना है जिनमें बंटवारे के बाद कई बेगुनाह मारे गए थे ,कई विक्षिप्त हो गए थे। तब फिरंगी हुकूमत थी। वे जाते-जाते देश तोड़ गए। अपने हिसाब से इतिहास लिखवाया ताकि नफ़रत दोनों और उफनती रहे अब इस दौर में उन दस्तावेजों को सामने लाया जा रहा है जो उनके मुलाज़िमों ने लिखे। तब क्या देश फ़िरंगी सरकार से लड़ने वाले शहीदों को अब भुला चुका है। वक़्त का पहिया ऐसे भी घूमेगा कि अब हमारे नायक बदलने लगेंगे? अब क्यों सबकुछ नए सिरे से खोदने और सद्भावना की जड़ों में खून भेजने की ज़रूरत आ पड़ी है ? अब कौन फायदा लेना चाहता है ? संभल के बाद अजमेर का नंबर लगा दिया गया है। यह सब तब हो रहा है जब हिन्दू जाग्रति के सबसे बड़े स्वर ने अयोध्या के बाद कह दिया था कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना ? उनके कहने के या तो कोई अर्थ नहीं हैं या फिर उन्हें एक बार फिर आव्हान करना होगा।
काशी, मथुरा पहले से ही हैं। शायद राम मंदिर का निर्माण अंतिम सत्य साबित नहीं हो पाया जिसकी सुप्रीम कोर्ट ने भी अपेक्षा की थी । अजमेर की दरगाह भी विवाद में ला दी गई है। अजमेर जो मक्का के बाद बड़ा तीर्थ है और दुनिया भर से लाखों मुसलमान और हिन्दू यहां आते हैं। हर साल यहां उर्स (813 वा उर्स जनवरी में होना है ) का मेला लगता है। एक हज़ार साल पहले भारत आए फ़कीर ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है जिसके बारे में शहर के वकील का दावा है कि यहां तलघर में शिव जी की छवि वाला एक मंदिर है जिस पर पचास साल पहले तक दीपक जलाया जाता था ।अजमेर के वकील ने जिला न्याययालय में मुक़दमा दाखिल करते हुए लेखक हर बिलास सारदा की एक किताब का हवाला देते हुए यह दावा किया है। क्या वाक़ई किताब ऐसे तथ्य उपलब्ध कराती है ?
सारदा की यह किताब 1911 में प्रकाशित हुई थी। वे एक इतिहासकार और अंग्रेज हुकूमत में जज रहे। इंटरनेट पर अजमेर पर अंग्रेजी में लिखी उनकी यह किताब उपलब्ध है। किताब में इस ऐतिहासिक शहर का सिलसिलेवार ब्यौरा और तस्वीरें हैं। पुस्तक अंग्रेज शासक को समर्पित है। एक समूचा पाठ ख़्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती पर केंद्रित है जिसमें उनके जन्म (अफ़ग़ानिस्तान के चिश्त गांव में सन1143 में ) ,कम उम्र में माता-पिता के देहांत और विरासत में मिले एक बाग़ और पानी से चलने वाली चक्की को वंचितों के नाम कर देने का ब्यौरा है। किताब इस बात का खंडन करती है कि चिश्ती, मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी से पहले भारत आए ,वे लाव लश्कर के साथ ही आए थे। किताब के 86 वे पन्ने पर ज़िक्र है कि चिश्ती अपने अंतिम दिनों में केवल एक रोटी खाते थे और दो चादरों से बना एक वस्त्र पहनते थे जो कि कई जगहों से पैबंद लग कर सिला होता था। किताब कहती है उन्होंने कभी अपने उपदेशों में क्रोध और आवेश को जगह नहीं दी और ऊपर वाले की कृपा से मौजूद हर शै से प्रेम करने और शांति का संदेश दिया। किताब के अनुसार ख्वाजा के निधन के 250 सालों तक कोई पक्का निर्माण नहीं था। वर्तमान बड़े गुंबद का निर्माण अकबर ने करवाया और फिर बड़े दरवाज़े का उनके पोते शाहजहां ने। किताब पूरे सम्मान के साथ ख्वाजा का ज़िक्र करती है ,अजमेर के वकील इसका हवाला नहीं देना चाहते। सारदा ने पेज संख्या 114 पर लिखा है कि जैसा उस दौर में होता था, मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू पूजा स्थलों के पास या उसके कुछ हिस्सों को कवर कर, निर्माण कार्य करवाया जाता था, हो सकता है यहां भी कुछ हुआ ऐसा हुआ हो। लेखक ने किताब में मंदिर के पास प्रश्नवाचक चिन्ह का उपयोग किया है। अजमेर ज़िला कोर्ट में याचिका दायर करने वाले वकील ने ऐसा कुछ नहीं बताया है। कोर्ट ने भारत सरकार के अल्प संख्यक मंत्रालय ,पुरातत्व विभाग और अजमेर दरगाह कमीटी को नोटिस जारी कर दिए हैं।
बात इतिहास की करें तो जब गोरे अपनी ईस्ट इण्डिया कंपनी को लेकर आए तो उन्हें पहले-पहल तो व्यापार करना था। इतिहासकार रोमिला थापर एक साक्षात्कार में कहती हैं -" अंग्रेज़ जब आए तब उन्होंने पहला सवाल किया आपका इतिहास कहां है जैसी चीन या ग्रीस के इतिहासकारों का है? सबसे पहले उन्होंने कहा कि हम आपका इतिहास लिखेंगे। इतिहासकार जेम्स मिल ने ही सबसे पहले अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया (1817 )' में लिखा कि यहां दो राष्ट्र हैं हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र और ये दोनों हमेशा लड़ते रहते हैं। यही बयान सभी अंग्रेज़ इतिहासकार लगातार दोहराते चले गए और फिर यही भारतीय मध्यम वर्ग का भी यही सच हो गया। यही कुछ इतिहासकारों की भीबुनियाद बन गया । लगभग पचास साल पहले इस बात पर गहन विचार हुआ कि यह जो उनका लिखा इतिहास लेकर हम चल रहे हैं,सही भी है या नहीं और तब पता चला की इतिहासकार मिल पूरी तरह गलत थे। "
जब देश में प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 क़ानून है तब कौन है जो जब तब इसके उल्लंघन को हवा देता है ? इस एक्ट की धारा- दो कहती है कि 15 अगस्त 1947 में मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव के विषय में यदि कोई याचिका कोर्ट में विचारार्थ भी है तो उसे बंद कर दिया जाएगा। अधिनियम की धारा तीन के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से भी किसी दूसरे धर्म में बदलने की अनुमति नहीं है। इसके साथ ही यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि एक धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के रूप में ना बदला जाए या फिर एक ही धर्म के अलग खंड में भी ना बदला जाए। ज़ाहिर है इस धारा को नहीं मानने पर शहर जो अमन से जी रहा होगा उसकी शांति भंग होगी। हिंसा होगी। पहले ऐसी घटना होने पर सरकार और टीवी ज़ख्मों पर मरहम लगाने पर जुट जाते थे। बचपन में टीवी पर देखे ऐसे कई संदेश लोगों को आज भी याद हैं जिसमें सद्भावना होती थी। एक चिड़िया अनेक चिड़िया.. और पेड़ों के आम तोड़ने वाला एनीमेशन को वह पीढ़ी आज भी याद करती है। उसकी पंक्तियां थीं -'हो गए एक, बन गई ताकत' और आज क्या हो रहा है ?वकील ही ऐसे मुद्दे ला रहे हैं जो जानते हैं कि देश में अब प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट क़ानून लागू है।
मान लीजिये परिषद का यह दावा भी सच हो कि तकरीबन 40 हज़ार जगह देश में ऐसी हैं जहां मंदिर के स्थान पर मस्जिद निर्माण हुआ हो, तब हम क्या करेंगे? पूरे देश को नफ़रत के दावानल में झोंक देंगे जैसी की कोशिश हो रही है। यह कुछ ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों के अत्याचार जिसमें जालियां वाला बाग़ के जनरल डायर का कुकृत्य भी शामिल है ,उसे याद करते हुए हवाई अड्डों पर अंग्रेज सैलानियों को ही पकड़ कर जवाब मांगे जाए। अफ़सोस है कि आज देश में ऐसा कोई नहीं जो नोआखाली में बापू की तरह दंगा पीड़ितों के बीच पहुंच जाए। नेताओं के सख्त आभाव के दौर में जी रहे हैं हम। शायद वे करीने के इंसान हुआ करते थे ,जिन्हें इस तरह की सद्भावना में यकीन था। उनके लिए इंसान का दिल ईश्वर के क़रीब जाने का रास्ता था। अब ऐसी सोच को कोई तवज्जो नहीं है। नए मुद्दे लाओ ,नया विवाद पैदा करो यही चलन है। फिराक गोरखपुरी (रघुपति सहाय )की गजल का शेर है-,
मज़हब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे
तहजीब सलीक़े की, इंसान क़रीने के
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें