अमेरिका ने चली ट्रम्प की चाल !
बेशक़ अमेरिका ने इस बार ट्रम्प की चाल ही चली है। पिछली बार ना तो उसे हिलेरी की चाल समझ आई थी और ना इस बार कमला हैरिस की। उसे तो केवल ट्रम्प की मतवाली चाल और बालों में उभरा फुग्गा ही नज़र आया और पसंद भी। बचपन में ताश के पत्तों में तीन-दो-पांच खेल बहुत लोकप्रिय था। जिसके पास ज़्यादा हुकुम या ट्रम्प के पत्ते होते थे, जीत उसी की होती थी। यहां ट्रम्प जीत तो गए हैं लेकिन अमेरिका का जीतना अभी बाकी है। दुनिया में जारी युद्धों का रुकना बाकी है ,अमेरिकी जनता को भी महसूस हुई महंगाई का रुकना बाकी है।इसके अलावा बाकी है कथित घुसपैठियों का जाना,मूल अमेरिकियों को रोज़गार मिलना और इलोन मस्क के हिसाब से तकनीक का केन्द्रीकरण। यही सब वादे थे जो रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प ने चुनाव से पहले किये थे और अब ऐतिहासिक जीत के साथ वे अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए हैं। एक सदी से भी ज़्यादा समय के बाद ऐसा हुआ है कि कोई हारकर जीता है। 2020 में वे चुनाव हार गए थे और गुस्से में उनके समर्थकों ने कैपिटल हिल पर हमला बोल दिया था क्योंकि ट्रम्प ने कह दिया था कि यह चुनाव उनसे छल से चुरा लिया गया है। इस बार इसकी कोई ज़रूरत नहीं पड़ी और डेमोक्रेट्स ने ऐसा कुछ किया भी नहीं। हार के बाद कमला ने ज़रूर कहा कि वे चुनाव स्वीकार करती हैं लेकिन इस लड़ाई में इस्तेमाल किए गए खाद-पानी को स्वीकार नहीं करती और शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण में मददगार होंगी। इधर भारत में भारतीय मूल की कमला की हार के बाद भी भारी खुशियां मनाई जा रही हैं। वैसे याद कर लेना चाहिए कि ट्रम्प वे ज़िद्दी हैं जिन्होंने कोरोना के वक्त दवाई भेजने में देरी पर भारत को धमकाया था और अमेरिकी उत्पाद पर ज़्यादा टैक्स लगाने को लेकर भी वे भारत को हड़का चुके हैं। उनका 'अमेरिका फर्स्ट' का दावा अब शेष दुनिया के हिसाब-किताब बिगाड़ने वाला है।
कमला हैरिस जीततीं तो बात कुछ और होती। सबसे पुराने लोकतंत्र की पहली महिला अश्वेत राष्ट्रपति वह भी भारत से जिनके माता-पिता तमिलनाडु के एक गांव से अमेरिका गए थे। यह मंज़र कुछ और होता। तब लिखा जाता कि होंगे दुनिया में व्लादिमीर पुतिन ,शी जिन पिंग और किम जोंग जैसे तमाम कट्टरपंथी नेताओं के बीच अमेरिका ने एक उदार, महिलाओं के अधिकारों की पैरोकार और प्रवासियों को अपशब्द नहीं कहने वाली समावेशी राजनीतिज्ञ महिला को चुना है । अफ़सोस ऐसा कुछ नहीं हुआ। कमला हार गईं। उन्हें देर से मैदान में उतारा गया। उनकी पार्टी के राष्ट्रपति रहे जो बाइडन कमज़ोर राष्ट्रपति साबित हुए। अक्सर वे भूल जाते थे कि वे कहां हैं। सामने खड़े प्रधानमंत्री मोदी को उन्हें आमंत्रित करना होता था और उन्हें लगता था कि वे किसी प्रेसवार्ता में खड़े हैं और वे 'नेक्स्ट क्वेश्चन' कहने लगते यानी अब अगला सवाल करो। ग़ज़ा पर जारी हमलों में इजराइल का एकतरफा समर्थन करने वाले भी बाइडन ही थे। वे रूस को भी चेताने में नाकाम रहे, चीन के दांत और पैने हुए। उनके कार्यकाल के अंत में तो ब्रिक्स और ताक़तवर संगठन हो गया जिसमे शामिल होने के लिए दुनिया के अन्य देशों की भी कतार लग गई क्योंकि डॉलर के आतंक से ये तमाम देश प्रताड़ित रहे। साफ़ है कि कमला को एक कमज़ोर विरासत मिली थी।
साल 2008 में कमला की ही पार्टी से जब बराक ओबामा राष्ट्रपति चुने गए थे तब दुनिया की भाषा और थी। तब मैंने एक भी एक स्तंभ में लिखा था कि बेशक़ अमेरिका दुनिया पर दादागिरी करने में यकीन रखता है लेकिन लगता है बराक ओबामा अमेरिकी प्रशासन का मोहरा भर नहीं होंगे। राष्ट्रपति ओबामा युवा हैं। बढ़िया बोलते हैं और वे पत्नी मिशेल और दो बेटियों के साथ पारिवारिक मूल्यों में भरोसा करते हुए नजर आते हैं। वे हमारी ही तरह काले हैं जिनका गोरों ने हमेशा मजाक उड़ाया है। हेय समझा है। ओबामा बेहतर दुनिया की अपेक्षा जगाते हैं क्योंकि वे न तो काले हैं ना ही गोरे, `काले-गोरे´ हैं। काले पिता और गोरी मां की संतान। दो संस्कृतियों में पला-बढ़ा शख्स दुनिया को एक आंख से तो नहीं देखेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे ब्लैक एंड वाइट के बीच बिखरे बहुत से रंगों की पहचान रखते होंगे। वे पहले एफ्रो-अमेरिकन राष्ट्रपति हैं। पिता 1961 में अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने के लिए कीनिया से अमेरिका आए थे। वहीं विश्वविद्यालय में मां एना डुनहेम से मुलाकात हुई। 1963 में ही ओबामा के माता-पिता अलग हो गए। 1967 में मां ने दूसरी शादी की और इंडोनेशिया चली गईं। जाहिर है ओबामा किसी संस्कृति विशेष की नहीं बल्कि संस्कृतियों के मिलन का नतीजा है। 'यस वी केन' उनका ध्येय वाक्य था। खुश हो सकते हैं कि ओबामा के प्रचार में सुकेतु मेहता, सलमान रश्दी,किरण देसाई,झुंपा लाहिडी़, मीरा नायर जैसी भारतीय मूल की हस्तियां शामिल रहीं।
ऐसे ही कशीदे पढ़े जाते गर जो कमला राष्ट्रपति चुनीं जाती। ट्रम्प तो दूसरी बार बने हैं। उन्हें और उनके काम सबने देखे हैं। जैसा की नतीजों के बारे में बराक ओबामा ने भी कहा है -हमने ऐसे नतीजों की कल्पना नहीं की थी। जैसा कि लोकतंत्र में होता है, हमारा नज़रिया ही हमेशा सही नहीं होता जिसके चलते हम शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता सौंप देते हैं। महामारी ने गंभीर असर डाला जिसकी वजह से दाम भी बढ़े फिर भी हम पानी में सर ऊंचा कर तैरते रहे। कमला हैरिस का कैंपेन शानदार था। यह विशाल देश विविधताओं से भरा है और असहमत होने के बावजूद सभी का सम्मान करने के कारण ही हम यहां तक पहुंचे हैं।
डोनाल्ड ट्रम्प अपने चुनावी अभियान में सर्वाधिक हमलावर घुसपैठियों पर रहे। उनका मानना है कि ये अमेरिकियों के रोज़गार खा रहे हैं और अपराध को भी बढ़ा रहे हैं। 90 हज़ार से ज़्यादा भारतीय ने साल 2022-23 में अवैध तरीके प्रवेश किया है और अब उन पर मुश्किल आने वाली है। डोनाल्ड ट्रम्प के प्रचार में दक्षिण अफ़्रीकी-कनाडाई-अमेरिकी दिग्गज व्यवसाई और ट्विटर इंक के मालिक इलोन मस्क का पूरा साथ रहा। वही इलोन जो भारत में चुनाव से पहले आने वाले थे और यकायक उन्होंने अपनी यात्रा को रद्द कर दिया था। मस्क का इरादा है कि अमेरिका के तमाम राज्यों में व्याप्त लालफीताशाही को ख़त्म किया जाए और टेक्नोलॉजी के लिहाज़ से केवल एक कायदे कानून हों। अमेरिकी राज्य ईयू (यूरोपीय संघ) की तरह व्यवहार करें। चूंकि एआई आर्टिफिशल इंटेलिजंस को लेकर ट्रम्प काफ़ी मुखर और उदार हैं तब जल्द ही इस दिशा में बड़े कदम उठा सकते हैं। एआई के लिहाज़ से भारत से काफी इंजीनियरों की आवश्यकता अमेरिका को होगी लेकिन ट्रम्प वही हैं जिन्होंने एच वन बी वीसा को मुश्किल बनाया था।
ऐसे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ट्रम्प अमेरिका फर्स्ट में यकीन रखते हैं और इसके चलते वे किसी को भी आंखें दिखा सकते हैं और दूसरी पारी में वे कहीं सशक्त और तरोताज़ा हैं। वे कहते हैं 'मेक अमेरिका फर्स्ट अगेन' (मागा) जिसके चलते वे शेष दुनिया को ज़्यादा कसेंगे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उसकी नीतियों में दुनिया के देश लाभांवित होते थे अब अमेरिका चाहता है कि उसका माल भी खरीदा जाए नहीं तो वह भी उन देशों पर ज़्यादा कर लगाएगा। ऐसा होना भारत के लिए अच्छा नहीं होगा। वह नाटो देशों पर भी दबाव बनाएगा और अपना सहयोग कम करेगा नतीजतन रूस को शह मिलेगी। ट्रम्प ने 2018 में ही कह दिया था नाटो देश अपना सहयोग डबल करें और वे अपनी सुरक्षा के लिए आश्रितों की तरह बर्ताव ना करें। इन देशों में अब उथल-पुथल है। जर्मनी ताज़ा उदाहरण है। कुल मिलकर अमेरिका अब कम दोस्ताना,कम समायोजन वाला ,कम आप्रवासी मित्रता वाला, ज़्यादा कर लगाने वाला और महिलाओं को तोल-मौल कर अधिकार देनेवाला देश होगा। फिर भी हार कर जीतनेवाले की बाज़ीगरी देखना दिलचस्प होगा।
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