बांग्लादेश : सत्ताग्रहियों को मिला कड़ा संदेश


बांग्लादेश में राजनीतिक उठापटक से बने हालात, हर उस देश के लिए सबक हैं जिसके हुक्मरां अवाम की आवाज़ को सुननहीं पाते हैं और देश को अराजकता की ओर धकेल देते हैं। अब जाकर कहीं पंद्रह साल से राज कर रही वहां की अवामी लीग पार्टी को यह समझ आया है कि युवा छात्रों के असंतोष को समझने में उससे भूल हुई। अब निर्वासित पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के बेटे इस बात को अपने साक्षात्कारों में लगातार कह रहे हैं कि गलती हुई है। सच है कि देश में सरकार के खिलाफ बने असंतोष के बीच आरक्षण का मामला ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ लेकिन मुद्दे कई और भी थे । तख्ता पलट के बाद पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत आ गई हैं। उधर बांग्लादेश की नवगठित अंतरिम सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि भारत से उन्हें सहयोग की आशा है लेकिन दखल की नहीं। वे लगभग चेतावनी देने वाले अंदाज़ में कहते  हैं कि भारत में रहते हुए  पूर्व प्रधानमंत्री  शेख हसीना किसी तरह की बयानबाज़ी ना करें। बेशक किसी भी देश के लिए उसके अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और खयाल बहुत मायने रखता है। इस उथल-पुथल में वे भी निशाने पर रहे। फिलहाल भारत की नज़र और चिंता केवल वहां की अल्पसंख्यक आबादी नहीं बल्कि समूचा बांग्लादेश है जिसे खड़ा करने में भारत की बड़ी भूमिका रही है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान, श्रीलंका और अब बांग्लादेश में बने ऐसे हालात इस क्षेत्र क़ी अस्थिरता का ब्यौरा देते हैं।  यहां भारत को अपनी बड़ी भूमिका, बड़े भाई जैसी रखनी होगी ताकि एशिया महाद्वीप का यह हिस्सा शांत रह सके। 

क्या कमाल है कि इन छात्र आंदोलनकारीयों ने अपना भरोसा 83  साल के नोबल शांति पुरस्कार विजेता(2006) मोहम्मद यूनुस पर जताया और वे पेरिस से आ भी गए। वे यूनुस जो बांग्लादेश से गरीबी मिटानेवाले शख़्स बतौर देखे जाते हैं। ग्रामीण बैंकों (1983) के ज़रिये उन्होंने बांग्लादेश के निचले तबके को उठाने का महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव किया। आर्थिक रूप से पिछड़ों को लोन दिया ,खासकर महिलाओं को। उनके इस काम से आए जबरदस्त आर्थिक बदलाव के लिए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। उनकी सोच रही शून्य गरीबी,शून्य बेरोज़गारी और शून्य कार्बन उत्सर्जन। यह वजह भी थी कि पिछले एक दशक में देश में बेहतर आर्थिक हालात बने थे और प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी थी। छात्र क्रांति के बाद मोहम्मद यूनुस ने अपनी पहली अपील में छात्रों से कहा कि इस जीत को जाया नहीं होने देना है, अपनी गलतियों से सीखना है और हिंसा को रोकना है। दरअसल मोहम्मद यूनुस वे व्यक्ति हैं जिन्होंने इस बड़े भारतीय भूभाग की आज़ादी का समय भी देखा,फिर भारत पाक विभाजन को भी और पाकिस्तान से बांग्लादेश बनने की प्रक्रिया को भी। ये बुज़ुर्ग अब बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार के मुखिया हैं।

 बांग्लादेश के आंदोलनकारी इसे दूसरी क्रांति का नाम दे रहे हैं। पहली क्रांति वह थी जब शेख मुजीबुर्र रहमान के नेतृत्व में हुई। भारत के सहयोग से 1971 में यह हिस्सा पाकिस्तान से अलग हुआ था । तब से अब तक  भारत ने अपने पड़ोसी से जुड़े कई समाचार उनमें एक यह भी था कि  एक युवा लेखिका तस्लीमा नसरीन ने एक उपन्यास 'लज्जा' लिखा जो भारत के लोगों के साथ बांग्लादेश में हो रहे दुर्व्यवहार का कच्चा चिटठा  था। तस्लीमा नसरीन  कट्टरपंथी बांग्लादेशियों को ऐसी चुभी की उन्हें जान बचा कर भारत की ओर भागना पड़ा और अब भारत ही उनका घर है। यहां रहते हुए भी कट्टरपंथ और पितृसत्ता के ख़िलाफ़ उनकी कलम लगातार चलती रही। मौत के फतवे भी जारी होते रहे। आज तक  समय-समय पर भारत सरकार उनके रेजिडेंशियल वीज़ा की मियाद बढ़ाती रहती है ताकि वे यहां रह सकें । समाचार और भी थे कि अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिये हमारे देश में आ गए हैं कि बांग्लादेश कि प्रति व्यक्ति आय भारत से बेहतर हो गई है। 

आर्थिक बदलाव के साथ-साथ कट्टरपंथ इस देश का पीछा हमेशा करता रहा जैसे किसी अंतर्विरोध को जी रहा हो । राजधानी ढाका में मार्च 2015 की एक  शाम डॉ अविजित रॉय (44) अपनी पत्नी राफिदा अहमद के साथ एक पुस्तक मेले से लौट रहे थे। सात किताबों के लेखक रॉय बांग्लादेशी मूल के अमेरिकी नागरिक और इंजीनियर थे और कुछ दिनों पहले ही ढाका लौटे थे। रॉय अपने ब्लॉग 'मुक्तो मोन' में ना केवल मज़हब  को वैज्ञानिक कसौटी पर कसते बल्कि कट्टरपंथियों पर प्रहार भी करते। यही कट्टरपंथियों को  रास नहीं आया। उनके पिता डॉ अजय रॉय कॉलेज के व्याख्याता और एक्टिविस्ट थे और उन्हें अपने पुत्र को लेकर चिंता थी क्योंकि उन्हें मिलने वाली धमकियों में यकायक  इजाफा हो गया था। आखिरकार रूढ़िवादी ताकतों ने उस शाम उनका क़त्ल कर दिया। ढाका में इससे पहले बांग्ला के स्कॉलर, लेखक और एक्टिविस्ट प्रोफेसर हुंमायू आज़ाद (2004) और ब्लॉगर रजब हैदर (2013) की भी ऐसे ही हत्या कर दी गई थी। इनके हत्यारे कानून की पहुंच से भी बाहर ही रहे हैं। 

क़ानून का ऐसा हाल देश में रहने वाले आज़ाद ख़याल नागरिकों को दोराहे पर ला देता है। हाल की क्रांति, छात्र क्रांति मालूम होती है लेकिन इसकी जड़ में कुछ और भी हैं।  छात्रों को लगने लगा था कि शेख हसीना सरकार का 56 प्रतिशत आरक्षण उनके हितों पर आघात है। इसमें 30 फीसदी कोटा उन स्वतंत्रता सैनानियों के लिए था जिन्होंने 1971 की लड़ाई में अवामी लीग पार्टी का साथ दिया और एक आज़ाद बांग्लादेश बनाया था। दस प्रतिशत महिलाओं के लिए ,दस प्रतिशत ही ज़िला कोटा के तहत  पिछड़े ज़िलों के लिए ,पांच प्रतिशत जनजातीय अल्पसंख्यकों के लिए और एक फीसदी शारीरिक तौर पर कमज़ोर लोगों के लिए। छात्रों की मांग थी कि केवल पिछड़े और कमज़ोर के आरक्षण को ही बहाल रखा जाए और बाकी सभी  आरक्षण को ख़त्म किया जाए। उनका तर्क था कि स्वतंत्रता सैनानियों के पोते- पोतियों को आरक्षण देने का कोई अर्थ नहीं है और इसमें सरकार भ्रष्टाचार करती है। सरकार का जवाब था कि  स्वतंत्रता सैनानियों को आरक्षण ना दिया जाए तो क्या रज़ाकारों (रज़ाकार वाहिनी ) को आरक्षण दिया जाए जिन्होंने लड़ाई के समय पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था। यह मुक्तिवाहिनी से ठीक उलट थी। सरकार ने आंदोलन को दबाने की नाकाम कोशिश की। गिरफ्तारियां की ,कर्फ्यू लगाया,इंटरनेट बंद किया लेकिन हिंसा नहीं रुकी।  बंगलादेश अलग ही राह  पर चल निकला। खासकर देश के शहर इस छात्र आंदोलन की गिरफ्त में आते गए। सरकार की मुखिया को देश छोड़कर भगना पड़ा। साल 1972 से लागू इस कोटे से किसी को कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन बाद के वर्षों में इसे  स्वतंत्रता सैनानियों के बच्चों और फिर उनके पोते पोतियों के लिए  बढ़ाना छात्र विद्रोह का कारण बना ।  

इस हिंसक आंदोलन में 200 जानें गईं और हज़ारों घायल हुए। कुछ और भी कारण रहे जिसने शेख हसीना को एक तानाशाह के रूप में स्थापित कर दिया। बंदरगाहों  के आधुनिकीकरण में चीन के दखल ने विपक्ष और सिविल सोसाइटी को सचेत किया। उन्हें डर था कि ऐसा होना चीन पर उनकी निर्भरता को बढ़ाएगा और इससे देश की संप्रभुता पर आंच आएगी। विपक्षी दलों के इस नेरेटिव ने उथल -पुथल में आधार  का काम किया था । यह भारत के लिए भी खतरा था क्योंकि चटगांव बंदरगाह बांग्लादेश के 90 फ़ीसदी व्यापार का केंद्र है जिसके ज़रिए भारत, नेपाल और भूटान से कारोबार होता है। सरकार की नीतियों से उपजे असंतोष, बेरोज़गारी,आर्थिक तंगी और सरकार की नीयत में ईमानदारी की कमी ने बांग्लादेश को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया जहां  से सामान्य होने में इसे वक्त लगेगा। उसमें भ्रष्टाचार भी बड़ा मुद्दा बना। वे पंद्रह साल से सत्ता में थीं और इस साल जनवरी में हुए चुनाव में विपक्षी दलों के बहिष्कार के बाद केवल 40 फ़ीसदी मतदान हुआ। मतदान केंद्र खाली पड़े रहे। प्रमुख विपक्षी नेता खालिदा ज़िया को पहले ही जेल में डाल दिया गया था। चुनाव में 222 सीटों पर शेख हसीना की अवामी लीग की जीत हुई जिसे कहा गया कि 'यह डमी सरकार के डमी प्रत्याशियों की डमी संसद है। ' इसके बाद हालात बिगड़ते गए और छात्र आंदोलन ने सत्ता से चिपके रहने वालों को कड़ा संदेश दे दिया। देश को इस हाल में धकेलने के लिए कोई ज़िम्मेदारी लेगा ? और शेष इससे कोई सबक लेंगे?



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