मोदी 3.0, तीसरी 'डेट' में कुछ कम है जोश
एक के बाद एक फैसलों को रद्द करना या कदम पीछे लेना इस तीसरे कार्यकाल की ख़ासियत है या कमज़ोरी। अब तक ऐसे चार बड़े निर्णय
यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता के साथ तीसरी 'डेट' है और पिछली दो से यह काफ़ी कुछ अलग है। पहले जो बला का आत्मविश्वास और भरोसा दिखाई देता था, वह तीसरी में कुछ कम हुआ लगता है। हाल ही में कुछ तीन-चार बातें भी ऐसी हुई हैं कि डेट का पुराना वाला लुत्फ़ जाता रहा। आगे भी मुलाकात के मौके होंगे लेकिन यह पक्के और मजबूत रिश्ते में कितना बदलेंगे यह देखना दिलचस्प होगा। जनता तो डेट के लिए सज-धज कर इंतज़ार में है लेकिन लगता है उसके प्रिय नेता कहीं उलझ रहे हैं। उसे वे वैसे नहीं लग रहे हैं जैसे वे थे। इस बार वे अपने ही कहे से पलट रहे हैं,पीछे हट रहे हैं। जो पलटना ही था तो कहा क्यों और जो कहा तो उस पर अमल क्यों नहीं ? सब जानते हैं डेटिंग बड़ा नाज़ुक मासला है और इसमें इधर-उधर की बात नहीं चलती। खोया-खोया या 'गायब-आया' जैसा पार्टनर कामयाब नहीं होता। एक कार्टूनिस्ट ने तो इस बदलाव पर कार्टून ही बना डाला कि इससे तो अच्छा है कि एक लेटरल सोचने वाला ही रख लिया जाए जो विचार कर सके,फ़ैसले ले सके। लेटरल बोले तो नैपथ्य के दरवाज़े से आकर कोई राय देने वाला,सोचने वाला। खैर, यह तो हुई व्यंग्य की बात। पड़ताल तो होनी चाहिए कि क्या वाकई सरकार 'गायब-आया' की तरह बर्ताव कर रही है ? इस तीसरी डेट में क्या कोई दूसरा है जो पीछे से लगाम खींच रहा है ?
लेटरल एंट्री,ब्राडकास्टिंग बिल,वक़्फ़ बिल,लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन बिल पर सरकार पीछे हटी है। जनता की चौपाल हो या सत्ता के गलियारे, सर्वाधिक चर्चा उस लेटरल एंट्री की है जिसके माधयम से 45 आईएएस अधिकारियों की भर्ती होनी थी। इनमें संयुक्त सचिव,निदेशक और उप निदेशक स्तर के अधिकारियों को 24 मंत्रालयों के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर चुना जाना था। यकायक इस फैसले को वापस ले लिया गया। केंद्रीय मंत्री जीतेन्द्र सिंह ने बुधवार को संघ लोक सेवा आयोग को चिट्ठी लिख कर कह दिया कि भर्ती के लिए जारी विज्ञापन वापस लिया जाए क्योंकि प्रधानमंत्री को लगता है कि इससे सामाजिक न्याय की अवधारणा का उल्लंघन होता है। पीएम के लिए, सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण हमारे सामाजिक न्याय ढांचे की आधारशिला है , जिसका उद्देश्य ऐतिहासिक अन्यायों को संबोधित करना और समावेशिता को बढ़ावा देना है। बहुत बढ़िया, पीएम की इस सोच का स्वागत किया जाना चाहिए। उधर कई अधिकारी हैं जिन्हें इस निर्णय से निराशा हुई है। वित्त आयोग के अध्यक्ष डॉ अरविन्द पनगड़िया की राय में यह नियुक्तियां समंदर में बूंद भर जितनी लेकिन उस प्रतिभा को शामिल करने के लिए होती, जिसकी सरकार को सख्त ज़रूरत है। उनका यह भी कहना था कि इस तरह सरकार जनरलिस्ट यानी जो तमाम जनरल बातों को अच्छी तरह समझते हैं उन्हीं से काम लेने के लिए मजबूर होगी जबकि सरकार को विशेषज्ञों की ज़रुरत है। बेशक डॉ पनगड़िया की बात में दम है लेकिन सरकार चाहती तो वह भी पिछली लेटरल एंट्री की नियुक्तिसे हुए फायदों को बता कर अपने निर्णय को पुख्ता कर सकती थी लेकिन उन्होंने रद्द करना उचित समझा। क्या यह विपक्ष से भी ज़्यादा सरकार में शामिल घटक दलों का दबाव था क्योंकि चिराग पासवान और नीतीश कुमार दोनों ही सहयोगियों ने इस निर्णय का खुलकर विरोध किया था।
एक दिन पहले सरकार के मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने खुद इस लेटरल एंट्री का बचाव किया था। उनका तर्क था कि अगर कोई सरकार के बाहर पर्यावरण का विशेषज्ञ है और लेटरल एंट्री से आकर सरकार को उसके अनुभव का लाभ मिलता है तो इसमें दिक्कत ही क्या है। वैसे भी इसमें कोई भी आ सकता है। वह एससी, एसटी का भी हो सकता है। फिर इसके अगले ही दिन सरकार ने निर्णय वापस ले लिया। यहां तक की सोशल मीडिया पर साझा की गई रेल मंत्री की पोस्ट भी हटा ली गई जबकि मोदी के पहले कार्यकाल (2018 ) में यह भर्ती दमख़म के साथ की गई थी । फिर इस बार क्यों सरकार बदली-बदली सी है? उसे यह महसूस होने लगा है कि सामाजिक न्याय के मुद्दे पर ही उन्हें लोकसभा चुनावों में गहरा झटका मिला है , खासकर उत्तरप्रदेश में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सोशल साइट ‘एक्स पर लिखा -"लेटरल एंट्री दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों पर हमला है। भाजपा ने पहले रामराज्य की तोड़मरोड़ कर व्याख्या की और अब संविधान की कर के बहुजन समाज से आरक्षण छीनना चाहती है।" वैसे लेटरल एंट्री से चयनित उम्मीदवार की सेवा अवधि तीन वर्ष की या अधिकतम पांच वर्ष की होती है। आरक्षण व्यवस्था के मुताबिक, एससी के लिए प्रति 7 सीटों में एक, एसटी के प्रति 14 सीटों में एक, ओबीसी के लिए प्रति चार सीटों में एक जबकि गरीब सवर्णों के लिए प्रति 10 में से एक सीट आरक्षित होती है। इसलिए अगर किसी पद के लिए कम से कम चार सीटों पर भर्तियां नहीं हैं तो वहां आरक्षण लागू नहीं होगा।
आज जो कांग्रेस इसका विरोध कर रही है और उसे यह बड़ी खता लग रही है वहां भी अर्से से लेटरल एंट्री का खाता खुला हुआ है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी लेटरल एंट्री से ही दाखिल हुए। ऐसा इसलिए था क्योंकि वे अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ थे और पूरी दुनिया उनकी इस काबिलियत का लोहा मानने लगी थी । 1972 में वे मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त हुए। चार साल बाद वित्त मंत्रालय के सचिव। मोंटेक सिंह अहलूवालिया और रघुराम राजन जैसे आर्थिक विशेषज्ञ भी देश को ऐसे ही मिले। बिमल जालान ,के पी नांबियार कई नाम हैं जिनकी सेवाओं का देश को लाभ मिला। आधार के जनक नंदन नीलकणी इंफोसिस से जुड़े थे लेकिन फिर सरकार से जुड़े। यह कमी ही कही जाएगी कि तमाम उदाहरणों के बावजूद सरकार ने लेटरल एंट्री के फैसले को रद्द किया। शायद इसकी वजह एक साथ 45 अधिकारियों की नियुक्ति थी जो मुद्दा बनी। यह भी सच है कि सरकार में मौजूद ढांचागत कमियों को कोई भी लेटरल एंट्री जादू की छड़ी घुमाकर दूर नहीं कर सकती। यह ज़रूर है कि बाहर से आने वाले विशेषज्ञ तरोताज़ा आइडियाज के साथ आते हैं। आज के जटिल समय में सरकार चलाना आसान नहीं है। यूं भी प्रतिभा और सामाजिक न्याय को एक-दूसरे का विरोधी बताना कोई समझदारी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कोटे के भीतर कोटे की सुनवाई के समय महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी कि आरक्षण लम्बे समय से भेदभाव झेल रहे समाज में से प्रतिभाओं को पहचानने की प्रक्रिया है, प्रतिभाओं को दूर करने की नहीं। ज़ाहिर है नरेंद्र मोदी सरकार को अपने इस तीसरी कार्यकाल में संभलकर कदम रखने होंगे। देश की विविधता को ध्यान में रखकर और अपने सहयोगी दलों के मिजाज़ को भी समझते हुए । यहां सहयोगी दल खासकर जनता दल यूनाइटेड और लोक जनशक्ति पार्टी विपक्ष के साथ हो गए थे।
तीन अन्य मुद्दों पर भी सरकार ने कदम पीछे लिए हैं। ब्रॉडकास्ट बिल, 2024 के मसौदे पर अब सरकार नए सिरे से विचार करेगी। तीसरे कार्यकाल के पहले ही मानसून सत्र में केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इस बिल को पेश किया था। इसके ज़रिये तमाम यू ट्यूब चैनलों और डिजिटल मीडिया पर लगाम की तैयारी थी लेकिन न केवल विपक्ष बल्कि डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स और इंडिविजुअल कॉन्टेंट क्रिएटर्स ने सरकार के इस कदम का जमकर विरोध किया। आखिरकार मिनिस्ट्री ऑफ इंफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग ने सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर इस बिल को वापस लेने और मसौदे के साथ लाने की जानकारी दी। मंत्रालय ने आम लोगों से इस पर राय भी मांगी है। यही वक़्फ़ संशोधन बिल के साथ हुआ। अब जाकर इसे संयुक्त संसदीय समिति को दिया गया है। सरकार चाहती तो पास करा सकती थी लेकिन विरोध और विवाद के बीच ऐसा नहीं किया। इस वापसी में एक और लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन बिल भी शामिल हैं जिसे बजट के दौरान वित्त मंत्री ने पेश किया था। अभी तो तीसरी डेट की शुरुआत ही हुई है रिश्ता बन सकता है लेकिन तेवर में कमी झलक रही है। पहली और दूसरी मुलाकातों जैसा आत्मबल बना रहना चाहिए।
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