UCC:आसान नहीं है परंपरा की कोई एक किताब


प्रधानमंत्री ने अपनी अमेरिका और मिस्र दौरे के बाद भोपाल में अपनी पहली सभा में जिन दो बातों का ज़िक्र किया था उनमें विपक्षी एकता पर तंज़ के साथ महाराष्ट्र के एनसीपी  विधायकों को चेतावनी थी और था यूनिफार्म सिविल कोड यानी यूसीसी का ज़िक्र। महाराष्ट्र में कथित भ्रष्टाचार के इलाज में तो उनकी पार्टी ने इतनी तेजी दिखाई कि नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी )को तोड़कर ही रख दिया। अब टूटा हुआ हिस्सा सरकार में है लेकिन यूसीसी अभी शेष है। इससे पहले एकनाथ शिंदे टूटकर आ गए थे और महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी के ऑटो का एक पहिया निकल गया था। 
महाभारत के जिस पात्र को लेकर किंवदंती है कि वह आज भी जीवित है और नदी किनारे घूमते हुए लहूलुहान अवस्था में दिखाई भी दे जाता है वह है द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा लेकिन क्या वाकई केवल अश्वत्थामा के बारे में ऐसा कहा जा सकता है,धृतराष्ट्र के लिए नहीं ? पुत्र मोह में समूचे युग को अंधे युग में बदल देने वाले धृतराष्ट्र तो जैसे कभी काल कवलित हुए ही नहीं । तब राजे रजवाड़ों में ज़िंदा रहे तो आज की राजनीतिक पार्टियों में जब-तब प्रकट हो जाते हैं।

 महाराष्ट्र के कद्दावर नेता बाल ठाकरे के बेहद करीब थे उनके भतीजे राज ठाकरे लेकिन शिवसेना की कमान मिली उनके पुत्र उद्धव ठाकरे को। अजित पवार भी चाचा शरद पवार के बहुत प्रिय और खास लेकिन एक घड़ी ऐसी आई की पार्टी की दावेदारी मिली बेटी सुप्रिया सुले को। सुप्रिया सुलझी हुई नेता हैं लेकिन महाराष्ट्र में उनकी पकड़ कोई खास नहीं है। अजित पवार महाराष्ट्र के बाहर पहचान नहीं रखते लेकिन महाराष्ट्र में उनकी साख रही है लेकिन अब जब वे एनसीपी को तोड़कर जा चुके हैं साख तब भी बरक़रार रहेगी ? इससे पहले उद्धव की शिवसेना से टूटकर एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन चुके हैं औरअब अजित पवार उप-मुख्यमंत्री। भारतीय जनता पार्टी  ने महाविकास अघाड़ी के दोनों ही अंगों को छिन्न -भिन्न कर अपनी सत्ता की छतरी में ले लिया है।  इससे पहले भी चुनाव के तुरंत बाद सुबह-सुबह देवेंद्र फडणवीस के साथ मिलकर अजित पवार शपथ ले आए थे फिर शरद पवार बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा कर लाए थे। 2019 से चला महाराष्ट्र का घटनाक्रम उसकी सोच को और पुख्ता करने के साथ बरसों तक याद रखा जाने वाला साबित होगा।जनता इसलिए भी हैरत में है कि अभी तक तो वह शिवसेना के गद्दार विधायकों को ही सबक सिखाने वाली थी कि अब एक और सामने है। बड़ी दुविधा है कि कौन कम गद्दार है। 

प्रधनमंत्री ने भोपाल में यूनिफार्म सिविल कोड (यूसीसी) का भी ज़िक्र किया था और कहा था कि एक परिवार में दो कानून नहीं हो सकते। प्रधानमंत्री के ऐसा कहते ही उंघती  हुई मशीनरी में जैसे ताज़गी आ गई। टीवी बहसबाज़ परेशान थे कि जलता हुआ मणिपुर उनका ध्यान नहीं खींचता, महिला पहलवानों पर बात करने से सरकार और ब्रजभूषण सिंह की किरकिरी होती है ,बढ़ती आर्थिक खाई पर बात कर नहीं सकते। इस पर भी नहीं कि तेज बारिश ने शहरों को उधेड़ के रख दिया है और दिल्ली में यमुना का जलस्तर लाल किले को स्पर्श कर रहा है। नया नरेटिव कोई सेट हो नहीं रहा था और ऐसे में बिल्लियों के भाग से छीका टूटा और मिला यूनिफार्म सिविल कोड । ये और बात है कि सरकार खुद एक लॉ कमीशन का गठन 2018 में कर चुकी है जिसकी राय थी कि फिलहाल समान नागरिक संहिता न वांछनीय है और न संभव। आयोग के सुझाव में  बहुत महत्वपूर्ण बिंदु था कि सभी संहिताओं को लिंगभेद से मुक्त करने की ज़रूरत है। महिलाओं को उनके अधिकार देने की ज़रूरत ,शादी तलाक, संपत्ति, उत्तराधिकार के साथ गोद लेने के कानूनों में समानता और बदलाव क्रांतिकारी कदम साबित हो सकते हैं। इस मुद्दे पर सभी दलों संगठनों के साथ गंभीरता से चर्चा की बजाय इस बदलाव को यदि किसी बैल के सामने लाल कपड़े को हिलाने की तरह  किया जाएगा तब कानून तो बन जाएगा लेकिन नागरिकों में उसके प्रति भरोसे का भाव नहीं आएगा? शादी के संदर्भ में देखा जाए तो एक आस्था में वह पवित्र संस्कार है तो दूसरे में क़रार। कहीं लड़कियों को संपत्ति में हक़ दिया जा रहा है तो कहीं आज भी दहेज़ देकर कर्तव्य पूरा किया जा रहा है। बेशक एक देश एक कानून से किसे इंकार होगा लेकिन शादी, तलाक,विरासत में हक़ को लेकर कई समुदाय अपनी महिलाओं के साथ  अन्याय करते आए हैं। 

असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा ने अपना  कार्ड चल दिया है।  यूनिफॉर्म सिविल कोड से पहले राज्य अपने अपने कोड चला रहे हैं। यह प्रायोगिक भी हो सकता है। मुख्यमंत्री ने कहा है कि वे राज्य में बहुविवाह के खिलाफ कानून लाएंगे। इस सत्र में ऐसा नहीं कर पाए तो अगले साल जनवरी में यह काम हो जाएगा। मसले गंभीर हैं और केंद्र सरकार को प्रायोगिक उलझनों में पड़ने के बजाय गंभीरता से आगे बढ़ाना होगा। मुद्दा भले ही अलग हो मुख्यमंत्रियों की अलग चाल मणिपुर जैसी गलतियों में बदलते देर नहीं लगती। वैसे गोवा एक उदाहरण है जहाँ आज़ादी के बाद से यूनिफार्म सिविल कोड लागू है। ऐसा वहां पुर्तगाली क़ानून के बाद एकरूपता लाने के लिए किया गया था। कुछ अजीब प्रावधान यहां  भी हैं कि अगर 25 साल की उम्र तक संतान नहीं हुई तब पति दोबारा शादी कर सकता है ,तीस साल तक लड़का पैदा नहीं हुआ तब भी उस स्त्री का पति दूसरी शादी कर सकता है। अब कहा ये जा रहा है कि आदिवासियों को इससे अलग रखा जाएगा क्योंकि उत्तरपूर्व के राज्यों ने एतराज़ जता दिया है। पंजाब के लिए भी पुनर्विचार की बात स्वीकारी गई है जब इतने विरोधाभास जुड़ रहे हैं तो क्यों नहीं पहले विद्वान एक मसौदा बनाएं फिर बहस हो। अगर समान क़ानून भी यूं ही तुष्टिकरण की भेंट चढ़ेंगे तब पार्टी विथ द डिफरन्स  कही जाने वाला भाजपा किस तरह खुद को कांग्रेस से अलग करेगी जहां इंदौर की शाहबानो को मुआवज़ा दिलवाने की बजाय कानून में संशोधन कर दिया गया था?

दरअसल भाजपा इस मुद्दे को उठाकर आमजन में प्रचलित इस धारणा को धार देना चाहती है कि मुसलमानों में  बड़ा हिस्सा बेहद दकियानूसी है और  धर्मग्रंथों में कही बात को लकीर के फ़कीर की तरह मानता है। लोकतंत्र में बहुदलीय पार्टियों के साथ दिक्कत यह है कि सत्ता में आने की बाद भी वे  पाँचों साल विपक्ष में रहती हैं और पांचवें साल तो और भी ज़्यादा। देश हमेशा चुनावी मोड में ही नज़र आता है।अपने वोट बैंक को साधे रखने के लिए सरकारें देश की तरक्की को किस तरह प्रभावित करती हैं यह शोध का विषय हो सकता है। अभी तो यह एक के साथ एक फ्री की तर्ज़ पर आता है। मुसलमानों की दकियानूसी वाली बात पर लौटते हैं। रास्ता फिर  महात्मा गांधी की ओर देखने पर मिलता है क्योंकि बापू ही वे शख़्स रहे जिन्होंने गुलामी से आज़ाद हुए देश की देह पर दंगों के ज़ख्म देखे थे और लगातार लिख -बोल रहे थे। वे कूद गए थे उस दावानल में, जले ज़ख्मों पर मरहम लगाने। । गांधी कहते हैं ' सभी धर्म न्यूनाधिक सच्चे हैं। सबकी उत्पत्ति एक ही ईश्वर से है। फिर भी सब धर्म अपूर्ण  हैं क्योंकि वे हमें मनुष्य द्वारा प्राप्त हुए हैं और मनुष्य तो कभी पूर्ण नहीं होता।' इस  हिसाब से इस्लाम भी एक अपूर्ण धर्म है। लगभग यही बात उन्होंने गीता प्रेस के संस्थापकों से भी कही थी जो मतभेद का कारण बनी। बापू सनातन धर्म के  पैरोकार थे और नई सोच के वातायन हमेशा खुले रखते थे। गीता प्रेस ने गांधी की गीता पर आधारित अनासक्ति योग को छापने से मना कर दिया था। यह गीता के श्लोकों का सरल अनुवाद था जिसके मूल में था कि कर्म करते हुए निष्प्रभ या अनासक्त अवस्था में चला जाना ही अनासक्ति योग है। बापू गीता को इतिहास से जोड़कर नहीं देखते थे और गीता प्रेस की राय इससे ठीक उलट थी। 

कालांतर में एक बार फिर गांधी फिर यही सुझाव देते हुए नज़र आते हैं कि इस्लाम की नैतिक शिक्षाओं को समझने  के लिए ज़रूरी है कि पहले धर्म और इतिहास को अलग -अलग समझा  जाए। साथ ही पैगम्बर और ख़लीफ़ाओं के जीवन से जुडी ग़लत धारणाओं से मुक्त हो उनके नैतिक अतीत को तलाशा जाए। महात्मा गांधी  आगे कहते हैं मैं मनुष्य हूं  और ईश्वर से डरता हूं ऐसी किन्हीं भी परिस्थितियों में मुझे ऐसे तरीकों (पत्थर मार कर अपराधी की जान लेने या आंख के बदले आंख लेना ) की नैतिकता पर शंका करनी चाहिए। नबी के जीवन काल में और उस युग में चाहे कुछ भी प्रचलित रहा हो कुरान में इसका उल्लेख मात्रा होने से ऐसे विशेष दंड का समर्थन नहीं किया जा सकता। हर धर्म के हर नियम को पहले विवेक और व्यापक न्याय की अचूक कसौटी पर कसना होगा तभी उस पर संसार की स्वीकृति मांगी जा सकेगी। दरअसल बापू कितनी सरलता से लकीर के फ़कीर होने के खतरों को समझा जाते हैं। क्या इस तरह समझाने की इच्छाशक्ति का मन किसी का है। बदलाव डंडे के ज़ोर से लाने की मंशा के बजाय प्रेम और शांति की इच्छा से भी लाए जा सकते हैं। एक परिवार में दो कानून मोहब्बत की भाषा नहीं है। कानून की कोई एक किताब होनी चाहिए लेकिन परंपराओं की कोई एक किताब बनानी आसान नहीं होगी और हमारी सबसे बड़ी किताब ,हमारा संविधान इंसान की निजी आज़ादी और बराबरी को सबसे ऊपर और सुरक्षित रखता है। 

 


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