सबरीना का सवाल और ओबामा का जवाब

एक सीधा सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा कितनी भी सफल क्यों न रही हो। इस बीच पूछे गए एक सवाल और एक जवाब से क्या सरकार के मंत्रियों को इतना तल्ख़ हो जाना चाहिए? क्या मंत्रियों के जवाब आग में घी डालने जैसे ही नहीं थे ? सवाल अमरीकी पत्रकार सबरीना सिद्दीकी का था और जो जवाब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का।इन दोनों के बाद मचे हंगामे ने ज़्यादा सुर्खियां ली। इन प्रतिक्रियाओं ने एक देश के बतौर हमारी ख्याति में कोई चार चाँद नहीं लगाए हैं। विदेश नीति के हिसाब से भी ऐसे बयान भारत की कूटनीति से कतई मेल नहीं खाते। क्यों 75 डेमोक्रेट्स दौरे से ठीक पहले जो राष्ट्रपति जो बाइडन को लिख रहे हैं कि भारत से प्रेस की आज़ादी और मानव अधिकारों के सवाल पर भी बात की जाए। भले ही हमारे प्रधानमंत्री का वहां शानदार स्वागत हुआ लेकिन इन सबका एक साथ बोलना क्या महज़ इत्तेफ़ाक़ था या अमेरिका जो कहना चाह रहा था वह बड़े ही सलीके से दिया गया? बराक ओबामा के भले ही मोदीजी से 'तू -तड़ाक' वाले रिश्ते रहे हों लेकिन हैं तो वे भी एक डेमोक्रेट ही। सरकार की रक्षा में वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री सभी उतरे। सही रक्षात्मक बयान तो यह होता कि अमेरिकी प्रशासन से पूछा जाता कि यह क्या रवैया है कि एक ओर तो पलक-पांवड़े बिछाए जाते हैं और फिर पीछे से कांटे चुभाए जाते हैं। भारतीय मीडिया भी बस इन्हीं बयानों पर लकीर पीटने लगता है।  कौनसी बेबसी है जो न मीडिया और न नेता ऐसी हिम्मत जुटा पाते हैं कि भारत का पक्ष मज़बूती के साथ रखा जाए ?


 यह देखनाअजीब था कि जो रिपोर्टर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दौरे के कवरेज के लिए गए  थे, वे वहां के मॉल में घुसकर बड़ी और स्वस्थ गोभी को गोभा कह रहे थे और वहां के दाम की तुलना भारत से कर रहे थे। न्यूज़ चैनलों पर महंगाई को लेकर 'मोदी वर्सेस बाइडेन' की पट्टी चलाकर हिंदी पट्टी को बरगलाने का  सिलसिला भी खूब चलाया गया । सड़कों पर लगे विज्ञापन बोर्ड में 3-डी एड देखकर ये रिपोर्टर ऐसे चमत्कृत हो रहे थे जैसे एलिस किसी वंडरलैंड में। वे कह रहे थे कि प्रधानमंत्री मोदी का दौरा कैसे इस चमकदार दुनिया में रौशनी लाएगा क्योंकि ये चकाचौंध तो खोखली है और भारत कैसे चमक रहा है, वे उस पर भी रिपोर्ट दिखाएंगे। पत्रकार पहले भी प्रधानमंत्रियों  के साथ दौरों पर जाते रहे हैं लेकिन इस तरह की मनोरंजक रिपोर्टिंग का तजुर्बा बड़ा ही नया था।  

यात्रा के ठीक बीच में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक सवाल का जवाब क्या दिया, पूरा मीडिया 'फंस गए रे ओबामा' का ढिंढोरा पीटने लगा। अब की बार तो सरकार के मंत्री भी मोर्चे पर आ गए थे। एक अमेरिकी पत्रकार भी सोशल मीडिया की चपेट में आ गईं जिन्होंने  प्रधानमंत्री से भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर सवाल कर लिया था। ये और बात है कि व्हाइट हाउस ने भारतीय ट्रोल्स को हड़काते हुए पत्रकार का बचाव किया। क्या भारतीय मीडिया को इस तरह रिपोर्ट नहीं करना चाहिए था कि आखिर क्यों भारतीय प्रधानमंत्री को घेरा जा रहा है? बेशक हुकूमत का हर मंत्री बराक ओबामा  पर हमलावर रहा लेकिन सबके हमले एक ही लाइन पर थे कि जब वे अमेरिका के राष्ट्रपति थे तब उन्होंने छह मुस्लिम देशों पर हमले किए, तब कहां गया था इनका मुस्लिम प्रेम? ओबामा ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि अगर भारत में स्थानीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं की जाती तो पूरी आशंका है कि किसी न किसी मुकाम पर भारत टूटने लगेगा,यह न केवल मुस्लिम भारत बल्कि हिंदू भारत के हितों के भी खिलाफ होगा। बयान के बाद असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सर्मा ने ट्वीट किया कि "भारत में अनेक हुसैन ओबामा हैं और वाशिंगटन जाने से पहले हमें उन्हें देखना होगा। असम पुलिस अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से काम करेगी।" सर्मा ने यह ट्वीट एक पत्रकार को टैग कर लिखा था जिन्होंने उनसे पूछा था कि "क्या असम पुलिस अब भारतीय जनभावनाओं का निरादर करने के किये ओबामा को गिरफ्तार करने वाशिंगटन जाने वाली है।" वैसे बराक हुसैन ओबामा पहले अफ्रो-अमेरिकन राष्ट्रपति थे। श्वेत मां औरअश्वेत पिता की संतान। उनके पिता 1961 में अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने के लिए कीनिया से अमेरिका आए थे। वहीं विश्वविद्यालय में मां एना डुनहेम से मुलाकात हुई। 1963 में ही ओबामा के माता-पिता अलग हो गए। मां ने 1967 में दूसरी शादी की और इंडोनेशिया चली गईं। यहीं ओबामा के  बचपन के कुछ साल बीते थे । 


डुगडुगी मीडिया की दयनीयता का आलम यह है कि नेताओं की तरह उसके एंकर भी भारत को समझने में नाकाम हैं।ओबामा के लिए जवाब हो सकता था कि भारत में मुस्लिम भारत और हिंदू भारत जैसा कुछ नहीं है। इस गठजोड़ की इतनी बारीक परतें हैं कि किसी का भी सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता।कई धाराएं मिल-जुलकर एक साथ बहती हैं  यहां उन्नीसवीं सदी में बनारस पहुंचकर मिर्ज़ा गालिब कहते हैं- 'सोचता था इस्लाम का खोल उतार फेंकू, माथे पर तिलक लगा, हाथ में जपमाला लेकर गंगा किनारे बैठकर पूरी जिंदगी बिता दूं। फिर बीसवीं सदी के अंत में  भारत रत्न से सम्मानित शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खां ने (इस लिखने वाली  से ही एक साक्षात्कार में) कहा था - "बनारस में रस है। एक तरफ बालाजी का मंदिर, दूसरी ओर देवी का और बीच में गंगा मां। अपने मामू अली खां के साथ रियाज करते हुए दिन कब शाम ढल जाती है पता ही नहीं चलता था।" मारवाड़ में कायमखानी मुसलमान हैं जिनके रीति रिवाज राजपूतों से मेल खाते हैं। देश में न तो एक तरह के हिन्दू हैं ना एक तरह के मुसलमान। जॉन स्ट्रेची की 1891 में प्रकाशित किताब 'इंडिया' भारतीय मुसलमानों के बीच मौजूद जातिगत ऊंच -नीच का साफ़-साफ़ उल्लेख करती है। स्ट्रेची के मुताबिक मुसलमान इस्लाम के अनुसार नहीं रह रहे हैं। उन्होंने लिखा - अधिकतर मुसलमान अपने धर्म से अनभिज्ञ हैं और इस्लामी मूल्य-मान्यताओं से इस कदर अनजान कि उनकी गिनती हिन्दुओं के एक वर्ग के रूप में की जा सकती है। बलूच और पठान जैसी प्रभुत्वशाली नस्लें विदेशी मूल की हैं ,लेकिन अधिकतर मुसलमान उन स्थानीय हिंदू और अन्य कबीलों के वंशज हैं जिन्होंने बहुत समय पहले थोड़ी बहुत कमी-बेशी के साथ अपने शासकों के धर्म को अपना लिया था। "

दरअसल देश में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक जैसी कोई भी अवधारणा इतनी सरल रेखा में नहीं है जितनी इन दिनों कर दी गई है। सियासी दलों को  लगता है कि ऐसा करने पर इन्हें वोट जुटाने में आसानी होती है। पूरी दुनिया में सियासत यही खेल रचती है। यहाँ तक की स्वार्थ की सियासत करते हुए ये कई बेगुनाहों को तकलीफ़ के दलदल में धकेल देते हैं। छोटा राष्ट्र बड़े के हमले का शिकार हो जाता है और कोई देश अपनी प्रयोगशाला से कोरोना वायरस लीक कर देता है। सोचना केवल दुनिया के लोगों को है कि उनके लिए क्या सही है और कौन ग़लत। 
अमेरिका यात्रा पर लौटते हैं। बताया जाता है कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल पत्रकार वार्ता के लिए तैयार नहीं था लेकिन वहां के प्रतिनिधियों का दबाव था। पत्रकार सबरीना सिद्दीकी जो वॉल स्ट्रीट जर्नल के लिए व्हाइट हाउस कवर करती हैं, उनके सवाल ने भारत में तूफ़ान मचा दिया। सबरीना ने पूछा था, “आप और आपकी सरकार अपने देश में मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों में सुधार करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए क्या कदम उठाने को तैयार हैं?” प्रधानमंत्री ने जवाब में कहा था कि भारत के डीएनए में लोकतंत्र है और भारत किसी भी धर्म, जाति, रंग या लिंग को देखकर भेदभाव नहीं करता। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास ही उनकी सरकार का मूल आधार है।" प्रधानमंत्री ने तो जवाब दे दिया लेकिन सोशल मीडिया पर सबरीना को बुरी तरह ट्रोल किया जाने लगा। कहा गया कि वे 'पाकिस्तानी  इस्लामिस्ट'  हैं। उनके पिता का जन्म भले भारत में हुआ लेकिन वे पाकिस्तान चले गए थे। सबरीना मुस्लिम मानव अधिकार प्रोपेगेंडा का हथियार बनी हैं। देश के भीतर पत्रकारों पर अविश्वास और मुक़दमे कोई नई बात नहीं है। नई बात है व्हाइट हाउस प्रशासन का पत्रकार के हक़ में आना। प्रशासन ने सख्त रवैया अपनाते हुए कहा है कि प्रधानमंत्री से सवाल पूछने वाली पत्रकार का उत्पीड़न बिलकुल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा,इस तरह का व्यवहार लोकतंत्र के खिलाफ है। कुछ ऐसे ही सख्त बयान सरकार के मंत्रियों के भी होते जो ओबामा की बात को ख़ारिज करते उन्हें साबित नहीं। 





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

सौ रुपये में nude pose

एप्पल का वह हिस्सा जो कटा हुआ है