इंद्रप्रस्थ में महाभारत और राजदंड

महाभारत ग्रन्थ में इंद्रप्रस्थ नाम के एक नगर का उल्लेख है जिसे पांडवों ने बसाया था। उस शहर और उसके महल में हैरान कर देने वाला शिल्प और जादू था जो अच्छों-अच्छों को भ्रमित कर देता था। ऐसा लगता था जैसे आगे दीवार है लेकिन वहां से गुज़रा जा सकता था। जहाँ लगता कि आईना या दरवाज़ा है वह अभेद्य था । फ़र्श ऐसा कि पांवों के नीचे झरने बह रहे हों ,और अर्श हज़ारों दीयों और कंदीलों की रौशनी से नहाया हुआ। झूमर नई नक्काशी और चांदनी का मिलाप थे। इसी चकाचौंध में जब दुर्योधन का पांव फिसला तो द्रौपदी व्यंग्य से कह उठी -"अंधे का पुत्र अंधा! " विद्वान् कहते हैं यही महाभारत की जड़ था। दरअसल इंद्रप्रस्थ पहले खांडवप्रस्थ का खंडहर था जिसे शकुनि ने पांडवों को शांत कर लेने के लिए दे दिया था। बाद में श्रीकृष्ण और अर्जुन ने इसे विश्वकर्मा और मयासुर के सहयोग से स्वर्ग से सुंदर बना दिया था। विश्वकर्मा को दुनिया का पहला आर्किटेक्ट भी कहा जाता है। 

मयासुर ने अपनी माया से उस  खंडहर में पड़ा दिव्य रथ ,गदा ,धनुष और अक्षय गांडिव अर्जुन को दिया था और कहा था की इस तरकश के तीर कभी ख़त्म नहीं होंगे। ये सब महाभारत के युद्ध में निर्णायक साबित हुए। यहां पाठक अपने हिसाब से आज के दौर के कौरव पांडव चुन सकते हैं।इन दिव्य वस्तुओं  जैसा कुछ नए बने संसद भवन में तो नहीं है लेकिन जो शैली और भव्यता की कहानियां छन-छन कर आ रही हैं ,कमोबेश ऐसी ही है। एक सुनहरे राजदंड  का भी ज़िक्र है जिसके बारे में बताया जा रहा है कि इसे अंग्रेज़ों ने पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल को सौंपा था जो शायद चौदहवीं सदी का है। यह सुनहरा राज दंड भी अब सभापति के समीप रखा रहेगा।सवाल यही कि क्या अब हम लोकतंत्र से राजतंत्र में जा रहे हैं? इंद्रप्रस्थ आज की दिल्ली है। तब इसे इंद्र के स्वर्ग की तरह ज़मीन पर बनाया गया था। नया संसद भवन भी उतना ही भव्य और  शानदार है लेकिन कांग्रेस समेत बीस विपक्षी दलों ने समारोह का बहिष्कार किया  है। कांग्रेस का कहना है कि संसद अहंकार की ईंटों से नहीं संवैधानिक मूल्यों से बनती है। राष्ट्रपति से संसद का उद्धघाटन न करवाना और न ही उन्हें समारोह में बुलाना यह देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद का अपमान है। यह वाकई हैरानी भरा है कि ऐतिहासिक लम्हों का साक्षी होने की बजाय टूटा -फूटा विपक्ष एक होकर बैठ गया है। क्या विपक्ष का यह कदम उसे नैतिकता के भी किसी ऊंचे पयदान पर बैठा रहा है ? 

बेशक वह भारतीय जनता पार्टी का मास्टर स्ट्रोक था जब द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया था लेकिन अब यह विपक्ष का मास्टर स्ट्रोक मालूम हो रहा है क्योंकि राष्ट्रपति ही लोकसभा और राज्यसभा की सरंक्षक हैं और संसद इन तीनों से मिलकर ही बनती है। वे ही सत्र आहूत करती हैं और सत्रावसान भी। प्रधानमंत्री चार साल पहले भवन का शिलान्यास कर चुके थे ,उद्घाटन राष्ट्रपति से होना चाहिए था। यह हमारा सौभाग्य है कि राष्ट्रपति आदिवासी और महिला हैं लेकिन इस पद पर कोई भी होता, उन्हें ससम्मान निमंत्रित किया जाना चाहिए था। कांग्रेस और अन्य दलों को यह कहने का मौका स्वयं भाजपा ने दिया है वे  टोकनिज़्म की राजनीति करते हैं ,असल में वह आदिवासी या दलित का कोई सम्मान नहीं करती अन्यथा कोई कारण नहीं था जो उन्हें नहीं बुलाया जाता। कल जब यह भव्यता उद्घाटित होगी तो बिना राष्ट्रपति और विपक्ष के यह क्या भाजपा का अपना कार्यक्रम नहीं लगेगा। हम ही हम हुए तो क्या हम हुए। वैसे  भाजपा ने कई तर्क रख दिए हैं जब छत्तीसगढ़,असम ,तमिलनाडु और मणिपुर की विधानसभाओं के उद्धघाटन में राज्यपाल आमंत्रित नहीं थे या संसद के केंद्रीय पुस्तकालय के उद्घाटन में भी राष्ट्रपति को नहीं बुलाया गया था।

पक्ष और विपक्ष जब राष्ट्रपति को बुलाने और ना बुलाने को लेकर लड़ रहे हैं तब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू गुरूवार को रांची में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाय चंद्रचूड़ के साथ एक कार्यक्रम में थीं। वहां हिंदी में भाषण देने पर उन्होंने  जस्टिस चंद्रचूड़ की तारीफ भी की। रांची के खूंटी गाँव में स्वयं सहायता महिला सम्मलेन में  उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज में पैदा होना कोई बुराई नहीं है। मैं ओडिशा की हूँ लेकिन खून झारखंड का है। मेरी दादी यहीं के गाँव की थीं और जब मैं छोटी थी मेरी दादी मुझे पांच किलोमीटर दूर महुआ चुनने ले जाती थीं। जब खाना नहीं मिलता था तो हम लोग महुआ उबालकर खाते थे। तब हमें महुआ के किसी और इस्तेमाल का पता नहीं था, अब तो उसी महुआ से केक और कई उत्पाद बनने लगे हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद मैं पूरे देश में घूमी हूँ और आदिवासी अब प्रगति के पथ पर हैं और झारखंड के आदिवासी बाकी राज्यों के मुकाबले अधिक सशक्त हैं। यहाँ लगे स्टाल में आदिवासी महिलाओं के उत्पाद देखने के दौरान मैंने उनमें आत्मविश्वास देखा। मैंने उनमें अपनी झलक देखी। सवाल बना रहेगा कि देश की बड़ी आबादी को इतने प्रभावी ढंग से सम्बोधित करने वाली महामहिम राष्ट्रपति को इस मौके पर आखिर न बुलाने की चूक क्यों हुई?

जो तीन दल सरकार के साथ हैं उनमें बहुजन समाज पार्टी ,तेलगुदेशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल (सेक्युलर)हैं। बसपा से  मायावती समारोह में नहीं जा रही हैं ,इसकी वजह उन्होंने पार्टी में होने वाली समीक्षा बैठक को बताया है। वे अपने ट्वीट में कह चुकी हैं कि बहिष्कार सही नहीं है। सरकार ने इसे बनाया है और उसे ही उद्घाटन का अधिकार है। टीडीपी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू भी शामिल नहीं होंगे  लेकिन उनकी और से पार्टी के राज्यसभा सांसद शिरकत करेंगे। जेडीएस के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवीगौड़ा की टिप्पणी बिलकुल अलग है। वे कहते हैं -"मैं समारोह में जाऊंगा। यह देश की धरोहर है , करदाता का पैसा है। यह कोई  भाजपा या आरएसएस का निजी कार्यालय नहीं है। " देश के गृहमंत्री अमित शाह ने कांग्रेस को खुली चुनौती  दे दी है कि वह अब भी प्रधनमंत्री मोदी को स्वीकार नहीं पाई है। संसद में उन्हें बोलने नहीं देती है। वे कर लें बहिष्कार लेकिन जब वे जनता के सामने वोट लेने जाएंगे कोंग्रेस को उतनी सीटें भी नहीं  मिलेंगी जितनी अभी उनके पास हैं। नरेंद्र मोदी तीसरी बार 300 से ज़्यादा सीटें जीतकर फिर प्रधानमंत्री बनेंगे। पीएम ने भी विपक्ष पर निशाना साधते हुए कहा कि ऑस्ट्रेलिया में आयोजित उनके कार्यक्रम में वहां का समूचा विपक्ष मौजूद था। बात सही है लेकिन यह भी सच्चाई है कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीय समाज अब बड़े वोट में तब्दील हो चुका है। भारत के विपक्ष ने इसे राष्ट्रपति पद की गरिमा और फिर आदिवासी समुदाय से जोड़कर देखा है जो कि कुल आबादी का नौ से दस फ़ीसदी हैं। 

विपक्ष को गोलबंद करने का श्रेय अगर किसी को दिया जा सकता है तो वह कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हो सकते हैं। उन्होंने 22 मई को कहा था कि प्रधानमंत्री ने केवल चुनावी फायदे के लिए दलित और आदिवासी राष्ट्रपति का चुना जाना सुनिश्चित किया था क्योंकि शिलान्यास के समय तत्कालीन राष्ट्रपति श्री कोविंद को नहीं बुलाया और उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को। उसके बाद से इस मुद्दे को जैसे पंख लग गए। तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओबेरॉयन लगातार अपने लेख और इंटरव्यू में  कह रहे हैं प्रधानमंत्री ने खुद 2014 से कई मौकों पर लोकसभा का उपहास किया है। इन नौ सालों में सांसदों को  वोट विभाजन के अधिकार से वंचित किया। एक सांसद भी चाहे तो वह पर्ची या इलेक्ट्रॉनिक मशीन के ज़रिए मत विभाजन कर सकता है लेकिन उनकी आवाज़ अनसुनी की गई।  तृणमूल को उद्घाटन की तारीख़ पर भी एतराज़ है जो वी डी सावरकर की सौंवी जयंती  का दिन है। उनका कहना है कि नई संसद का उद्घाटन स्वतंत्रता दिवस,गणतंत्र दिवस या गाँधी जयंती के दिन होना चाहिए था। इस बार  महाभारत इंद्रप्रस्थ में छिड़ी है।

  


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