एग्जिट पोल जो एक्जैक्ट साबित हुए तब


अगर जो कर्नाटक विधानसभा चुनाव से जुड़े एग्जिट पोल्स सही साबित होते हैं तो मानकर चलिये कि सरकार चलाने में और फिर चुनाव प्रचार में बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिसे नहीं होना चाहिए था। संदेश साफ़ होगा कि बड़े नेता मैसूर पाक खाते हुए स्थानीय लोगों के दुख-दर्द बांटे तो ठीक लेकिन अपना एजेंडा लादेंगे तो वह जनता को मंज़ूर नहीं होगा। बहुत संभव है कि नतीजों के बाद ये बड़े-बड़े दल अपने प्रचार अभियान और शैली पर गंभीर चिंतन करेंगे। अगर बहुमत कांग्रेस को मिलता है, जैसा कि अधिकांश एग्जिट पोल्स दिखा रहे हैं, तब शायद बहुत कुछ पुनर्विचार के लायक होगा। अव्वल तो कभी भी कोई दल अपने किसी दल या संगठन को सर्वशक्तिमान से जोड़ने की जुर्रत नहीं करेगा, कभी धमकी की जुबां में बात नहीं करेगा कि "अगर आपने वोट नहीं दिया तो आपको प्रधानमंत्री का आशीर्वाद नहीं मिलेगा", तीसरे, कभी यह समझने में भी भूल नहीं करेगा कि चुनाव में स्थानीय नेतृत्व की भूमिका होती है, केवल केंद्रीय ताकत की नहीं। गुजरात अपवाद हो सकता है क्योंकि वहां का स्थानीय नेतृत्व ही अब केंद्र में है। गुजरात में भी भारतीय जनता पार्टी ने अपने तमाम बड़े स्थानीय नेताओं को बदलकर केंद्र के दम पर चुनाव लड़ा था। अगर जो एग्जिट पोल अपने आंकड़ों पर खरे नहीं उतरते  हैं तब यह दंभ कायम रखने का समय होगा जिसे भविष्य में चार अन्य प्रदेशों राजस्थान, छत्तीसगढ़,तेलंगाना और मध्य प्रदेश में भी दोहराया जाएगा। यहाँ पांच महीनों में ही चुनाव होने हैं। 

बीते महीने ही शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व की सौंवी जन्मशती मनाई गई। वह आवाज जो कर्नाटक के बेलगाम से चलकर मध्यप्रदेश में आकर बसी और फिर   मालवा के देवास से पूरे देश के अध्यात्म को कुमार जी के संगीत ने जैसे नए सुर दे दिए। क्या कर्नाटक के नतीजे भी देश पर कुछ ऐसा असर डालने वाले हैं? वे 2024 के आम चुनावों के लिए भी किसी संकेत का काम करेंगे?दरअसल, कर्नाटक चुनाव को दूर से देखने वालों को यही समझ आया कि आखिर में जब कुछ नहीं बचता है तो भगवान की शरण में ही जाया जाता है। सांसें वेंटिलेटर पर हों तब डॉक्टर भी ईश्वर का ही नाम लेने के लिए कहता है। भाजपा भी बजरंग बली की शरण में गई। संप्रदायवाद के कार्ड को इतनी मुस्कुराहट के साथ खेलने का घमंड किसी को नहीं होना चाहिए। शायद कर्नाटक की जनता को यह समझ आ गया था कि उनकी आस्था से खेला जा रहा है और वे इस्तेमाल हो रहे हैं। यूं प्रधानमंत्री को ज़हरीला सांप कहना भी अनुचित था लेकिन जनता ने बता दिया कि यह हमारे राज्य का चुनाव है और यहां खामखां के संबोधन केवल इसलिए नहीं चलेंगे कि आप दिल्ली से आए हैं। चुनाव में जीतने का हक केवल उसे होना चाहिए जो उनकी दुरूह जिंदगी को आसान करे। वैसे आठ प्रमुख एग्जिट पोल्स का औसत लिया जाए तो वह 110 से 120 सीटें कांग्रेस को देता है जो बहुमत के जादुई आंकड़े 113 को पार कर सकता है। भाजपा 90 के आसपास और जनता दल (सेक्युलर) को 22 के क़रीब सीटें मिलना बताया जा रहा है। सीटों में हल्की शिफ्टिंग भी हुई तो पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवीगौड़ा का जनता दल (सेक्युलर) किंग मेकर की भूमिका में आ सकता है। पिछले चुनावों में यही सब हुआ था। 

2018 में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ा दल थी लेकिन कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) ने मिलकर सरकार बनाई। एक साल बाद 'ऑपरेशन लोटस' चला। सरकार के 17 विधायक टूटकर भाजपा में चले गए। येद्दिरप्पा के नेतृत्व में सरकार बनी। एक साल पहले उन्हें भी बदलकर बसवराज बोम्मई को सीएम बना दिया गया। फिर राज्य में नफ़रत की भाषा की सुनामी आ गई। सांप्रदायिक मुद्दों को उछाला गया, शायद येद्दिरप्पा ने अपने नेतृत्व में ऐसा होने देने से इंकार कर दिया था। यह सच है कि दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने अपने साक्षात्कारों में नफ़रत और धर्म की सियासत में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी। शायद वे कर्नाटक की जनता का मूड जानते थे। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में बजरंग दल पर प्रतिबन्ध का ज़िक्र किया तब प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीधे उसे बजरंग बली से जोड़ दिया और चुनाव में बटन दबाने से पहले बजरंग बली को याद करने की बात कह डाली। नतीजे अगर कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत देते हैं तो साफ़ हो जाएगा कि कर्नाटक ने बजरंग दल और बजरंग बली के जोड़ का कोई नोटिस न लेते हुए रामभक्त हनुमान को बहुत ऊपर और इन सबसे अलग ही रखा। हार यह भी बयान करेगी कि येद्दिरप्पा जैसे अनुभवी नेता को सीएम पद से हटाने का फैसला भी जनता को पसंद नहीं आया। येद्दिरप्पा ने ही भाजपा की बुनियाद इस राज्य  में रखी थी। तब क्या राहुल गांधी को सांसदी से हटाने या फिर सोनिया गाँधी द्वारा अपने भाषण में कर्नाटक की सम्प्रभुता पर बात कहना मुद्दा बन गया? 

सोनिया गांधी ने हुबली की एक सभा में कहा था-"कांग्रेस किसी को भी कर्नाटक की प्रतिष्ठा, सम्प्रभुता या अखंडता के लिए खतरा पैदा नहीं करने देगी। " जवाब में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने भाषण के उस हिस्से को ट्वीट करते हुए कहा कि सोनिया गांधी जी आपने कर्नाटक की सम्प्रभुता का उल्लेख करके भारत को विभजित करने की कांग्रेस की गहरी साज़िश को उजागर किया है।" चुनाव आयोग ने तत्परता से पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को सम्प्रभुता से जोड़ने पर नोटिस जारी कर दिया था। हालाँकि केंद्रीय मंत्री खुद दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान "देश के गद्दारों को..." जैसे नारे लगा चुके हैं। शायद दिल्ली के बाद कर्नाटक की जनता का मन भी इन मुद्दों को स्वीकारने का नहीं रहा- एग्जिट पोल् तो यही इशारा करते हैं। कांग्रेस ने राहुल गांधी के निष्कासन को भी राज्य में चुनावी मुद्दा नहीं बनाया। न ही भाजपा ने उस बयान को जिसके कारण उन पर मानहानि का मुकदमा चलाया गया। टीवी प्रवक्ताओं ने ज़रूर उन्हें दोषी कहते हुए बहस पर हावी होने की कोशिशें कीं। चुनाव यह भी बताता है कि कई फ़र्ज़ी मुद्दे बनाने की कोशिश मीडिया द्वारा की जाती है। लोकतंत्र की शक्ति बनी रहे इसके लिए यह खुलासा होना भी ज़रूरी है कि इन ज़हरीली बेलों को हरा कौन रखता है, ये कहाँ से पल्ल्वित और पोषित होती हैं ? 

नतीजों का ऊँट किस करवट बैठेगा, इसके संकेत नोएडा के राष्ट्रीय और गोदी मीडिया कहे जाने वाले चैनलों के व्यवहार से भी मिलते  हैं। प्रचार के  दिनों में पीएम की रैलियां छाईं रहीं लेकिन एग्जिट पोल के बाद सब कुछ एक्सिट हो गया है। अब ज़िम्मेदारी पार्टी अध्यक्ष और स्थानीय नेताओं की है। यह रणनीति अच्छी है कि जीत पर सेहरा बांधो और हारने की आशंका में अपना चेहरा गायब कर दो। अकसर देखा गया है कि प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार थमने के बाद भी ऐसे इवेंट में शामिल हो जाते हैं जो लगातार टीवी पर मतदान के दिन भी लाइव दिखाया जाता है। इस बार मतदान के दिन वे राजस्थान के नाथद्वारा में थे जहाँ उन्होंने अपनी सरकार के काम भी गिनाएं और गहलोत सरकार पर तंज़ भी किये कि ये कैसी सरकार है जिसके विधायकों को सीएम और सीएम को विधायकों पर भरोसा नहीं। कर्नाटक में कांग्रेस भी भाजपा से सीख रही है। प्रियंका गांधी ने प्रचार थमने के बाद कर्नाटक के पड़ोसी राज्य तेलंगाना में युवाओं की बड़ी सभा को सम्बोधित किया। बहरहाल नतीजे जो भी हों, कर्नाटक की जनता ने अपना मत दे दिया है। कर्नाटक देश की अर्थव्यवस्था को टेका लगाने वाला चौथे नंबर का राज्य है। जनता तुलनात्मक रूप से उत्तर भारत के राज्यों से ज्यादा  जागरूक और समृद्ध है। यहां चुनाव बड़े नेताओं की सांचे में ढली मशीनरी की बजाय स्थानीय मुद्दों को आधार बनाकर लड़ा जाए, यह सबक भी जनता ने नेताओं को देने की कोशिश की है। 'चालीस परसेंट सरकारा' का नारा गाँव गाँव में लगा। एक सर्वेक्षण  के मुताबिक 40 फीसदी ने भ्रष्टाचार, 19 फीसदी ने विकास और 26 फ़ीसदी ने पार्टी और प्रत्याशी को देखकर मत दिया। कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार ही प्रमुख मुद्दा था। भाजपा के बड़े नेताओं को उम्मीद थी कि ध्रुवीकरण का पत्ता, जिसे वे तुरुप का इक्का भी मानते हैं, उन्हें हारने नहीं देगा यह भी नतीजों में साफ़ हो जाएगा और फिर बदलेगी देश की सियासत की दिशा।


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