कर्नाटक के नतीजे नहीं लिखेंगे 2024 की नई गाथा

यह बहुत अजीब था कि जिस दिन कर्नाटक की जनता मतदान करने जा रही थी, ठीक उसी दिन राजस्थान में कांग्रेस के बागी नेता ख़म ठोंक रहे थे। कभी प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष और पूर्व उप उप मुख्यमंत्री रहे सचिन पायलट ने अपने ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री की राजनीति पैसों के दम पर चलती है, इनकी नेता सोनिया गांधी नहीं बल्कि वसुंधरा राजे सिंधिया हैं और इसीलिए ये मेरे कहने के बावजूद वसुंधरा सरकार के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार की जांच नहीं कर रहे हैं। पायलट ने राजस्थान लोक सेवा आयोग को भंग किये किए जाने की मांग की जो एक संवैधानिक इकाई है। अपनी ही सरकार के खिलाफ अजमेर से जयपुर की पदयात्रा निकाली। इससे पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कह चुके थे कि सचिन के नेतृत्व में विधायक दस-बीस करोड़ रूपए ले चुके हैं और उनकी सरकार बचाने में वसुंधरा राजे सिंधिया का योगदान है। पायलट को 'निकम्मा' और 'नालायक' सम्बोधन वे पहले ही दे चुके हैं। पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ धरना और प्रदर्शन सब कर चुके हैं। कर्नाटक में मतदान के दिन वे अपने पंद्रह विधायकों के साथ अपनी ताकत दिखा रहे थे जिनमें सरकार के तीन मंत्री थे। अब सवाल यह उठता है कि सड़क पर आ चुके इस घमासान को कांग्रेस क्यों नहीं सुलझा पाती?अगर कोई आलकमान है तो वह इतना लाचार क्यों है? सीधी सी बात है कि जनता ने विधायक चुने और विधायकों ने अपना नेता चुन लिया। यही लोकतंत्र भी होता लेकिन पता नहीं कौन से वादे और क्या गणित पार्टी के भीतर काम करता है कि कर्नाटक में बड़ी जीत का जश्न भी तमाशे सा ही नज़र आया। कर्नाटक के दो बड़े नेताओं में भी कांग्रेस इसी उलझन की शिकार मालूम हुई और अब भी साफ नहीं है कि किन बिंदुओं पर दो बड़े नेताओं के बीच सहमति बनी। पहले-पहल यह राजस्थान में भी एक दरार ही थी लेकिन अब बड़ी खाई में बदल चुकी है। 

राजस्थान में अब कांग्रेस के विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी नहीं बल्कि सचिन पायलट हैं और कांग्रेस के तमाम बड़े नेता और आलाकमान टुकुर-टुकुर देखते रहने के लिए बाध्य। राजस्थान में दो साल से यह कीचड़ एक दूसरे पर उछाला जा रहा है ।पायलट पक्ष में होकर भी विपक्ष का विमान उड़ा रहे हैं। 

कर्नाटक की जनता ने तो अपना दिल ही  निकाल कर कांग्रेस की झोली में डाल दिया है लेकिन उसने अपना नेता चुनने में ही जनता की परीक्षा ले ली। ऊपर से तर्क यह है कि बड़ा जनादेश है, सोच-समझकर फैसले लिए जाएंगे। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को सीएम बनाने से पहले क्या भाजपा ने दस दिन नहीं लिए थे? हमारी सरकार का गठन मंथन के बाद होगा। यह भी बड़ा दिलचस्प है इस पार्टी में कि राज्य के नेता दिल्ली तलब कर लिए जाते हैं और फिर कभी ये कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को मिलते हैं तो कभी राहुल गांधी को और फिर राहुल गांधी खड़गे को। सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार दोनों को राज़ी रखने की चाहत के बीच भोंपू मीडिया खूब खबरें बनाता रहा। वह कहने लगा कि कांग्रेस इतने बड़े जनादेश को संभाल नहीं  पा रही है। यूं सिद्धारमैया के पक्ष में ज़्यादा विधायक बताए जाते हैं। वे पांच साल तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे हैं और अच्छे प्रशासक माने जाते हैं। 

शिवकुमार को शेष भारत की जनता ने कांग्रेस की सरकारें टूटने और तोड़ने से बचाने के लिए लड़ते-भिड़ते देखा है। आज की सियासत सड़क की बजाय जिस 'रिसोर्ट पॉलिटिक्स' में पड़ गई है उसमें शिवकुमार माहिर माने जाते हैं। वे संकट मोचक भी कहे जाते हैं। लोकतंत्र के इस दौर में यह दुविधा काफी देखी गई है कि सरकार केवल मतदान से नहीं बल्कि विधायकों को बाड़े में बंद कर, ईडी, सीबीआई,आईटी के दबाव और नए-नए प्रलोभनों के साथ बचाई और बनाई जाती हैं।  मतदाता सर्वशक्तिमान होकर भी सियासत के इस खेल का केवल एक मोहरा बनकर रह जाता है। अच्छी बात यह है कि इस बार कर्नाटक में जनता ने इसकी कोई गुंजाईश नहीं रखी है। बेहद शांतिपूर्वक और इतना ज़्यादा मतदान किया तथा एक भी पोलिंग बूथ पर दोबारा मतदान की कोई शिकायत नहीं मिली। कांग्रेस की जीत में बोम्मई सरकार के प्रति आक्रोश और उनके पांच वादों ने आम जनता को काफी प्रभावित किया। कांग्रेस की  पांच गारंटी योजनाओं में जनता को भरोसा हुआ जिसमें महिलाओं को हर माह दो हज़ार रूपए, बेरोज़गार स्नातक को तीन हज़ार और डिप्लोमाधारी को डेढ़ हज़ार रु., गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वालों को हर माह दस किलो चावल ,महिलाओं को बसों में मुफ्त यात्रा और हर परिवार को हर महीने 200 यूनिट बिजली फ्री देने की बात थी। 

सिद्धारमैया जब मुख्यमंत्री (2013-18) थे तब उनकी अन्न भाग्य स्कीम के तहत सात किलो चावल दिया जाता था जिसे बाद में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने चार किलो में तब्दील कर दिया था। इसके अलावा कांग्रेस ने 40 प्रतिशत कमीशन खाने वाली सरकार के ख़िलाफ़ अभियान चलाते हुए 'पे सीएम' स्लोगन के पोस्टर चिपकाए। पोस्टर चिपकाते हुए जब कांग्रेस कार्यकर्ता गिरफ्तार होने लगे तब सिद्धारमैया और शिवकुमार खुद सड़कों पर उतरे। इसके अलावा दोनों ने बातचीत के वीडिओ भी जारी किये जो ये संदेश दे रहे थे कि हमारे बीच सब ठीक है। भारत जोड़ो यात्रा में भी दोनों नेताओं को राहुल गांधी ने एक साथ दौड़ाया था। अब अगर जो कर्नाटक की राह भी राजस्थान सी हुई तो जिन पांच राज्यों में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं, कांग्रेस के लिए खासी मुश्किलें आ सकती हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत स्वास्थ्य, बिजली और महंगाई से राहत की तमाम योजनाएं ला रहे हैं लेकिन दो नेताओं की लड़ाई में सब पर पानी फिर रहा है। माना कि कर्नाटक में फैसला लेने से पहले दूध की जली कांग्रेस छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रही है लेकिन कहीं छाछ कसैली ही न हो जाए। 

पांच राज्यों में जहां साल के अंत में चुनाव होने हैं उनमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। दोनों ही राज्यों में कांग्रेस हल्के लाभ में नज़र आती है। मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार के साथ बिजली-पानी की समस्या शहरों में भी है। लाड़ली बहन योजना में 1500 रुपए चुनाव से ठीक पहले पाने के लिए रिकॉर्ड रजिस्ट्रेशन हुए हैं। सरकार को जब कोई चीज़ पहुंचानी होती है तब उसकी मुस्तैदी देखी जा सकती है। कांग्रेस की वापसी हो सकती है क्योंकि एक तबके को लगता है कि कमलनाथ सरकार ठीक चल रही थी लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया बागी हो गए। राजस्थान में सचिन अभी गए नहीं हैं। वे आँध्रप्रदेश के जगन रेड्डी की तरह अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ मुद्दे उठाकर सत्ता में आने की रणनीति बना रहे हैं। बहरहाल, तेलंगाना में भारतीय राष्ट्र समिति के चंद्रशेखर राव पिछले दो बार से सीएम हैं। कांग्रेस दूसरे और भाजपा तीसरे नंबर की पार्टी है। मिज़ोरम में मीज़ो नेशनल फ्रंट की सत्ता है जहां 40 विधानसभा सीटें हैं। यहाँ भी कांग्रेस दूसरे और भाजपा तीसरे नंबर का दल है। देखा जाए तो इन पांच राज्यों में कांग्रेस की स्थिति भाजपा से बेहतर है लेकिन कर्नाटक के नतीजे 2024 में नरेंद्र मोदी को भी चुनौती दे पाएंगे?   

इसका जवाब फ़िलहाल नहीं होगा क्योंकि राज्य का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है और आम चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर। बेशक मोदी ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक का चुनाव इससे उलट करते हुए अपने चेहरे पर लड़ा जो सीटों में तब्दील नहीं हुआ लेकिन उसने अपना 36 फ़ीसदी का वोट शेयर बनाए रखा है। नतीजों में कांग्रेस को मिली 135 सीटों ने ज़रूर नफ़रत के एजेंडे को धूल चटाई है । प्रधानमंत्री ने बजरंगबली को बजरंग दल से जोड़ दिया लेकिन अंजनी पुत्र हनुमान की कृपा कांग्रेस पर हो गई और उसे संजीवनी बूटी भी मिल गई। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बयान कि कांग्रेस सत्ता में आई तो कर्नाटक दंगों की चपेट में रहेगा, तो भी जनता ने इस बात को कोई तवज्जो नहीं दी। हिजाब, हलाल, अज़ान और इकोनॉमिक जेहाद जनता का रुख नहीं बदल सके। चिकमंगलुर से विधायक और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि, जो सिद्धारमैया को 'सिद्धारामुल्ला खान' कहते थे, चुनाव हार गए। वे सिद्धारमैया को हलाल फूड, इकोनॉमिक जेहाद का जनक बताते थे। हार के बाद आया उनका स्पष्टीकरण बड़ा ही रोचक है कि यह पार्टी की वैचारिक नीतियों की नहीं, मेरी निजी हार है। साफ़ है कि इन वैचारिक नीतियों को कंधे पर लेकर चलना ही है। दक्षिण में प्रवेश का सपना दिखाने वाला भाजपा का दुर्ग भले ही ढह गया हो लेकिन उत्तर भारत को 24 के चुनाव में क़ाबू करने के लिए पार्टी इसी नक़्शे कदम पर चलेगी। महाराष्ट्र व बिहार में विपक्ष अभी  सशक्त दिखाई दे रहा है। दिल्ली, पंजाब व पश्चिम बंगाल में आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस से समझौता नतीजे बदल सकता है। सूरत ए हाल और भी बदल सकती है यदि पूरे देश में विपक्ष के एक-एक उम्मीदवार भाजपा के ख़िलाफ़ खड़े हों जैसे 1989 में कांग्रेस के खिलाफ़ हुए थे। फिर तिलस्म टूटने में वक्त नहीं लगेगा राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दों की कोई कमी नहीं कर रखी है


मोदी सरकार ने लेकिन उनकी पार्टी लड़ती जी जान से है। 

(आज देशबन्धु समाचार पत्र में प्रकाशित)

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