लक्ष्मण रेखाओं की कैद से आज़ाद हो गए किरन रिजिजू


पूर्व कानून मंत्री किरन रिजिजू (51)की अब तक की कहानी को थोड़े में समेटा जाए तो अरुणाचल प्रदेश के छोटे से गाँव नाखु में जन्मा एक बच्चा जिसे खेलों से बहुत लगाव था और जिनके पिता अरुणाचल प्रदेश की पहली  विधानसभा के पहले अध्यक्ष (प्रोटेम स्पीकर) रहे। कानून में रूचि उन्हें विरासत में मिली और खेल तो  पसंद रहा ही इसीलिए कानून से पहले वे खेल मंत्री थे। दिल्ली के हंसराज कॉलेज से कानून की डिग्री लेने के बाद 33 की उम्र में ही वे अरुणाचल से लोकसभा सदस्य चुन लिए गए। अपने क्षेत्र से जुड़े मुद्दों पर जोशीली बहस करते हुए , उन्हें संसद में सबने देखा। बहुत कम लोग जानते हैं कि रिजिजू कुछ समय के लिए कांग्रेस में भी रहे। यह तब की बात है जब कांग्रेस के उम्मीदवार ने उन्हें लोकसभा चुनाव में हरा दिया था। फिर वे भाजपा में शामिल हो गए और 2014 की मोदी लहर पर सवार होकर संसद सदस्य बने । दो साल पहले वे देश के 34 वें कानून मंत्री बने। उनसे पहले रवि शंकर प्रसाद इस पद पर थे जिन्हें वकालत का लम्बा अनुभव था। हिंदी पर पकड़ अच्छी होने से रिजिजू का भाजपा और उनके संगठनों के बीच  संवाद बढ़िया रहा लेकिन सुप्रीम कोर्ट से उनका संवाद जिस तल्ख़ अंदाज़ से होकर, गरिमा की सारी हदें लांघता गया, ऐसी दूसरी मिसाल नहीं मिलती है। किरन कक्षा का ऐसा लड़का साबित हुए जो नया-नया आया और अपने ही स्कूल के पुराने हिसाब -किताब से चलता रहा । नतीजा 22 महीने के कार्यकाल के बाद कानून मंत्रालय का पद उनसे छिन गया। 

रिजिजू से कानून मंत्रालय लेकर उन्हें सीधे जमीन (भू विज्ञान मंत्रालय) से जोड़ दिया गया है। बेशक यह पदोन्नति नहीं कही जाएगी लेकिन आखिर सरकार ने उन्हें पद से हटाया क्यों ? ना केवल हटाया बल्कि अब यह विभाग सीधे प्रधानमंत्री के नियंत्रण में होगा। सवाल यह भी है कि न्याय पालिका के खिलाफ जो लगातार तीखे बयान वे दे थे रहे थे,क्या वह उनकी अपनी सोच थी या वे मोदी सरकार के नजरिए को ही आगे बढ़ा रहे थे और जो ये सरकार का नजरिया नहीं था तो फिर कहा जा सकता है कि रिजिजू को हटाने में जरूरत से ज्यादा वक्त ले लिया गया। रिजिजू की जुबां से ऐसे-ऐसे तीर निकले हैं जिनसे लगे घावों की भरपाई आसान नहीं है। अब जब आम चुनावों में एक साल से भी कम का वक्त बचा है, इन तीरों को यही रोक लेने का फैसला बेहतर ही कहा जाएगा। रिजिजू ने जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम को संविधान के लिए 'एलियन ' यानी अजनबी बताया था , रिटायर्ड जजों को देश विरोधी गैंग करार दिया और उन्हें धमकी दे डाली कि जो लोग देश विरोधी काम कर रहे हैं उन्हें कीमत चुकानी होगी। रिजिजू ने कहा कि जज ये ना कहें कि सरकार नियुक्ति से जुड़े फैसलों की फाइल पर बैठी रहती है,फिर फाइल सरकार को न भेजें। खुद को नियुक्त करें। खुद सारा शो चलाएं। यह भी साझा किया कि जजों ने संविधान को हाईजैक कर लिया है। रिजिजू के एक बयान से ऐसा भी ज़ाहिर होता है कि वे लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भों के समन्वय को ही नहीं समझना चाह रहे हैं। उन्होंने कहा "जज  एक बार बनते हैं। उन्हें चुनाव नहीं लड़ना पड़ता। जनता उन्हें बदल नहीं सकती। लोग देख रहे हैं। जिस तरह जज काम करते हैं, इन्साफ करते हैं, जनता उनके फैसलों को देख रही है। "अब यह क्या बात हुई कि जज भी वैसे चुने जाएं जैसे नेता ?नेता की तो ताकत ही उसकी जीत है। दस बार  के विधायक और पांच से ज़्यादा बार के कई सांसद हमारी विधानसभाओं और संसद में हैं तब यह असुरक्षा किसे थी सरकार को या मंत्री को? मंत्री की मानी ही जा सकती थी अगर उपराष्ट्रपति खुद जजों की नियुक्ति का अधिकार और शक्ति चुनी हुई सरकार के पास होने का अभियान ना चलाते। उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ का सीधा तर्क था कि लोकतंत्र में जज भी सरकार तय करे कॉलेजियम नहीं। जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने भी  कहा था की अगर यह सिस्टम सही नहीं तो सरकार नया कानून लाए।  

नए कानून और न्याय मंत्री राजस्थान से बीकानेर के सांसद अर्जुन राम मेघवाल बनाए गए हैं लेकिन उन्हें कैबिनेट का दर्जा नहीं दिया गया है। वे संसदीय कार्यों के मंत्री और संस्कृति विभाग में राज्यमंत्री भी बने रहेंगे। उन्हें भजन गाने का शौक है जो उन्होंने पीएम की सौंवी मन की बात कार्यक्रम में सुनाया भी था। अब यह विभाग सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़ा होगा यानी अब पीएम की सहमति के बिना कोई बयान जारी नहीं होगा और ना कानून मंत्रालय कोई निर्णय ले सकेगा। पिछले कुछ महीनों में देखा तो यह भी गया कि ना केवल कानून मंत्री बल्कि जजों की नियुक्ति के मामले पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ की ज़ुबां भी तल्ख़  हो गई थी l जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम से दोनों को एतराज था। वैसे बर्फ पिछले पखवाड़े  तब भी पिघली थी जब उपराष्ट्रपति ने लंदन में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की तारीफ में कशीदे पढ़े थे। उन्होंने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाय चंद्रचूड़ बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं ,उनके फैसलों से एक आम आदमी को भी राहत मिल जाती है। वे वहां युवराज चार्ल्स के राज्याभिषेक समारोह में  बतौर अतिथि आमंत्रित थे। यह अचरज भरा था लेकिन अब कानून मंत्री की रवानगी से काफी बातें साफ हो जाती है कि अब सरकार अपने तेवर नर्म करना चाह रही है । अगर कोई सोच रहा है कि रिजिजू  के तमाम बयान केवल उनके मन की उपज थी तो क्रोनोलॉजी को समझना ठीक रहेगा । 

बीते साल के दिसंबर माह में शीतकालीन सत्र का पहला दिन ही इस बात का आभास दे गया था कि लोकतंत्र के चार पायों के बीच आपसी तालमेल का अभाव है। न्यायपालिका और विधायिका आमने-सामने थे। ऐसा नहीं होता तो उपसभापति 2015 के उस संशोधन की याद नहीं दिलाते जिसे पांच जजों की खंडपपीठ ने चार-एक से निरस्त कर दिया था। उपसभापति जगदीप धनकड़ ने राज्यसभा में अपने पहले भाषण में न्यायपालिका पर सीधा निशाना साधा था । लगभग चेतावनी देने वाले अंदाज़ में उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) विधेयक को रद्द करने के लिए न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा की याद दिलाई थी । उन्होंने इस कदम को संसदीय संप्रभुता के अनुरूप नहीं बताया। दरअसल  NJAC बिल के लिए 99 वां संवैधानिक संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों से पास हुआ था, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। इस बिल के खारिज होने को लेकर राज्यसभा के सभापति ने कहा था कि "यह उस जनादेश का अपमान है, जिसके संरक्षक उच्च सदन (राज्यसभा) और लोकसभा हैं ।' लक्ष्मण रेखा लांघने का आरोप सभी एक दूसरे पर लगाते आ रहे थे। अब की बार प्रधानमंत्री ने ही इन रेखाओं की सीमाओं से किरन रिजिजू को आज़ाद कर दिया। 

सरकार के नौ साल के कार्यकाल पर ग़ौर करने से  लगता है कि न्याय पालिका के फैसले, शुरू में लगभग उसकी आकांक्षा  के मुताबिक  रहे थे लेकिन बाद के बरसों में ऐसा नहीं रहा । तल्खी ज़ाहिर करने का जरिया किरन रिजिजू बनते चले गए । पहले बड़े फैसले मसलन राम मंदिर ,तीन तलाक, सबरीमाला,राफेल,नोटबंदी सब सरकार की राह आसान कर रहे थे लेकिन हाल ही मैं दिल्ली में चुनी हुई सरकार के हक़ लौटाने का मामला और शिवसेना से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के निर्णय सरकार को असहज करने वाले रहे। गुजरात में 68 न्यायिक अधिकारियों को न्यायिक जजों के प्रोमशन पर भी तलवार लटक गई है और सुप्रीमकोर्ट ने  कहा कि पदोन्नति योग्यता से तय होनी चाहिए। कर्नाटक में ओबीसी मुसलमानों से तीन दशक से जारी चार प्रतिशत आरक्षण लेकर लिंगायत और वोक्कालिगा में बाँट देने के तत्कालीन भाजपा सरकार के फैसले पर भी स्थगन दे दिया है। अडाणी और कश्मीर मामलों में भी सुनवाई जारी है। बेशक सरकार अपने आखिरी साल में सुप्रीम अदालत से कोई 'पंगा ' नहीं चाहती। अब कानून मंत्रालय सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़ गया है। लक्ष्मण रेखाओं की कैद से आज़ाद कर दिए गए हैं किरन रिजिजू।


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