इनके तंज उनका तंत्र

 माहौल में फाग के रंग घुलने लगे हैं और समूचा उत्तर भारत इस समय बौराने की मुद्रा में आ जाता है। हंसी ठठ्ठे होने लगते हैं, होली की ठिठोली भी होती है और होता है राग रंग। ऐसे में कांग्रेस मीडिया सेल के प्रभारी पवन खेड़ा की ज़बान फिसल गई तो क्या गज़ब हो गया लेकिन गज़ब तो हो गया। उनके खिलाफ आपराधिक साजिश, माहौल बिगाड़ना , देश की एकता पर चोट जैसी तमाम  धाराएं लग गई। अब कोई देश की संस्कृति को ही नहीं समझे और व्यंग्य को साज़िश मान ले तब तो फिर घर-घर अपराधी होने लगेंगे, कवि सम्मेलनों से हास्य का रस उड़ जाएगा। हो सकता है कि पवन खेड़ा  की ज़बान जानबूझ कर फिसली हो तब भी गालियां और अपशब्द सहकर मज़बूती के साथ उभरने वालों को यहाँ भी अपना दिल दरिया रखना चाहिए था। तंज तो एक और भी हुआ था क्यों नहीं नेहरू का नाम लगाते। यह  देश की संस्कृति से जुदा था। असम के दीमा हसाओ ज़िले की मुस्तैद पुलिस 24 घंटे के भीतर पवन खेड़ा को पकड़ने असम के दीमा हसाओ ज़िले से आ गई। ठीक उस वक्त जब वे कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए दिल्ली से रायपुर की ओर उड़ने वाले थे।  गिरफ्तारी बताती है कि सत्ता को अब हास-परिहास बिलकुल बर्दाश्त नहीं होगा।  ऐसे माहौल में जब सत्तापक्ष को मानहानि जैसे मामले भी समुदायों में दुश्मनी और देश की एकता पर चोट करने वाले मालूम हों तब विपक्ष की वर्तमान हैसियत को बखूबी समझा जा सकता है। इस विपक्ष और खासतौर पर बिखरे हुए विपक्ष पर कभी पुलिस तो कभी ईडी तो कभी आईटी का शिकंजे कसते रहेंगे ।

यह सच है कि 2024 का चुनाव अभी दूर है और उससे पहले नौ राज्यों के चुनाव होंगे लेकिन जनता को विपक्ष की एकता की कोई मिसाल अभी तक मिल नहीं रही है। शायद विपक्षी पार्टियां यह मान रही हैं कि अभी राज्यों के चुनाव लड़ लें उसके बाद किसी रणनीति में शामिल होंगे तब शायद जनता इस नीयत को भी समझ रही है कि ये अब भी  किसी हाल किसी सूत्र में बंधने को तैयार नहीं हैं। शिवसेना के हश्र ने विपक्ष को ज़रूर कंपकंपा  दिया है लेकिन इस कम्पन से  कोई सबक भी लिया हो ऐसा नहीं लगता। एक दल जिसके नेताओं ने अपनी राह क्या अलग कि उन्हें नाम और निशान से ही अलग कर दिया गया। विपक्ष की एकता की एक उजली तस्वीर बीते साल मई में लंदन से सामने आई थी जब भारत का विपक्ष वहां के छात्रों और विद्वानों से मिल रहा था और विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दे रहा था। इस तस्वीर में सीताराम येचुरी, महुआ मोइत्रा ,तेजस्वी यादव ,मनोज झा जैसे नेता शामिल थे। बीच-बीच में यह तस्वीर धुंधली पड़ती गई और कांग्रेस पर आरोप लगा कि वह दिलचस्पी नहीं ले रही है और छोटे क्षेत्रीय दलों से कुछ ज़्यादा की मांग करती है।  फिर हाल ही में विपक्ष की एकता का चित्र तब सामने आया जब अडानी मामले में जेपीसी के गठन की मांग को लेकर  कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के कहने पर समूचा विपक्ष एक साथ और एक सुर में नज़र आया। शायद इस एकता और सीटों के गणित पर एकमत होने में फ़र्क है। 

ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हमेशा एक खास दूरी पर नज़र आती है। पिछले लोकसभा चुनावों में  तृणमूल ने 22 सीटें जीतीं थीं। भाजपा को 18 और कांग्रेस को केवल दो सीटें मिली थी। ममता बनर्जी के लिए गठबंधन की राजनीति कुछ कम स्वीकार्य मालूम होती है। उनके भतीजे अभिषेक बैनर्जी तो घोषणा कर चुके हैं कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी को दिया गया वोट भाजपा को देने  के बराबर होगा। ज़ाहिर है बंगाल की सियासत में तृणमूल, भाजपा, कांग्रेस और सीपीएम तीनों को समान दूरी पर रखना चाहती है। एक वरिष्ठ पत्रकार की राय में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में झांकना भी नहीं चाहिए। यहां चुनाव नहीं लड़ना चाहिए और बिहार में नीतीश कुमार  के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए। राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा,मध्यप्रदेश , गुजरात,पंजाब, उत्तराखंड, पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यहां  123 सीटें हैं। अस्सी सीटें उत्तर प्रदेश और 42 सीटें पश्चिम बंगाल से आती हैं। बहरहाल पत्रकार की इस बात में इसलिए भी दम देखा जा सकता है क्योंकि इन 123 में जो भी कांग्रेस को मिलेंगी वह शुद्ध फायदा होगा। 2019 में इनमें से केवल 11 लोकसभा सीटें कांग्रेस को मिली थी। यह सलाह  कांग्रेस के लिए नागवार हो सकती है लेकिन 2224 का चुनाव बड़े दिल और बड़ी रणनीति के साथ नहीं लड़ा गया तो एक बार फिर मोदी मैजिक ही चलेगा। विपक्ष के ताश के पत्तों और बोतल के खेल की जगलरी नहीं चलने वाली। दीदी पश्चिम बंगाल में सशक्त इसलिए भी कही जा सकती हैं कि केंद्र के तमाम प्रयास भी बंगाल में भाजपा की सरकार नहीं बनवा पाए। 

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का कार्यकाल गठबंधन सरकार का बेहतर काल कहा जा सकता है । विपक्षी एकता के हक में जो बात कांग्रेस के पक्ष में  जाती है वह है यूपीए के दो कार्यकाल। मनमोहन सिंह सरकार के वक्त कोई बड़ा मनमुटाव सहयोगी दलों में नहीं देखा गया जबकि वर्तमान एनडीए में से अकाली दल, शिवसेना, आरजेडी बुरी तरह छिटक चुके हैं।  शिवसेना को कुछ लोग छिटकने की बजाय मिलाने के दायरे में रख सकते हैं। किसान आंदोलन में अकाली दल ने भाजपा को छोड़ दिया जबकि बाद में वही किसान कानून वापस ले लिए गए । शिवसेना को  ऐसा तोड़ा कि किसी भी दल  की रूह काँप जाए । संविधान की दसवीं अनुसूची में वर्णित दल बदल क़ानून जैसे मौन हो गया। कांग्रेस जिन राज्यों में सरकारों को समर्थन दे रही है वहां फ़िलहाल तो कमोबेश लय में रही है। डीएमके, एनसीपी, शिवसेना ,झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के साथ कोई बड़ा टकराव नहीं देखा गया। गठबंधन की राजनीति का यह लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। 

विपक्ष के एकता का हांका  फिर बिहार से ही लगा  है। भले ही 2019 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 37 फ़ीसदी के लगभग वोट मिले थे।  शेष साठ फीसदी विपक्ष को मिले तब भी वे रहेंगे तो बिखरे हुए ही। इस बिखराव को हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रेखांकित  किया। उन्होंने कहा कि भाजपा 100 की संख्या को भी पार नहीं कर पाएगी यदि कांग्रेस ने साथ दिया। ज़ाहिर है विपक्ष का यह हिस्सा कांग्रेस की  हरी बत्ती का इंतज़ार कर रहा है। यह बात नितीश कुमार ने  सीपीआई (ml ) के राष्टीय अधिवेशन में कही । यह दल बिहार महागठबन्धन का हिस्सा है। उसी मंच का हिस्सा रहे कांग्रेस नेता सलमान ख़ुर्शीद ने कहा - "मामला बस इतना ही है कि कौन पहले 'आई लव यू' कहता है। मैं वकील हूँ आपकी वकालत आलाकमान से कर दूंगा। " इसके तुरंत बाद नगालैंड की एक चुनावी सभा में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का बयान आया कि हम विपक्षी दलों से बात कर रहे हैं। हो सकता है कि विपक्षी दलों के बीच की बर्फ़ पिघले। जो जनता को यह पिघलती हुई नहीं दिखाई दी तो दिल्ली बहुत दूर हो जाएगी। फिर 24 के चुनाव में भाजपा के पास सरकारी मशीनरी तो होगी ही साथ ही ट्रम्प कार्ड यह भी होगा कि हमारा कोई विकल्प नहीं। 

सार्वजनिक संवादों और संबोधनों में जब कांग्रेस की विधवा ,जर्सी गाय ,पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड, हाइब्रिड बछड़ा,नीच,रावण और पवन खेड़ा के शब्द नरेंद्र दामोदर दास मोदी की बजाय नरेंद्र गौतम दास गांधी जैसे बयान और शब्द आते रहेंगे तब-तब  जनता को यही महसूस होगा कि ये दल एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर केवल उसे मूर्ख बनाते हैं । वह देखती है कि कानून भी  सबके लिए अलग-अलग होता है। कभी मुक़दमे होते हैं , कभी नहीं। ऐसे में जनता की आस्था कैसे इस व्यवस्था में बनी रहेगी? सुप्रीम कोर्ट ने पवन खेड़ा को ज़मानत देते हुए भी यही कहा है कि बातचीत का यह स्तर नहीं होना चाहिए लेकिन इसका पालन करते कौन सा दल इन दिनों देखा गया है। एक चैनल की बहस में  जब एक पत्रकार ने अपनी राय रखते हुए भाजपा प्रवक्ता से पूछा कि क्यों इसमें  गौतम अडानी  दिखाए दिए। आपने इसे गौतम ऋषि से क्यों नहीं जोड़ा। मुझे अगर कहा जाए कि मैं गौतम ऋषि की संतान हूँ तो मैं स्वीकार करूंगा। जवाब में  भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता ने कहा कि


आप किसी के पिता को अपमानित कैसे कर सकते हैं। ये बदज़ुबां नेता हैं जो इरादतन ऐसा करते हैं। हाइब्रिड बछड़ा कहने और पिता का नाम बदलने में फर्क है।  मैं आपके पिता का नाम बदल दूँ तो आपको कैसा लगेगा ? फिर प्रवक्ता ने पलटकर पत्रकार से सवाल किया  कि आप वर्ण संकर हैं या किसी और बिरादरी के हैं। प्रवक्ता ने दोबारा पूछा- "आप वर्ण संकर हैं ?" पत्रकार ने कहा-" मैं तो शूद्र हूं इसलिए मुझे क्या कहना। "



 


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