मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं अगला नंबर आपका है

   बीबीसी के ख़िलाफ़ आयकर सर्वे की कार्रवाई और सरकार के प्रवक्ताओं की लगातार जारी कमेंट्री को अगर सुन लिया जाए तो इरादे बहुत हद तक साफ हो जाते हैं कि ऐसा दंडित करने की मंशा से किया गया है। बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री 'इंडिया: द मोदी क्वेश्चन' से खासी नाराज़गी है वरना इस समय इसे 'भ्रष्ट और बकवास कॉरपोरेशन' करार दिए जाने की कोई ज़रूरत नहीं थी। बुधवार को उपराष्ट्रपति स्वयं भी सरकार के बचाव में आकर बिना बीबीसी का नाम लिए बोले कि एक वैश्विक मीडिया हाउस है जो दस साल से भारत की विकास गाथा को रोक रहा है। अगर सरकार की नीयत वाकई आय संबंधी गड़बड़ियों की जांच करना ही था, जैसा कि कहा जा रहा है, तो इस नरेटिव को स्थापित करने की कोई दरकार नहीं थी। इससे पहले भी ऐसे बेशुमार उदाहरण देखे गए हैं जब सरकार की अपेक्षा से अलग कोई रिपोर्ट आई हो और सरकार ने अपने पिंजरों के तोतों को उनके पीछे नहीं लगाया हो। नियम-कायदे उस वक्त धुंधले पड़ जाते हैं जब मुख्य धारा का मीडिया प्रति दिन उन्मादी बहस को छेड़ रहा होता है या इतिहास को तोड़ -मरोड़ रहा होता है।

 बड़े मीडिया संस्थानों से लेकर हर वह छोटा पत्रकार सरकार की कोप दृष्टि का शिकार हो चुका है  जिसने सरकार से असहमति दिखाई है। सरकार की उस लोकतंत्र में कोई आस्था नहीं है जहाँ कोई भी निर्णय टीका टिप्पणियों या खोज के दायरे में आ सकता है। सरकार यही मानकर चलती है कि वह पुरोधा है और वह हमेशा कल्याण के लिए ही फ़ैसले लेती है। ऐसा ही तानाशाह सोचते हैं और ऐसे ही सेंसरशिप लागू होती है। इंदिरा गांधी देश की दुश्मन नहीं थी लेकिन उन्हें भी 1975 में लगा कि वे ही सही सोच रही हैं। फिर  देश के लोगों ने जेल भरकर बता दिया कि वे सही नहीं थीं। आज जिस तरह से सरकार बदले की भावना से घिरी नज़र आती है वह भी ऐसा ही है। अमेरिका स्थित हिंडेनबर्ग शॉर्ट सेलर कंपनी ने अडानी के निवेश के जो पन्ने खोले उस पर कोई कार्रवाई नहीं लेकिन बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री के बाद आयकर का सर्वे यह बताता है कि अगर आप राजसेठ हैं तो कोई डर नहीं, लेकिन यदि पत्रकार हैं तब हर जांच के लिए तैयार रहें। यह फर्क तो सरकार ने खुद ही कर दिया है। सरकार हर उस आईने को तोड़ रही होती है जिसमें उसकी तस्वीर दिखाने की कोशिश होती है ?

असहमत आवाज़ें सत्ता पक्ष को अपनी छाती पर सांप की तरह लोटती हुई लगती हैं। इसलिए वह उनका गला ही घोंट देना चाहती है। स्वतंत्र मीडिया उन्हें विपक्ष से भी ज़्यादा डरावना लगता है इसलिए अब उस पर काबू पाने की मंशा है। बीबीसी पर कार्रवाई ऐसी ही कोशिश है। मीडिया संस्थान जो सरकार से सवाल कर सकते हैं अब यूं भी गिनती के बचे हैं। हिंदी के एक बड़े अख़बार में उस वक्त ऐसे ही छापे (जिसे बीबीसी के संदर्भ में आयकर सर्वे कहा जा रहा है) पड़े थे जब वहां कोविड महामारी के दौरान गंगा में तैरती लाशों की स्टोरीज़ छप रही थीं। छापों में दोष कितना पाया गया, यह अब भी एक रहस्य ही है, लेकिन जो रहस्य नहीं है वह यह कि उसके बाद से अख़बार के सुर सत्ता के खिलाफ़ बिल्कुल ही नर्म पड़ गए । भीतर के लोग तो यहां तक बताते हैं कि अख़बार को खरीदने की पेशकश कर दी गई थी। सब ने देखा है कि किस तरह एक बड़ा चैनल उन्हीं उद्योगपति के हाथ आ गया जिसके खिलाफ़ हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आई है। असहमत आवाज़ में सबसे बड़ी आवाज़ अब चुप हो गई है और सवाल करने वाले उसके पत्रकार वहां से जा चुके हैं। ऑक्सफैम इंडिया, न्यूज क्लिक, न्यूज लॉन्ड्री, वायर, क्विंट आदि पर भी सरकार ने दबाव बनाया लेकिन अब तक कोई अनियमितता या दोष सामने नहीं आया। क्या यही नई परिपाटी है कि अब किसी को बोलने नहीं देना है? क्या सरकार इस दंभ में है कि अब वही तखत पर रहने वाली है। उस लोकतंत्र की उसे अब कोई ज़रुरत नहीं  जिसकी सीढ़ी चढ़ वह सत्ता में आई थी। इसीलिए पत्रकारों के खिलाफ़ लगातार मुकदमे हैं और  सरकार से अलग सोच रखना देशद्रोही हो जाना है।

केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन उत्तर प्रदेश में 28  महीनों की जेल काटकर ज़मानत पर छूटे हैं। वे उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित लड़की के साथ बलात्कार की रिपोर्टिंग के सिलसिले में वहां गए थे। उन्हें मनी लॉन्ड्रिंग के केस में गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में उन्हें दो बार कोविड हुआ और जब अस्पताल में दाखिल कराया गया, तब स्टाफ को एक अधिकारी ने कहा कि यह आतंकवादी है। पांच दिन तक उन्हें टॉयलेट जाने से रोका गया और हाथों को हथकड़ियों से बांधकर इलाज किया गया। यह आप बीती कप्पन ने एक न्यूज़ पोर्टल के साथ साझा की है। ठीक चार साल पहले मणिपुर के पत्रकार किशोर चंद्र वांगकेम को देशद्रोह के आरोप में  सलाखों के पीछे डाल दिया  गया था । अपराध था मणिपुर सरकार की आलोचना। मुख्यमंत्री बिरेन सिंह मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी के पहले मुख्यमंत्री हैं और पत्रकार का गुनाह यह था कि उन्होंने राज्य में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जन्मोत्सव को मनाए जाने के खिलाफ अपनी पोस्ट में कथित विवादास्पद वीडियो का उपयोग किया था।  पत्रकार ने मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को केंद्र सरकार की कठपुतली कहते हुए लिखा था, विश्वासघात न करें, मणिपुर के स्वतंत्रता सेनानी का अपमान न करें। मणिपुर के स्वतंत्रता संग्राम का अपमान मत कीजिए। दो छोटे बच्चों  की मां और पत्रकार किशोर की पत्नी रंजीता ने यह लड़ाई लड़ी और बमुश्किल पति के लिए ज़मानत हासिल की। इसी साल 2019 में ही  उत्तरप्रदेश में मिड डे  मील में नमक-रोटी परोसे जाने को लेकर पत्रकार पवन जायसवाल के ख़िलाफ़ भी  मुकदमा दर्ज कर दिया गया। यह मिर्ज़ापुर की घटना थी। प्रेस कॉउंसिल  के दखल के बाद पुलिस ने पत्रकार का नाम हटा दिया लेकिन बाद में इस युवा पत्रकार की कैंसर से मौत हो गई। इसके अलावा किसान आंदोलन के दौरान भी सरकार पत्रकारों को गिरफ्तार कर रही थी।

अबकी बार निशाने पर बीबीसी  है जिसकी विश्वसनीयता पूरी दुनिया में है। हो सकता है कि सरकार का मत हो कि बीबीसी भारत में अस्थिरता पैदा करने की मंशा रखता हो, तो क्या इससे पहले सरकार ने उसकी इस नीयत पर लिखित सवाल -जवाब किये? या इससे पहले आयकर के दस्तावेज मांगे गए जिससे यह साबित होता हो कि बीबीसी भारत से मुनाफ़ा कमाकर विदेश में भेज रहा हो और यह कमाई छिपाई गई हो। इसका ब्यौरा जनता को मिलना चाहिए। यूं पत्रकारों के फ़ोन और लैपटॉप के पासवर्ड मांगने और दिल्ली स्थित  दफ्तर को बंदूकधारी पुलिस के जवानों से घेर लिए जाने को दबाव और डराने से ज़्यादा क्या समझा जाएगा। बीबीसी का बिजनेस मॉडल दर्शकों से मिलने वाली लाइसेंस फीस पर चलता है, किसी पूंजीपति या किसी सरकार के दम पर नहीं।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं एक समय  बीबीसी की विश्वसनीयता को खरा बता चुके हैं। यह कैसे संभव है कि मीडिया संस्थान जो तत्कालीन  सरकार की आलोचना करता तब बेहतरीन था क्योंकि तब आप विपक्ष में थे। सत्ता में आते ही यह  नज़रिया क्योंकर बदलना चाहिए? एनडीटीवी ने अगर तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार की आलोचना नहीं की होती तो क्या भाजपा 2014 में सरकार बना सकती थी? उसके बाद क्या हुआ सब जानते हैं एनडीटीवी के संस्थापक ही अब वहां से बाहर हैं। अडानी समूह ने इस मीडिया समूह पर अपना  इख़्तियार कर लिया है। वही अडानी समूह जिसके कारोबार का हिसाब-किताब अमरीका स्थित एक रिसर्च फर्म  हिंडनबर्ग ने दिया है।  


मीडिया और पूंजीपतियों के लिए सरकार के पास दो अलग-अलग निगाहें हैं। दूसरे लफ़्ज़ों में जो सरकार से गलबहियां करे उसके लिए अलग और  जो न करे उसके लिए अलग तौर -तरीके हैं। हो सकता है कि बड़े देशों की सरकारों ने किसी खास लाभ के चलते बीबीसी के मामले में सख्त प्रतिक्रिया नहीं दी हो। आखिरकार ये सरकारें हैं जो विश्वसनीय मीडिया से घबराती हों। दुनिया के पत्रकारों और  मीडिया संगठनों को एक होना पड़ेगा। एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने बीबीसी पर कार्रवाई की आलोचना की है। बेख़ौफ़ और स्वतंत्र आवाज़ों  को चुप कराना हर सत्ता चाहती है और इसके लिए वह लामबंद भी हो जाती है। नवाज़ देवबंदी का एक शेर है-


उस के क़त्ल पे मैं भी चुप था मेरा नंबर अब आया 

मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं अगला नंबर आपका है




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