विपक्षी एकता मेंढकों को तराज़ू में तौलने सा मुश्किल !

क्या इस समय विपक्ष की एकता मेंढकों को तराज़ू में तौलने सा मुश्किल काम है? क्या क्षेत्रीय दल मसलन, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी कांग्रेस की अगुवाई में दिक्कत महसूस कर रहे हैं? क्या विपक्ष नहीं समझ रहा है कि अगर इस बार बात नहीं बनी तो फिर कभी नहीं वाले हालत में वे ला दिए जाएंगे? क्या शिवसेना की जो हालत चुनाव आयोग ने अभी कर दी है, वैसी ही आगे किसी और दल की  हो सकती है? क्या कांग्रेस शेष विपक्षी दलों से दूरी बनाकर चल रही है? इन सारे सवालों के जवाब यदि हां हैं तो  विपक्षी एकता फिर दूर की कौड़ी है। 2024 की हार का ठीकरा किसी और पर फोड़ने की बजाय अभी से बिखरे हुए विपक्ष को अपने सर पर फोड़ लेना चाहिए क्योंकि इस वक्त जो जनता देख रही है वह बिखरा हुआ विपक्ष है। सीटों का गणित और जनता के सामने सरकार के विरोध  की सही भूमिका नहीं बनी तो फिर बदलाव केवल ख़याली पुलाव बन कर रह जाने वाला है। बोफोर्स तोप के हमले जो राजीव गांधी के खिलाफ विपक्ष ने किए थे वैसा अडानी मामला कर सकता है।  हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने सारा कच्चा-चिटठा उपलब्ध करा दिया है और शेष किस्सा अडानी की कंपनियों के गिरते शेयर बयान कर रहे हैं। रहा सवाल जनता का, तो उसने 'भारत जोड़ो यात्रा' पर अपना प्रेम उंडेल दिया था। उसके बावजूद कांग्रेस ने रास्ते के रोड़े नहीं हटाए तो यह जनता के साथ नाइंसाफी होगी। जनता देश में लगातार जारी ध्रुवीकरण की राजनीति के साथ बेरोजगारी, महंगाई और सियासत के उद्योगपति के साथ गठजोड़ से त्रस्त है और ख़ुद को हाशिए पर देख रही है।

विपक्ष की एकता की एक उजली तस्वीर बीते साल मई में लंदन से सामने आई थी जब भारत का विपक्ष वहां के छात्रों और विद्वानों से मिल रहा था और विश्वविद्यालयों में अपने व्याख्यान दे रहा था। इस तस्वीर में सीताराम येचुरी, महुआ मोइत्रा, तेजस्वी यादव, मनोज झा जैसे नेता शामिल थे। बीच-बीच में यह तस्वीर धुंधली पड़ती गई और कांग्रेस पर आरोप लगा कि वह दिलचस्पी नहीं ले रही है और छोटे क्षेत्रीय दलों से कुछ ज़्यादा की मांग करती है। फिर, हाल ही में विपक्ष की एकता का अच्छा चित्र सामने आया जब अडानी मामले में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के कहने पर समूचा विपक्ष एक साथ और एक सुर में नज़र आया। शायद इस एकता और सीटों के गणित पर एकमत होना दोनों में फ़र्क है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस दूरी पर ही नज़र आती है। पिछली लोकसभा में तृणमूल ने 22 सीटें जीती थीं। भाजपा को 18 और कांग्रेस को केवल दो सीटें मिली थीं। ममता बैनर्जी के लिए गठबंधन की राजनीति कुछ कम स्वीकार्य मालूम होती है। उनके भतीजे अभिषेक बैनर्जी तो घोषणा कर चुके हैं कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी को दिया गया वोट भाजपा को दिए जाने के बराबर होगा। ज़ाहिर है कि बंगाल की सियासत में तृणमूल भाजपा, कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम)- तीनों को समान दूरी पर रखना चाहती है। 2224 का चुनाव बड़े दिल और बड़ी रणनीति के साथ नहीं लड़ा गया तो एक बार फिर मोदी मैजिक ही चलेगा। विपक्ष के ताश के पत्ते जैसे छोटे-मोटे जादू और बोतल के खेल की जगलरी काम नहीं आने वाली।

विपक्ष कैसे तहलका मचाता है, यह देखना हो तो राजस्थान आना चाहिए। जब अशोक गहलोत से स्थानीय भाजपा को मुकाबला करना मुश्किल हो गया तब प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और वित्त मंत्री सभी ने हल्ला बोल कर दिया। एक महीने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तीन बार राजस्थान आए। बजट की आलोचना में राजस्थान के भाजपा नेताओं के पास केवल इतना ही था कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जो वित्तमंत्री भी हैं, वे  एक पूरा पन्ना पुराने बजट भाषण का पढ़ गए। यह बड़ी गलती रही लेकिन क्या विपक्ष का दायित्व केवल इसे ही तूल देने का रह जाता है? क्या बजट अन्य तमाम आलोचनाओं से परे था? इस हफ्ते देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन जयपुर आकर सरकार को साफ कह गईं कि पुरानी पेंशन योजना के लिए केंद्र कुछ नहीं देगा। पहले पैसा कमाओ फिर घोषणा करो! ईआरसीपी यानी पूर्वी राजस्थान की नहर परियोजना पर कहा कि यूपीए के समय गुजरात का नर्मदा प्रोजेक्ट रोक कर राजनीति की गई। सत्तापक्ष यानी केंद्र की सरकार राज्य में कैसी भूमिका में आ जाती, यह राजस्थान में दिखाई देता है। कहने को 25 के 25 सांसद राजस्थान में भाजपा से हैं। क्या इससे बड़ा डबल इंजन कुछ हो सकता है लेकिन केंद्र पूर्वी राजस्थान की नहर परियोजना से भी हाथ खींच रहा है। जनता के काम में ऐसी दूरी? वह भी ठसक के साथ! दूसरी ओर देश में मौजूदा विपक्ष है जो तमाम तकलीफों से घिरी जनता को यह उम्मीद भी नहीं दे पा रहा है कि वह एक हो सकता है।

विपक्षी एकता के हक में जो बात कांग्रेस के पक्ष में जाती है, वह है यूपीए के दो कार्यकाल। मनमोहन सिंह सरकार के वक्त कोई बड़ा मनमुटाव सहयोगी दलों के बीच नहीं देखा गया जबकि वर्तमान एनडीए में से अकाली दल, शिवसेना, राष्ट्रीय जनता दल  (आरजेडी) बुरी तरह छिटक चुके हैं। किसान आंदोलन में अकाली दल ने भाजपा को छोड़ दिया जबकि बाद में वही किसान कानून वापस ले लिए गए । शिवसेना को ऐसा तोड़ा कि  किसी भी दल  की रूह काँप जाए। तोड़-फोड़ के बाद पार्टी चुनाव चिन्ह, कार्यालय आदि भी बागी विधायकों को मिल गये। इससे पहले हुई बगावत में सबकुछ जैसे रिमोट कंट्रोल से हो रहा था। राज्यपाल व स्पीकर  जैसे संवैधानिक पद की कोई भूमिका नहीं रह गई थी । संविधान की 10वीं अनुसूची में वर्णित दलबदल क़ानून जैसे मौन हो गया। केंद्र की सरपरस्ती में किसी पार्टी की ऐसी टूट-फूट अभूतपूर्व कही जा सकती है। कांग्रेस जिन राज्यों में सरकारों को समर्थन दे रही है वहां फ़िलहाल तो कमोबेश लय में रही है। द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके), राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी  एनसीपी, शिवसेना, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा आदि दलों के साथ कोई बड़ा टकराव नहीं देखा गया। गठबंधन की राजनीति का यह लाभ कांग्रेस को मिल सकता है, लेकिन क्या ममता बनर्जी के लिए इसे स्वीकारना संभव होगा? उनके भतीजे अभिषेक बैनर्जी तो घोषणा कर चुके हैं कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी को दिया गया वोट भाजपा को दिए जाने के बराबर होगा।। एक वरिष्ठ पत्रकार की राय में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में झांकना भी नहीं चाहिए। यहां  चुनाव नहीं लड़ना चाहिए और बिहार में नीतीश कुमार के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए। राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, मध्यप्रदेश, गुजरात, पंजाब, उत्तराखंड पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यहां  123 सीटें हैं।लोकसभा में 80 सीटें उत्तर प्रदेश और 42 सीटें पश्चिम बंगाल से आती हैं। बहरहाल इस बात में इसलिए भी दम देखा जा सकता है क्योंकि इन 123 में जितनी भी कांग्रेस को मिलेंगी, वह शुद्ध फायदा होगा। 2019 में इनमें से केवल 11 लोकसभा सीटें कांग्रेस को मिली थी। 

कमज़ोर हालत में भी लगभग 12 करोड़ वोट शेयर कांग्रेस को देश में मिलता रहा है। गठजोड़ और जनता के मुद्दे सही दिशा में गए तो 2024 का चुनाव रोचक और मुकाबले वाला हो सकता है। बोफ़ोर्स दलाली मामले को वीपी सिंह इस तरह प्रचारित करते थे जैसे कांग्रेस और राजीव गांधी ने सेना के हथियार खा लिए हों। बाकायदा कॉपी पेन लेकर जनता तक यह सन्देश पहुंचाया गया। भले ही देश ने अब तक किसी को जेल जाते नहीं देखा होगा लेकिन यह नरेटिव काम कर गया। आपातकाल के दौर में जयप्रकाश नारयण ने सत्ता को धूल चटा दी। जयप्रकाश ने कहा था लोकतंत्र किसी का भी आतंरिक मामला नहीं होता। दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र लोक का मामला है और उसका दमन हर किसी की चिंता का विषय होना चाहिए। आज की तारीख़ में मंहगाई और बेरोज़गारी के साथ अघोषित आपातकाल बड़े और असली मुद्दे हैं। अडानी और सरकार मिलीभगत का गठजोड़ का उजागर होना , गठबन्धन की राजनीति के जमे पहियों में तेल का काम कर सकता है।  

आवाज़ फिर बिहार से ही आई है। भले ही 2019 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 37 फ़ीसदी के लगभग वोट मिले हों शेष साठ फीसदी विपक्ष को मिले भी हों तब भी वे रहेंगे तो बिखरे हुए ही। इस बिखराव को हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेस ने साथ दिया तो भाजपा 100 की संख्या को भी पार नहीं कर पाएगी। ज़ाहिर है कि विपक्ष का यह हिस्सा कांग्रेस की हरी बत्ती का इंतज़ार कर रहा है। मंच का हिस्सा रहे कांग्रेस नेता सलमान ख़ुर्शीद ने कहा "मामला बस इतना ही है कि कौन पहले 'आई लव यू' कहता है। आपकी बात आलाकमान तक पहुंचा दूंगा। मैं एक वकील हूं आपकी वकालत कर दूंगा।" यह संकेत पटना में आयोजित सीपीआई (एम एल)के राष्ट्रीय अधिवेशन में नेताओं ने दिए।

इसके तुरंत बाद नागालैंड की एक चुनावी सभा में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का बयान आया कि "हम विपक्षी दलों से बात कर रहे हैं।" हो सकता है कि विपक्षी दलों के बीच की बर्फ़ पिघले। जो जनता को यह पिघलती हुई नहीं दिखाई दी तो दिल्ली बहुत दूर हो जाएगी। फिर 24 के चुनाव में भाजपा के पास सरकारी मशीनरी तो होगी ही, यह ट्रम्प कार्ड भी होगा कि हमारा कोई विकल्प नहीं। पार्टी ने इक़बाल के इस शेर को भी खूब समझा है 

जम्हूरियत इक तर्ज़ ए हुकूमत है कि जिस में 

बन्दों  को  गिना करते हैं तौला नहीं करते


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

सौ रुपये में nude pose

एप्पल का वह हिस्सा जो कटा हुआ है