बयान जो लांघ जाते हैं 'सर' हद

एक परिस्थिति पर गौर कीजिये। दुनिया का कोई एक छोटा सा देश हो । पंद्रह सालों से उस पर एक पार्टी की हुकूमत हो और फिर अचानक पार्टी की मुखिया को देश छोड़कर भागना पड़ा हो । उसका पड़ोसी वह बड़ा देश हो जिसके प्रयास और शक्ति से ही उस देश का जन्म हुआ हो। बेशक वह ऋणी रहेगा उस देश का जिसने उसे बनने में हर तरह की मदद दी हो। यही वजह रही कि इन दोनों देशों की सरहदें लगभग खुली थीं। सहयोग और संवाद का यह आलम था कि जिन रेलगाड़ियों में चावल भरकर भेजा जाता था , वह देश उसे भी रख लेने का आग्रह कर देता था। फिर कुछ दशकों बाद ऐसा हुआ  कि वह बड़ा देश उस छोटे देश के लोगों की आबादी से परेशान हो गया। उसके सियासी दलों ने सीमा पार कर आने वालों को, घुसपैठिया कहना शुरू कर दिया। उनके भाषणों में यह मुद्दा छाया रहता। फिर यह मुद्दा अहम चुनावी मुद्दा बन गया। सरकारें बदली लेकिन सुर नहीं। विरोधी दल होने तक तो ठीक था लेकिन जब बड़े देश की सरकार की भाषा भी वही रही तब उस छोटे-से देश में विरोध प्रदर्शन होने लगे। होना तो यह चाहिए था कि घुसपैठियों को उनके देश का रास्ता दिखाया जाता ताकि देशके संसाधनों पर बोझ कुछ कम पड़ता।

इस छोटे देश का नाम बांग्लादेश है और वह बड़ा देश भारत है जिसने हमेशा बड़े भाई की भूमिका अदा की लेकिन अब हालात बदल गए हैं। ऐसे में विचारना ज़रूरी है कि क्या सरकार बना लेने के बाद भाषा और टोन में भी थोड़े बदलाव की ज़रुरत होती है। अगस्त के पहले बांग्लादेश की निर्वाचित प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपना देश छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी  और बांग्लादेश में बिना चुनाव के प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस (83) अंतरिम सरकार के मुखिया बन गए। वे बेहद लोकप्रिय और नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं और हाल ही में उनकी अमेरिका यात्रा और संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनका बांग्ला भाषा में दिया भाषण काफी चर्चित रहा। बांग्लादेश की जनता उन्हें मसीहा बतौर देख रही है। सवाल यह भी  है कि वे कोई चुने हुए नेता नहीं हैं और बहुत जल्द्दी चुनाव करने का वादा भी दुनिया के आका अमेरिका ने भी उनसे नहीं लिया है क्योंकि वे उनके पसंदीदा हैं। वे उनसे गर्मजोशी से गले लगते हैं। भारत को समझना होगा कि बांग्लादेश में जो हुआ वह केवल चंद युवाओं का आंदोलन या धार्मिक उन्माद नहीं था। पश्चिम के  समर्थन और सद्भावना ने उसे नई गति दे दी  है। देश की जनता गदगद है कि आख़िरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मोहम्मद यूनुस  के रूप में उन्हें दमदार आवाज़ मिली है। 

डॉ यूनुस अपने अमेरिका दौरे में वहां के राष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्रपति समेत कई बड़े नेताओं से मिलते हैं। चीनी और अमेरिकी  विदेश मंत्री से भी उनकी मुलाकात होती है और यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष से भी। यही नहीं मोहम्मद यूनुस पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ से भी मिले और ये दोनों दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय संगठन यानी सार्क को भी फिर सक्रिय करने की ज़रुरत पर ज़ोर देते हैं। अतीत में सार्क  बेहद जीवंत संगठन था और तमाम सदस्य देश अफ़ग़ानिस्तान ,बांग्लादेश,भूटान,भारत,मालदीव्स ,नेपाल पाकिस्तान और श्रीलंका भारत की अगुआई में अपनी आवाज़ बुलंद करते थे। आज वह दौर  जैसे लद गया  है।  भारत के लिए बांग्लादेश की नई परिस्थिति कई मायनों में चिंताजनक है। जो अमेरिका लोकतांत्रिक तौर पर सरकार चुने जाने का पक्षधर रहा है,वह मोहम्मद यूनुस के प्रति उदार है। वहां के वर्तमान और पूर्व दोनों राष्ट्रपति उनसे मिलते हैं और बिल क्लिंटन से मिलकर मोहम्मद यूनुस कहते हैं -" जो बीते जुलाई-अगस्त में बांग्लादेश में हुआ उसमें केवल युवा नहीं बल्कि पूरा देश शामिल था। हरेक व्यक्ति ने लड़ाई लड़ी और मैं अमेरिका के नागरिकों का धन्यवाद करना चाहता हूं  कि उन्होंने इसे संभव बनाया और अब हम एक नया बांग्लादेश बनाएंगे।" दरअसल क्लिंटन और यूनुस 1986 से परिचित हैं। तब क्लिंटन ने उन्हें अमेरिका आने की दावत  दी थी । यह वह दौर था जब  यूनुस बांग्लादेश में  गरीबी मिटानेवाले शख़्स बतौर देखे जाते थे । ग्रामीण बैंकों (1983) के ज़रिये उन्होंने बांग्लादेश के निचले तबके को उठाने का महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव किया था। आर्थिक रूप से पिछड़ों को लोन दिया ,खासकर महिलाओं को। उनके इस काम से आए जबरदस्त आर्थिक बदलाव के लिए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार (2006 )से नवाज़ा गया।  फिर साल दो हज़ार में क्लिंटन खुद भी बांग्लादेश आए थे। इस साल की शुरुआत में  उन्हें जेल की सज़ा भी सुनाई गई थी जिसे राजनीति से प्रेरित बताया गया। 

 भारत की चिंता बढ़ाने के लिए यह भी है कि जिस देश की मुखिया को उसने शरण दी, उसके हक़ में दुनिया से कहीं कोई आवाज़ नहीं आ रही है ? क्या भारत शेख़ हसीना की इस शरण को, दलाई लामा जैसी नैतिकता के उच्चतम स्तर पर रख सकता है। पैंसठ साल पहले तिब्बत के दलाई लामा को भारत ने उस वक्त शरण दी जब चीन तिब्बत पर कहर बरपा रहा था। चिंता की वजह यह भी है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश  ना केवल यूएन में  बातचीत करते हैं बल्कि ऐसा भी पहली बार होता है कि पिछले महीने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्म्मद अली जिन्ना की बरसी पर बांग्लादेश में  श्रद्धांजली सभा भी होती है। ढाका में ऐसा पहली बार देखा गया है। प्रो यूनुस कट्टरवादी संगठन हिफाज़त ए इस्लाम के मुखिया से भी मिलते हैं। यह वह संगठन है जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा के दौरान विरोध प्रदर्शन किया था। जमायत ए  इस्लामी संगठन जिसका सुर हमेशा भारत विरोधी रहा है उसके प्रति भी वर्तमान अंतरिम सरकार उदार है। सवाल फिर यही है कि इस 'शिफ़्ट' की वजह क्या है।  क्या स्थानीय स्तर पर वोटों की सियासत साधने  की प्रक्रिया में हमारी विदेश नीति प्रभावित होती है ? जाने-अनजाने हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जो भी चुनावी रैलियों में कहते हैं, उसके दूरगामी परिणाम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं? दुनिया अब पहले से कहीं ज़्यादा कनेक्टेड है।  ऐसे मौकों पर  विदेश मंत्री एस जयशंकर के बयान काफ़ी प्रभावी और साफ़ तौर पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। बीते सप्ताह ही उन्होंने न्यूयॉर्क में साफ़ कहा कि भारत के अपने पड़ोसियों से गहरे ऐतिहासिक और आर्थिक संबंध हैं और बीते एक दशक में तमाम उथल -पुथल बावजूद हम काफी उदार और सकारात्मक रहे हैं। 

बेशक बांग्लादेश से भी हमारे गहरे आर्थिक और राजनीतिक रिश्ते हैं।बांग्लादेश के इस राजनीतिक संकट का नतीजा यह भी हुआ है कि अडानी जिस पॉवर प्लांट से बिजली बांग्लादेश को देना चाहते थे, उस समझौते के रद्द होने के बाद उसे फिर देश में ही बेचना पड़ा और जिसके लिए यकायक अगस्त 2024  में भारत सरकार को नियमों में बदलाव भी  करना पड़ा । अमेरिका को फिलहाल चीन को कसने के लिए बांग्लादेश और उसके द्वीपों की ज़रूरत है। ऐसा निर्वासित प्रधानमंत्री शेख हसीना भी कह चुकी हैं। लेन -देन की इसी रणनीति पर दुनिया के रिश्ते टिके हैं। एक समय था जब पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश को मान्यता देने के लिए अमेरिका ने एक साल से भी ज़्यादा का वक्त लगा दिया था। फिलहाल एशिया का बड़ा हिस्सा युद्ध की आग में धधक रहा है और दुनिया के प्रयास इसे रोकने की तरफ़ नहीं हैं। भारत का बुलंद कद और शांति के अग्रदूत की पहचान कम नहीं होनी चाहिए। दिल्ली को ढाका की बदली हुई परिस्थिति के बतौर व्यवहार करना होगा।  


 


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