बुलडोज़र न्याय तो दंड क्या ?

क्या प्रधानमंत्री को पता है कि उनके कार्यकाल में आरोप सिद्ध होने से पहले ही नागरिकों के घरों पर बुलडोज़र चलाए जा रहे हैं? क्या उन्हें पता है कि इन राज्यों में घर आरोपी के माता-पिता ,पत्नी या माकन मालिक का हो तब भी उसे ज़मींदोज़ कर दिया जाता है ? यदि पता है तो वे कुछ कहते क्यों नहीं और जो नहीं पता तब वे इतने बेख़बर क्यों हैं ? क्या इन राज्यों के मुखिया अपनी मनमानी कर रहे हैं ?आखिर क्यों सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि एक पखवाड़े तक बुलडोज़र नहीं चलेगा तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ेगा?  न्यायालय की  टिप्पणी थी कि कानून दरअसल किसी के भी घर को महज इसलिए गिराये जाने की इजाजत नहीं देता कि वे किसी मामले में आरोपी हैं, और ऐसा किसी दोषी के मामले में भी नहीं किया जा सकता। न्यायपालिका उस राजनीतिक प्रतीकवाद से बेख़बर नहीं रह सकती जिसमें बुलडोज़र, प्रशासन द्वारा दंगाई बताये गये लोगों को सामूहिक दंड देने का उपकरण बन गया है। 

 सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी उस वक्त की जब बुलडोज़र न्याय पर सुनवाई जारी थी और देश के बड़े हिस्से में बुलडोज़र तंत्र की स्थापना न्याय के प्रतीक बतौर स्थापित की जा चुकी थी। एक हिसाब से इसमें देर भी हो चुकी है। न्याय की भाषा में न्याय में देरी, न्याय ना मिलने के सामान है। यह कार्रवाई इतनी प्रचारित की जा चुकी है कि एक प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बुलडोज़र बाबा के नाम से ही फेमस हो चुके हैं । उन्हें प्रतीक स्वरूप नन्हें-नन्हें बुलडोज़र भेंट किए जाते हैं और उनकी चुनावी रैलियों में लोगों को असली और बड़े -बड़े बुलडोज़र लाने के लिए कहा जाता है। वे कहते हैं  कि बुलडोज़र पर हरेक के हाथ फिट नहीं होते, इसके लिए दिल और दिमाग दोनों चाहिए। सत्ता जिन बुलडोज़रों को न्याय का औजार बना रही है, सुप्रीम कोर्ट ने उसे असंवैधानिक बताया है। देखा जाए तो एक देश में दो न्याय व्यवस्थाएं जारी हैं। एक वह जो ट्रायल के दौरान कानून के अनुसार सज़ा की पैरवी करती है और दूसरी बिना पैरवी के ही आरोपी का ,विचाराधीन कैदी का घर ज़मींदोज़ कर देती है।  एक देश में दो सामानांतर व्यवस्थाएं  चलाकर हमारी व्यवस्था भविष्य में किसी बड़े संकट की प्रस्तावना तो नहीं लिख रही ?  बेशक सुप्रीम कोर्ट के आदेश और दख़ल साफ़ संकेत देते  हैं कि इनमें अनधिकृत अतिक्रमणों की पहचान किये जाने का तौर-तरीका, संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया जाना और किसी कार्रवाई से पहले निष्पक्ष सुनवाई का मौका दिया जाना शामिल होना चाहिए। देखने में तो यह भी आया है कि बुलडोज़र(अ) न्याय पर सुप्रीम कोर्ट की एक पखवाड़े की रोक के बावजूद बैलडोज़र फिर चल पड़े हैं।

बीते सात सालों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो छह राज्यों में 1933 आरोपियों की संपत्ति पर बुलडोज़र चले हैं। इनमें सबसे ज़्यादा 1535 कार्रवाइयां उत्तरप्रदेश में हुई हैं। उसके बाद मध्यप्रदेश (259),हरियाणा (64 ),गुजरात (55),राजस्थान (10)और दिल्ली (10) हैं। उत्तरप्रदेश में 2017 में पहली बार यह बुलडोज़र चला था तब 13 बाहुबलियों के मकान ढहा दिए गए थे । इसके बाद 8 पुलिसकर्मियों की हत्या के गैंगस्टर विकास दुबे की 100 करोड़ से भी ज़्यादा की संपत्ति को मिटटी में मिला दिया गया। त्वरित न्याय का चस्का सत्ता को ऐसा लगा कि फिर विकास दुबे को ही मुठभेड़ में मार दिया गया। इन सबके पीछे कारण अवैध निर्माण और अतिक्रमण बताया गया। कई मामलों में यह भी देखा गया कि नोटिस केवल एक दिन पहले मिला और किसी में पुरानी तारिख में भी नोटिस जारी हो गया। एक पल के लिए मान भी लिया जाए कि वे दुर्दांत अपराधी रहे होंगे लेकिन क्या फिर इसी न्याय व्यवस्था को हमारे गणतंत्र की व्यवस्था माना जाए। उस रिपब्लिक में किसी का यकीन कैसे होगा, जिसमें से पब्लिक ही गायब हो। कुछ देर के लिए ताली मीडिया में ताली बजवाकर, लंबे समय के लिए आमजन में डर पैदा कर देना किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार का मकसद कैसे हो सकता है ? वह ऐसा अन्याय कैसे कर सकती है जिसे वह फिर चाहकर भी पलट न सके? सुनवाई के बाद अगर कोई गुनहगार साबित नहीं हुआ तो क्या  व्यवस्था इस मलबे को घर में तब्दील कर सकती है ?


 उदयपुर निवासी रशीद खान ने 'बुलडोज़र न्याय'  के  कारण उस पर हुए अन्याय को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई है। राशिद के माकन में दो किराएदार रहते थे। महीने में 7 हजार रुपए किराया आता था। इस मकान में एक किराएदार सलीम शेख भी परिवार के साथ रहता था। 16 अगस्त 2024 को किराएदार के नाबालिग बेटे ने अपने स्कूल के एक छात्र को चाकू मार दिया। इससे पूरे क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव हो गया। 16 अगस्त की ही रात को मकान पर नोटिस लगाया  गया और  20 अगस्त को मकान को ढहा दिया गया ।' आखिर यह  किसके गुनाहों की सज़ा किसे दी गई थी ? बिना किसी ट्रायल और सुनवाई के। व्यवस्था को यूं छिन्न -भिन्न करने के पीछे क्या यह माना जाए कि सरकार का अपने ही सिस्टम में कोई यकीन नहीं है। अगर ऐसा है तो फिर जनता का उस सरकार पर कैसे यकीन बना रहेगा, जिसे वह अपने हर खर्च और आय पर टैक्स देती है ?


'बुलडोज़र न्याय' ने एक साल पहले हरियाणा के मेवात से सटे नूंह में भी बड़ी तबाही मचाई थी। एक साथ 250 छोटी-बड़ी दुकानें, होटलें और घर नष्ट कर दिए है थे। यह डेढ़ किलोमीटर का इलाका अलवर-दिल्ली के हाई-वे का था। तब पंजाब और हरियाणा की बेंच ने कहा था यह नस्लीय कार्रवाई है, ,'एथनिक क्लींज़िंग' है। उनकी इस टिप्पणी के बाद नूंह हिंसा के तमाम  मामलों को ही किसी और बेंच को सौंप दिया गया। बहरहाल, सरकारी अधिकारियों द्वारा दंगाइयों, उपद्रवियों, पत्थरबाजों, प्रदर्शनकारियों, अल्पसंख्यकों और अपराध के आरोपियों की कथित अवैध संपत्तियों को गिराए जाने की बढ़ती घटनाओं के साथ मीडिया द्वारा गढ़ा गया शब्द  'बुलडोजर न्याय' त्वरित न्याय तंत्र का नैरेटिव गढ़ता है। राज्य सरकारें कथित दंगाइयों और प्रदर्शनकारियों को दंडित करने के लिए उनके घरों, दुकानों या किसी भी निर्माण को जेसीबी के उपयोग से गिराकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की दिशा में बढ़ती दिख रही हैं। इस प्रणाली के समर्थक इसे न्यायपालिका की धीमी प्रक्रिया के विपरीत त्वरित न्याय देने की फटाफट प्रणाली के रूप में स्वीकार करते हैं। अधिकारी दावा करते हैं यह तो महज़ एक अतिक्रमण विरोधी अभियान है। प्रयागराज में जिस मानव अधिकार कार्यकर्त्ता जावेद मोहम्मद की संपत्ति ध्वस्त की गई उस पर आरोप था कि उसने बीजेपी प्रवक्ता नूपुर शर्मा की  एक टीवी चैनल पर डिबेट के दौरान पैग़म्बर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी  के बाद एक आंदोलन का नेतृत्व किया। जावेद मोहम्मद के वकीलों का कहना है कि जिस घर को प्रयागराज डेवेलपमेंट अथॉरिटी ने गिराया था, उसके मालिक जावेद मोहम्मद नहीं बल्कि पत्नी परवीन फ़ातिमा हैं। कानून कहता है  बिना नोटिस दिए, अपराध के आरोपी की कथित अवैध संपत्तियों को गिराना कानून के शासन का उल्लंघन है। यह गैंगवार और कंगारू कोर्ट से कतई अलग नहीं है। 

 


'बुलडोज़र जस्टिस' के मूल में अगर कुछ होता है तो वह होती है पुलिस की एफआईआर। यहीं से फिर आरोपी की कुंडली खंगाली जाती है और इसी आधार पर आरोपी पर बुलडोज़र एक्शन होता है। एक्शन ना होने पर मुकदमा अदालत में जाता है जहां बरसों तक सुनवाई के बाद फैसला आता है। ऐसे में अक्सर यह भी होता है कि पुलिस के गवाह पलट जाते हैं,उसकी तफ़्तीश अदालत में कहीं ठहर नहीं पाती और आरोपी बरी हो जाता है। भारत में औसतन 54  फ़ीसदी (2022) से भी कम मामले अदालतों में टिक पाते हैं जबकि फ्रांस जैसे देश का कन्विक्शन रेट 95 -98 फ़ीसदी है। ऐसा इसलिए क्योंकि  स्पष्ट दीवानी कानून (सिविल लॉ) हैं  और सुनवाई से पहले ही जज गहरी जांच का आदेश देते हैं। आधी-अधूरी जांच सुनवाई तक पहुंचती ही नहीं, इसलिए फ़र्ज़ी केस ख़ुद ही औंधे मुंह गिर जाते हैं। इंग्लैंड में कन्विक्शन रेट 85 फीसदी के लगभग है और अमेरिका में 90 फीसदी है। हमारे यहाँ पुलिस जांच कम और मामले ज़्यादा दर्ज़ करती है। जांच के लिए ट्रेनिंग का पुख़्ता होना भी ज़रूरी है। पुलिस को पुलिसिंग करने के मौके कम हैं। सियासी हवा हावी रहती है। सिस्टम बड़े बदलाव की मांग करता है। जनता के हिस्से अभी शांति और सुकून नहीं आया है। क्या लोकप्रिय प्रधानमंत्री को को यह नहीं पता है कि उनके बड़े कार्यकाल में न्याय के दो तरीके हो गए हैं ?

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