टू स्टेट्स: न कोई जीता ना कोई हारा


हरियाणा और जम्मू कश्मीर के चुनावी नतीजों ने तो नई-नई थ्योरियों की बाढ़ ला दी है। खासकर हरियाणा ने तो जैसे जलेबी को चाशनी में नहीं पानी में घोलकर कांग्रेस को पिला दिया है। वह हक्की, बक्की और भौंचक्की है कि जब उसकी रैलियों में भारी भीड़ जुट रही थी; किसान भीतर से उद्वेलित था ;जवान अग्निवीर का जला था ;पहलवान खून के आंसू रो रहे  थे तब जीत कैसे भारतीय जनता पार्टी के हाथ लग गई ? छोटे-मोटे तमाम दलों का तो यहां सूपड़ा ही साफ़ हो गया। सीधी टक्कर भाजपा और कांग्रेस में। सारी हवा कांग्रेस के पक्ष में ,हवा के बाद सभी एग्जिट पोल भी कांग्रेस को कांधे पर बैठाए हुए लेकिन जब नतीजे आए तो खुद भाजपा को भी यकीन नहीं हुआ क्योंकि ढोल की आवाज़ तो कांग्रे


सी खेमों से आ रही थी। कांग्रेस के लिए बजने वाले ढोल-नगाड़े सुबह दस बजे बाद भाजपा के लिए बजने लगे। साठ  सीटों पर आगे चल रही कांग्रेस लुढ़कने लगी और फिर तो भाजपा ने हैट्रिक ही  लगा डाली। लोकसभा चुनाव में 240 सीटों पर अटकी भजपा को हरियाणा की 48 सीटों ने जैसे संजीवनी बूटी दे दी। यहां तो पार्टी जी गई लेकिन जम्मू- कश्मीर में  माइक्रो मैनेजमेंट काम नहीं कर पाया। जम्मू ने उम्मीद से कम सीटें दीं और घाटी में तो भाजपा का खाता भी नहीं खुला। वह यहां 19 सीटों पर लड़ी और एक को छोड़ किसी सीट पर ज़मानत भी न बचा सकी।  हालत वैसे भी नहीं रहे कि राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जा सकने वाले पांच विधायक भी कोई टेका लगा सकें। तब तो मुकाबला एक-एक से बराबरी पर रहा । एक भाजपा, एक इंडिया गठबंधन। ऐसे ही तो चुनाव लड़ा गया था लोकसभा का। 

मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी सरकार के 11 में से नौ मंत्री चुनाव हार जाते हैं जो बताता है कि जनता सरकार से नाराज़ थी। फिर भी हरियाणा में इतिहास बन जाता है। एक ही पार्टी की लगातार  तीसरी बार सरकार बन जाती है। मंहगाई बेरोज़गारी के मुद्दे औंधें मुंह पड़े उखड़ी-उखड़ी सांसें लेने लगते हैं।  कांग्रेस हार का ठीकरा वोटिंग मशीनों के सर फोड़ना चाहती है। वह फोड़ सकती है लेकिन कभी अपने भीतर क्यों नहीं झांकती कि उसके हर राज्य में ऐसे दो (कहीं-कहीं तीन) नेता क्यों होते हैं जो आपस में ही लड़ -झगड़ रहे होते हैं। अब तो यह हास्यास्पद भी लगता है कि एक बड़ा नेता आकर इन राज्य के नेताओं को कभी हाथ पकड़कर मिलवाता है ,कभी एक बाइक पर बैठाता है ,कभी दाएं बाएं चलाकर यात्रा पूरी करता है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट एक दूसरे पर हमले करते रहे थे ,राजस्थान हाथ से निकल गया। छत्तीसगढ़ में टी एस सिंहदेव और भूपेश बघेल आपस में लड़ते रहे वह भी कमल का हो गया। मध्यप्रदेश में अब तो लड़ाई का कोई सिरा ही नहीं मिलता इससे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया,कमलनाथ और दिग्विजय सिंह आपस में ही रेस लगाते रहे थे। वहां भी कांग्रेस की लुटिया डूबी हुई है। पता नहीं कैसे कर्नाटक में डी के शिवकुमार और सिद्धारमैय्या अब तक साथ चल रहे हैं वर्ना कुर्सी को लेकर रस्साकशी यहां भी कुछ कम नहीं थी। ये नेता आपस में लड़ते रहते हैं और मान बैठते हैं कि जनता भाजपा से ऊबकर उन्हें ही वोट देगी। जनता अचानक उन्हें ठेंगा दिखा देती है। 

हरियाणा में भी जीत से पहले ही कांग्रेस के सभी नेता मुख्यमंत्री बन गए। राहुल गांधी ने जनता के सामने एक रैली में कुमारी शैलजा और भूपेंद्र हुड्डा के हाथ तो मिलवा दिए लेकिन बात नहीं बनी क्योंकि इनके बयानों से दूरी बयां होती थी। कांग्रेस हरियाणा में बुरी तरह चूकी है। यूं कांग्रेस के  90 में से 37 विधायक जीते हैं। लोकतंत्र के लिए यह एक मजबूत विपक्ष है। चाहें तो ये राज्य सरकार को जनता के काम करने के लिए लगातार मजबूर कर सकते हैं। एक शक्तिशाली विपक्ष ही ,अगली बार मज़बूत पक्ष होकर चुनाव जीत सकता है लेकिन ये केवल सैद्धांतिक बातें लगती हैं। कांग्रेस ने लगातार दो मौके खोए हैं। इस बार तो जीत का निवाला जैसे मुंह को लगकर निकल गया। यह ज़रूर है कि जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि कांग्रेस के साथ होने से हमें फायदा हुआ। जनता ने हम पर ज़्यादा भरोसा किया। 


जम्मू -कश्मीर में भाजपा की माइक्रो इंजीनियरिंग सही नहीं बैठी। जम्मू में केवल 29 सीटें मिलीं और ऐसा नए सिरे से हुए परिसीमन के बाद हुआ है।अक्टूबर 2019 तक यह राज्य था। परिसीमन आयोग ने सात सीटें बढ़ाने की सिफ़ारिश की थी। इसके बाद जम्मू में 37 से 43 और कश्मीर में 46 से 47 सीटें हो गईं थी। घाटी में पुराने खिलाड़ियों को बाहर से समर्थन देकर भी भाजपा एनसी के वोट नहीं काट सकी। उमर अब्दुल्ला ने जबरदस्त वापसी की है। लोकसभा में  बारामुला से उन्हें निर्दलीय इंजीनियर रशीद ने हराया था। रशीद ने यह चुनाव तिहाड़ जेल से लड़ा था। उन्हें इन चुनाव में जेल से छोड़ दिया गया था। इस बार वे कमाल नहीं कर सके। पीडीपी (पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ) की महबूबा मुफ़्ती को विधानसभा में केवल तीन सीटें मिलीं। उनकी बेटी भी चुनाव हार गईं। नेशनल कांफ्रेंस 42 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनीं। उमर दोनों सीटों से चुनाव जीते। वे चुनावी सभाओं में अपनी पगड़ी उतारकर लोगों से कहते थे कि अब इसकी इज़्ज़त आपके हाथों में है। उनके ऐसा कहने पर लोगों की आंखें बरबस ही बरसने लगती थीं। राज्य का दर्जा वापस लेने, धारा 370 और 35 ए को हटाए जाने के बाद क्षेत्र में यह पहला चुनाव था। वाक़ई यहां की जनता को इस दिन का बेसब्री से इंतज़ार था और उसने बढ़ -चढ़ कर मतदान में हिस्सा भी लिया। यह भी तथ्य रहेगा कि भाजपा के सबसे बड़े फैसले ने देश में उसे समर्थन दिया हो लेकिन घाटी में उसे कोई जीत नहीं मिली। कुछ वैसे ही हैसे अयोध्या -फैज़ाबाद सीट से वह चुनाव हार गई। नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठजोड़ ने पांच सीटों पर  दोस्ताना चुनाव लड़ा था। नेशनल कांफ्रेंस तो दो सीटें जीत गईं ,कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली। बहरहाल अब जम्मू कश्मीर की सियासत को दिल्ली जैसी नहीं बनना चाहिए और राज्य का दर्जा देने में देरी नहीं करनी चाहिए। 

एग्जिट पोल  का बोरिया बिस्तर अब उठ जाना चाहिए। ये थोक के भाव में गलत साबित हुए। दो दिन तक टीवी चैनल चीखते रहे कि हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बनने जा रही है और जम्मू कश्मीर में तो मामला त्रिशंकु रहेगा। दोनों में हुआ ठीक उल्टा। पता नहीं इन्हें जनता ने गलत जानकारी दी या इनकी तकनीक में ही खोट है। आम चुनावों में भी ये गलत साबित हुए। तब तो बड़े टीवी चैनल पर आकर इनके कर्ता-धर्ता रो भी लिए थे इस बार तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। आखिर इस  एग्जिट 'पोलमपोल' की ज़रूरत ही क्या है ? इन चुनावों में आरएसएस को लेकर भी खूब बातें कहीं जा रही हैं। एक पक्ष का कहना है कि अब प्रधानमंत्री मोदी की साख बढ़ चुकी है। अब केंद्र को ज़्यादा नहीं कसा जाएगा। अहंकारी होने और भगवान बताने को लेकर जो बयान दिए जा रहे थे, अब नहीं कहे जाएंगे। हरियाणा ने हवा बदल दी है और महाराष्ट्र, झारखंड की राह के कांटें भी बोथरे कर दिए हैं। यहां भी जल्द चुनाव होने हैं। दूसरी थ्योरी के मुताबिक आरएसएस जो भाजपा अध्यक्ष नड्डा जी के बयान के बाद ख़फ़ा हो गई थी और स्वयं सेवक आम चुनावों में घर से नहीं निकले थे उन्होंने हरियाणा में कमान फिर संभाल ली थी। मोहल्ले मोहल्ले जाकर 16 हज़ार बैठकें ली और घर-घर जाकर प्रचार किया। इसी से नतीजों की दिशा भी बदली। दो राज्यों के इन चुनावों में जम्मू और कश्मीर का चुनाव ,चुनाव आयोग के लिए बड़ी चुनौती था । सर्वोच्च न्यायालय की तय मियाद में चुनाव  हुए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यहां की सरकार जनता के लिए  फ़ैसले लेने की हालत में जल्द आएगी अन्यथा इन चुनावों के कोई मायने नहीं हैं। 





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