'एक देश एक चुनाव' हाँ कि ना !

 देश के पांच राज्यों में चुनाव निर्धारित हो चुके हैं। तारीख़ें भी घोषित हो चुकी हैं। अब फर्ज़ कीजिये कि इन राज्यों के मतदाताओं को यदि देश के लिए भी मतदान (अगर कुछ राज्य में होते भी हैं) करना पड़े तो क्या यह उन पर किसी तरह का अतिरिक्त बोझ होगा या यह बिल्कुल सहज होगा? देश, प्रदेश और फिर स्थानीय मुद्दे क्या गड्डमड्ड नहीं होंगे? या यह ठीक होगा कि देश के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए मतदाता अपने विधायक और पार्षद को भी चुन लें या फिर स्थानीय मुद्दों के हिसाब से देश के लिए अपने सांसद चुन लें? तीन तरह के प्रत्याशी एक साथ उनके दरवाज़ों पर आएंगे। यूं सभी आते भी कहाँ हैं फिर भी क्या यह हालात कोई दुविधा पैदा नहीं करेंगे?

हाल ही में राजस्थान चुनाव को लेकर निर्वाचन आयोग ने जो अपने फैसले पर दोबारा विचार न किया होता तो उसका चकरघिन्नी होना तय ही था। तारीख़ बदलने का पूरे राजस्थान में स्वागत हो रहा है। पहले आयोग ने राजस्थान में चुनाव की तारीख़ 23 नवंबर घोषित की थी। यह तिथि बदलनी पड़ी क्योंकि उस दिन देवउठनी एकादशी है। राज्य भर में हज़ारों शादियां इस दिन होती हैं। इसे 'अबूझ सावा' माना जाता है यानी ब्याह शादी के लिए सबसे शुभ मुहूर्त है जिसमें पंडित से पूछने की भी कोई ज़रूरत नहीं। ब्याव और चुनाव के इस टकराव में ब्याव जीते। अब विधानसभा चुनाव की नई तारीख़ 25 नवंबर है। 

कहने का आशय यह है कि जब मतदाता की सहजता और सुविधा को यहां तवज्जो दी जा रही है तो फिर उसे एक साथ तीन-तीन चुनावों की दुविधा में क्यों डाला जा रहा है। 'एक देश एक चुनाव' का यही तो मकसद है कि लोकसभा, विधानसभा और नगर निकायों के चुनाव एक साथ करा लिए जाएं, संविधान में चार-पांच संशोधन कर दिए जाएं, कुछ विधानसभाएं भंग कर दी जाएं, कुछ के समय से पहले ही चुनाव करा लिए जाएं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 'एक देश एक चुनाव' के लिए गठित समिति में आठ सदस्य हैं और समिति ने कह दिया है कि राज्यों से पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है और इसे प्रस्तावित परिसीमन के बाद 2029 में लागू किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि परिसीमन के बाद नई  सीटें बनाकर महिला आरक्षण को और फिर देश को एक चुनावी मोड में डाला जा सकता है। 'नारी शक्ति वंदन विधेयक' का तो तह ए दिल से स्वागत हुआ लेकिन क्या जनता एक ही बार में चुनाव के लिए तैयार है? 

वोटर हर चुनाव में अलग तरीके से सोचता है। देश, प्रदेश और नगर निकायों में प्राथमिकताएं अलग होती हैं। मुद्दे भी अल्हदा होते हैं। नगर निकाय के ज़रिये वह मोहल्ले में अच्छे पार्क और साफ़-सफाई की अपेक्षा करता है तो प्रदेश में उसे बिजली, सड़क, पानी, अच्छे स्कूल और उम्दा स्वास्थ्य केंद्रों की अपेक्षा होती है। देश में शायद उसे आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता का मुद्दा प्रभावित करता हो। जब सबकी  भूमिकाएं अलग-अलग हैं तब सब एक साथ क्यों? एक ही समय में मतदाता पर इतना  बोझ लादने की क्या ज़रूरत है? उसे कंफ्यूज क्यों करना है? ये कैसे ठीक होगा कि एक ही दिन में वह तीन अलग-अलग ठप्पे लगा आए और जो ऐसा नहीं होगा तो फिर सारी कवायद  का क्या फायदा? खर्च बचने का तर्क  फिर कैसे काम करेगा?  


इसमें जनता का फायदा तो उतना नहीं है लेकिन नेताओं का बेशक है जिन्हें  बार-बार चुनावों में दौरे करने पड़ते हैं। अगली बार वे चाहते हैं कि एक ही बार निकलें और सारे काम हो जाएं। ठीक वैसे ही जैसे फसल अच्छी होने पर अक्षय तृतीया का मुहूर्त देखकर किसान अपने सारे  बच्चों की शादी एक साथ कर देता है; फिर चाहे बच्चों की उम्र शादी लायक हो या न हुई हो। एक ही बार बिरादरी को भोजन कराना पड़ेगा, बच्चों की उम्र, मर्ज़ी आदि कोई मायने नहीं रखती। केंद्र की सरकार भी यही करने जा रही है। कोविंद की अध्यक्षता में 'एक देश एक चुनाव ' के लिए आठ सदस्यीय समिति का गठन कर दिया गया है। समिति में गृहमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी, राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आज़ाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह तथा वकील हरीश साल्वे  शामिल हैं। चौधरी एक महीने पहले ही इसमें शामिल होने से इंकार कर चुके हैं। उनका कहना था कि समिति का निर्णय मंथन से पहले ही तय कर दिया गया है इसलिए इसका कोई औचित्य नहीं रह गया है। गौरतलब है कि लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट लोकसभा और विधानसभा के एक साथ चुनाव को लेकर सौंपी थी लेकिन समिति ने निकाय चुनावों को भी शामिल कर लिया है। 

सबसे पहले 1983 में चुनाव आयोग ने 'एक देश एक चुनाव' पर अपनी औपचारिक रिपोर्ट दी थी। आयोग का कहना था कि लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ कराने से खर्च की बचत होगी और देश बार-बार चुनाव कराने के भार से भी मुक्त होगा। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इस विचार के मुखर समर्थक थे। उन्होंने 1999 में चुनकर आने के बाद 'एक देश एक चुनाव' के विचार को दोहराया। फिर 2017 में नीति आयोग ने चुनाव से जुड़े  टाइम टेबल को व्यवहारिक जामा पहनाया। बाद में लॉ कमीशन ने भी इस पर अपना मसौदा पेश किया। जनवरी, 2018 में जब कोविंद राष्ट्रपति थे तब उन्होंने अपने भाषण में 'एक देश एक चुनाव' का ज़िक्र  भाजपा सरकार के बड़े सुधार के रूप में किया था और अब वे ही इस समिति के अध्यक्ष भी हैं। सरकार इसे लागू करने के लिए लगभग तैयार भी मालूम हो रही है। वैसे कहा जाता है कि औसतन हर तीन महीने में देश में कहीं न कहीं चुनाव होते हैं। ऐसा तब भी होगा जब कोई सरकार अल्पमत में आएगी, किसी सदस्य का देहांत होगा या किसी सरकार को केंद्र ही बर्खास्त न कर दे। 1967 तक देश में एक साथ ही चुनाव होते थे। फिर केरल की सरकार को बर्खास्त किये जाने के बाद यह सिलसिला टूटा और उसके बाद तो देश ने कई भंग सरकारें, मध्यावधि चुनाव और उपचुनाव देखे। यदि केंद्र के पास राज्यों की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करने की शक्ति (अनुच्छेद 356) बनी रहेगी तब 'एक देश एक चुनाव' के कोई मायने नहीं है। 

फ़िलहाल सरकार को राज्यों की सहमति भी अब ज़रूरी नहीं मालूम हो रही। ऊपर से लिए गए फैसले के साथ यह व्यवस्था राज्यों की स्वतंत्रता को कितना बरक़रार रख पाएगी और भविष्य में यह किस रूप में सामने होगी, इस पर गहन विचार के बाद ही इसे लागू किया जाना चाहिए। राज्यों, शहरों और गांवों की अपनी आज़ादी ही देश के मज़बूत लोकतंत्र की बुनियाद है जिसका हनन नहीं होना चाहिए। अभी पांच राज्यों में चुनाव होने हैं और भारतीय जनता पार्टी का सशक्त चेहरा कोई है तो देश के प्रधानमंत्री नरेन्द मोदी हैं। राज्यों के चुनाव में भी पार्टी ने उन्हें ही आगे रखा है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ऋषिकेश में शांति तलाश रहे थे, राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया को ड्राइविंग सीट से हटाकर पिछली सीट पर डाल दिया गया है और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख़्यमंत्री रमन कुमार कुछ-कुछ लौटे हैं और कुछ शांत बने हुए हैं। वोट प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही मांगे जा रहे हैं। चुनाव अलग-अलग भी हों अगर जो चेहरा एक ही शख्सियत का रहना है तो फिर एक देश एक चुनाव की भी क्या ज़रूरत है? ख़ैर, यह मज़ाक की बात नहीं है। इसे लागू करने से पहले इस पहलू पर गहरा विचार होना चाहिए कि एक चुनाव देश की संघीय व्यवस्था को कितनी मज़बूती देगा।

एक व्यक्ति और एक मुद्दे की लहर किसी भी बड़ी पार्टी को बेलगाम ताकत दे सकती है। क्षेत्रीय पार्टियों और निर्दलियों  का सूपड़ा साफ़ होने की आशंका हमेशा रहेगी। पब्लिक पॉलिसी से जुड़े मुद्दों के एक अध्ययन के मुताबिक देखा गया है कि अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो 77 फ़ीसदी मतदाता दोनों जगह एक ही पार्टी को मत देते हैं और जो दोनों चुनावों में छह महीने का अंतर है तो एक ही पार्टी को वोट देने की सम्भावना 77 की बजाय 61 प्रतिशत रह जाती है। ज़ाहिर है कि इस सोच की  गंगा में कौन सा दल डुबकी नहीं लगाना चाहेगा?

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