विश्वास क्यों बदल गया अविश्वास में
समय-समय पर सरकार के प्रवक्ता बतौर दिए गए उनके भाषण और तमाम विवादों के बीच जया बच्चन और ममता बैनर्जी के साथ हुए उनके तल्ख़ संवाद भी सभापति महोदय के स्वाभाव की ओर इशारा करते हैं
आज़ाद भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है जब किसी सभापति के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया गया है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ जो उच्च सदन राज्यसभा के सभापति भी हैं ,विपक्ष ने उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाकर पद से हटाने की तैयारी कर दी है। ऐसा तब है जब विपक्ष के पास कोई बहुमत नहीं है और तटस्थ सियासी दलों ने कह दिया है कि उनसे किसी भी तरह के कोई समर्थन की मांग नहीं की गई है।गणित विपक्ष के पक्ष में नहीं है फिर क्या है जो विपक्ष को ऐसा करने के लिए मजबूर कर रहा है ? बीच-बीच में बिखरने का संकेत देने वाला इंडिया गठबंधन यहां एक है और उसका एक स्वर में आरोप है कि संसद में उपराष्ट्रपति का व्यवहार पक्षपातपूर्ण है और यह व्यवहार नियमों को छोड़ राजनीति की बात करता है। संविधान के अनुच्छेद 67 के तहत यह पहली बार है कि उपराष्ट्रपति के खिलाफ ऐसा प्रस्ताव लाया जा रहा है। ऐसे में वे कोई दिशा-निर्देश नहीं दे सकेंगे लेकिन सदन में मौजूद रह सकते हैं। सदस्य के बतौर उन्हें प्रस्ताव पर मतदान का अधिकार भी नहीं होगा। अतीत में बतौर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल और सांसद जया बच्चन के नाम को लेकर हुई बहस में भी जगदीप धनकड़ काफ़ी चर्चा में रहे थे। ताज़ा घटनाक्रम यह है कि भारी हंगामे के बीच इस अविश्वास प्रस्ताव के जवाब में सत्ता पक्ष निंदा प्रस्ताव ले आया है।उसका कहना है कि यह धरतीपुत्र और पद दोनों का अपमान है।
दरअसल विपक्ष और सभापति के बीच तनाव पुराना है। उन्होंने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बीते साल शीतकालीन सत्र में विपक्ष के 146 सांसदों को निलंबित कर दिया था। यह बड़ी कार्रवाई थी। सवाल यही है कि आख़िर सांसद बोलने के लिए वक्त ही तो मांग रहे थे। शोरगुल से बोलना बेहतर है। बोलने का मौका मिलेगा तब जनता अपने आप तय कर लेगी कि उसके सांसद ने उसके हक़ में कितनी आवाज़ बुलंद की है। अभी तो लगता है जैसे इस व्यवस्था में किसी का भरोसा ही नहीं है। सारे सत्र हंगामों के कुंए में कुदते हुए नज़र आते हैं।अजीब हालात हैं। अखाड़ा कहना भी मुनासिब नहीं लगता क्योंकि कुश्ती के भी कायदे होते हैं। विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाता है तो सत्तपक्ष निंदा प्रस्ताव की बात करता है। विपक्ष आदाणी पर चर्चा की मांग करता है तो सत्तापक्ष सोनिया गांधी से जॉर्ज सोरोस के लिंक की बात करने लगता है। लगता है सब जैसे अपनी अपनी सियासी रोटी सेक रहे हैं ताकि कोई दूसरा उनकी रोटी ना पलट दे। लोकतंत्र के लिए यह संकेत शुभ नहीं है।
सभापति धनकड़ ने कभी भी नियम 267 के तहत चर्चा पर मंज़ूरी नहीं दी है । वे अगस्त 2022 से उपराष्ट्रपति हैं। उनसे पहले पूर्व उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने ज़रूर नोटबंदी पर चर्चा को स्वीकृति दी थी। शंकर दयाल शर्मा जब राजयसभा के सभापति थे तब उन्होंने चार बार,भैरोसिंह शेखावत (2004 ) ने एक साल में तीन बार और हामिद अंसारी ने 2013 -2016 के बीच चार बार चर्चा कराई थी। आखिर अब क्यों यह लगभग बंद हो गई है? राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एक प्रेसवार्ता में कहा-" 16 मई 1952 को देश के पहले उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधा कृष्णन ने सदन में कहा था कि मैं किसी भी पार्टी का नहीं हूं और हर पार्टी से जुड़ा हुआ हूं जबकि वर्तमान सभापति कभी खुद को आरएसएस का एकलव्य बताने लगते हैं, कभी सरकार की शान में कशीदे पढ़ने लगते हैं ,कई अनुभवी सांसदों की हेडमास्टर की तरह स्कूलिंग करते हैं और प्रवचन सुनाते हैं। विपक्ष के लोग पांच मिनट बोले तो दस मिनट का भाषण उनका खुद का होता है।"
क्या वाकई ऐसा है कि उपराष्ट्रपति सरकार की शान में कशीदे पढ़ते हैं ? उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ के भाषणों की पंक्तियों पर गौर कीजिये -"सबसे कमज़ोर पांच से निकलकर पहली पांच सबसे बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था तक पहुंचना असंभव था। महात्मा गांधी का सपना भ्रष्टाचार का अंत अब पूरा होने वाला है। अब फैसले ज़िम्मेदारी और पारदर्शिता से लिए जा रहे हैं। अब कोई आपकी प्रतिभा को कमज़ोर नहीं कर सकता।" यह बात उन्होंने मोतिहारी के महात्मा गांधी विश्वविद्यालय में दिसंबर 2024 में कही थी। इसी साल 8 दिसंबर को उन्होंने कहा -"कुछ ताकतें देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचने और हमारी अर्थ व्यवस्था को निष्क्रिय बनाने का षड्यंत्र रच रही हैं ,हमें इन्हें कुचलना होगा"। इसी साल आईआईटी कानपुर में उन्होंने कहा था कि पिछले दशक में भारत ने अद्भुत परिवर्तन देखा है भूमि ,समुद्र,आकाश,और अंतरिक्ष में हमारी उपलब्धियां विश्व स्तर पर सराही जा रही हैं। 2023 में उन्होंने कहा -"भारत जब तेजी से आगे बढ़ रहा है,कुछ लोग इसे बदनाम करने का संकल्प लेकर बैठे हैं। ऐसी ताकतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना आपकी ज़िम्मेदारी है। "
किसी को यह तारीफ़ और उकसाने का काम सामान्य लग सकता है लेकिन राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के ये संवैधानिक पद पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठने की मांग करते हैं, तभी संसदीय व्यवस्था भी बनी रह सकती है। ऐसा नहीं है कि अतीत में इस सीमा-रेखा को लांघा नहीं गया लेकिन व्यवस्था इसकी आज्ञा नहीं देती है और अब यह पहला अविश्वास प्रस्ताव बन गया है । कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर 2022 के शीतकालीन सत्र में उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने संसद में अपने पहले ही भाषण में न्यायपालिका पर निशाना साधा था और फिर वे जयपुर के पीठासीन अधिकारियों के सम्मलेन में भी मुखर रहे। लगभग चेतावनी देने वाले अंदाज़ में उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) विधेयक को रद्द करने के लिए न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा की याद दिलाई थी। दरअसल, इस बिल के लिए 99 वां संवैधानिक संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों से पास हुआ था, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने चार-एक से खारिज कर दिया था। इस बिल के खारिज होने को लेकर राज्यसभा के सभापति ने कहा था कि "यह उस जनादेश का अपमान है, जिसके संरक्षक उच्च सदन (राज्यसभा) और लोकसभा हैं।" उन्होंने कहा कि एक संस्था द्वारा, दूसरे के क्षेत्र में किसी भी तरह की घुसपैठ, शासन को असहज करने जैसी होती है। यह टिप्पणी न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच गतिरोध को दर्शा रही थी।
उपराष्ट्रपति बनने से पहले जगदीप धनकड़ पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे। उनका यह कार्यकाल सर्वधिक विवाद में रहा था। इसका कुछ श्रेय ममता बैनर्जी को भी दिया जा सकता है लेकिन उन पर आरोप था कि वे विधेयकों को दबाकर बैठ जाते हैं। यह तू-तू,मैं- मैं पूरे समय चली और शायद भाजपा उनके ज़रिये बंगाल में पैठ बनाना चाह रही थी। सवाल यही कि सरकार अपनी छवि बनाने के लिए इन संवैधानिक पदों का किस हद तक इस्तेमाल करती है।राज्यसभा सांसद जया बच्चन को जया अमिताभ बच्चन कहने पर जब सांसद ने उनसे कहा कि मैं एक कलाकार हूं और बॉडी लैंग्वेज समझती हूं,एक्सप्रेशन समझती हूं और माफ़ करियेगा आपका टोन जो है .. और उसके बाद उन्होंने हाथ से अस्वीकार की मुद्रा बनाते हुआ कहा कि यह स्वीकार नहीं है। । तब सभापति ने तीखे स्वर में कहा -"आप बेहद सम्मनित अभिनेत्री हैं लेकिन एक एक्टर डायरेक्टर का विषय होता है,आप वह नहीं देख पातीं जो मैं इस कुर्सी पर बैठ कर देख पाता हूं,आप मेरी टोन पर बात करती हैं। आप होंगी सेलिब्रिटी लेकिन आपको सदन की गरिमा का ध्यान रखना होगा"- कहते हुए उनकी ज़ुबां सख्त हो गई थी। क्या वाकई सदन को ऐसे संवाद की ज़रूरत थी ? आखिर यह विश्वास, अविश्वास में क्यों बदला? क्या इस पर ईमानदारी से संसद में बहस होगी? इस पर संदेह क्यों होना चाहिए,लेकिन है।
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