मौत क्यों हो गुज़ारिश की मोहताज़
बीते सप्ताह ब्रिटेन के निचले सदन ने गंभीर रूप से बीमार रोगियों के लिए इच्छा मृत्यु से जुड़े एक बिल को भारी समर्थन दिया। बिल पर अपना समर्थन या विरोध जताने के लिए सांसदों पर पार्टी लाइन पर चलने की कोई अनिवार्यता नहीं थी ,वे अंतर्मन की आवाज़ पर वोट डाल सकते थे। तीखी बहस के बाद बिल के पक्ष में 330 में से 275 वोट पड़े थे जबकि 38 सांसद अनुपस्थित रहे। आगे यह सहायक मृत्यु विधेयक यदि कानून का रूप लेता है तो इस देश में गंभीर नागरिकों को जिनके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है, इच्छा से मौत को चुनने का हक़ होगा। विधेयक लेबर पार्टी के सांसद की ओर से पेश किया गया था। ऐसा विधेयक साल 2015 में भी लाया गया था जिसे संसद ने नकार दिया था। बीते कुछ सालों में ब्रिटेन के पांच सौ से ज़्यादा लोगों ने स्विट्ज़रलैंड जाकर इच्छामृत्यु का सहारा लिया जहां यह वैध है। अगर जो बात भारत की हो तो यहां भी लम्बे अर्से से बहस जारी है लेकिन फ़िलहाल कोई कानून नहीं है और ख़ुदकुशी अपराध है।
वह हिमालय की ओर पांडवों का अंतिम सफर था ,स्वर्ग प्राप्ति के लिए। कृष्ण के संसार छोड़ देने के बाद पांचों ने द्रोपदी के साथ यह निर्णय लिया कि वे अब स्वर्ग की ओर प्रस्थान करेंगे। यह भरपूर जीवन जी लेने के बाद का निर्णय था। चारों तरफ बर्फ की सफेदी जैसे चित्त को भी नीरव शांति से भर रही थी। वे चलते रहे और चलते-चलते एक-एक कर समाधिस्त होते रहे। कथा है कि केवल धर्मराज युधिष्ठिर ही अपनी देह के साथ स्वर्ग तक पहुंचे थे । द्वापर से कलयुग की ओर आते हैं। बात 2015 की है। जयपुर के रिटायर्ड कर्मचारी इंद्रजीत ठक्कर ने तत्कालीन राज्यपाल के आगे गुहार लगाई कि उनकी पत्नी नीना देवी दो साल से बिस्तर पर हैं। वे बाथरूम में फिसल कर गिर पड़ी थीं। हड्डी टूटने के बाद डॉक्टरों ने उनकी कूल्हे की हड्डी का ऑपरेशन किया। इलाज के डली रॉड के बाद शरीर में इन्फेक्शन हो गया और फिर ब्रेन स्ट्रोक। पत्नी कोमा में चली गईं। वे अपनी सारी जमा पूंजी लगा चुके लेकिन पत्नी को कोमा से बहार नहीं निकाल पा रहे थे । गुहार लगाई की पत्नी को दया मृत्यु दी जाए। यह बेबसी की गुहार थी लेकिन पत्नी सहमती देने की हालत में नहीं थी। ब्रिटेन का विधेयक उन मरीज़ों के लिए मौत की अनुमति देता है जिनके छह महीने से ज़्यादा जीने की उम्मीद नहीं है और वे अपनी मर्ज़ी से विशेषज्ञों की मौजूदगी में मरने का तरीका चुन सकते हैं।
दुनिया के कई देश इच्छामृत्यु ,दया मृत्यु या यूथनेशिआ को क़ानूनन सही मानते हैं। यूथनेशिआ ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ है अच्छी मृत्यु। एक ऐसा जटिल और भावनात्मक निर्णय जिसे लेकर दुनिया अब भी एकमत नहीं है और लगातार बहस कर रही है। कुछ मुल्कों में विशेष परिस्थितियों में इसकी छूट है। भारत में भी बेहद विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिआ की अनुमति है। यूं हर मनुष्य के गरिमापूर्ण जीवन की परिकल्पना की गई है और आज़ाद भारत में यह हक़ उसे संविधान भी प्रदान करता है। फिर ऐसा क्या है कि इंसान मृत्यु की कामना करने लगता है,वह अपने दुःख तकलीफ से मुक्त कानून के तहत यह आत्महत्या का अपराध है। इससे अलग जब कोई व्यक्ति अपनी वसीयत में यह लिख दे कि मेरी कष्टमई मृत्यु या असाध्य बीमारियों का जब कोई इलाज न बचे या मेरा जीवन लम्बे समय तक वेंटिलेटर पर निर्भर हो जाए तो मेरे परिजनों को यह हक़ होगा कि वे मुझे इच्छा मृत्यु प्रदान कर दें। मृत्यु को लेकर ऐसा भी भारतीय कानून में मान्य नहीं है। जीवन को शांति से त्यागने के लिए हमारे यहां संथारा या संल्लेखना का विकल्प मौजूद है। यह जैन समाज के कुछ तबकों में भरपूर जीवन जी लेने के बाद संसार से विदाई का मार्ग चुनने का अधिकार प्रदान करता है। दरअसल संथारा सांसारिक मोह को त्याग परम शक्ति में विलीन हो जाने का रास्ता है। इस व्यवस्था में अधिक उम्र वाले व्यक्ति मृत्यु के इंतज़ार में अन्न-जल त्याग देते हैं। कई ऋषि मुनियों समाधिस्थ हो जाने का विवरण भी ग्रंथों में है।
एक अन्य परिस्थिति भी रही जब भारतीय कानून दया मृत्यु की याचना पर ठिठका। अरुणा शानबाग (1948 -2015 )मुंबई के केईएम (किंग एडवर्ड मेमोरियल) हॉस्पिटल में नर्स थीं। उनकी शादी वहीं के रेजिडेंट डॉक्टर संदीप से होने वाली थी लेकिन साल 1973 में उसी अस्पताल के वार्ड बॉय ने उसे ज़्यादती का शिकार बनाया। बलात्कार के बाद उसे कुत्ते को बांधने वाली चैन से पीटा गया था। वह कोमा में चली गई। नर्स प्रमिला जिसने अरुणा को इस हाल में देखा था उनका कहना था कि उस समय अरुणा को थोड़ा होश था। 43 साल तक वह कोमामें रही। कभी -कभार आंखो की पुतलियां हिलती थीं। जिससे उसकी शादी होने वाली थी वह चार सालों तक अरुणा से मिलने आता रहा, फिर उसने भी घर बसा लिया। अरुणा 43 बरसों तक सांस ले सकी, इसका श्रेय वहां की करुणामई नर्सों को जाता है। बेहोशी के कारण वह ब्रेन डेड यानी मानसिक तौर पर मृत थी। सवाल यही कि ऐसे में जब जीवन मृतप्राय हो, दया मृत्यु क्यों नहीं मिलनी चाहिए ?
हालात को समझते हुए अरुणा की एक पत्रकार मित्र ने दया मृत्यु की याचना करते हुए अरुणा शानबाग बनाम भारत सरकार यह केस 2011 में लड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को भले ही ख़ारिज किया लेकिन पैसिव यूथनेशिआ को वैध करार दे दिया। अब अरुणा जैसे मामलों में खाना या लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाया जा सकता था। अनुच्छेद 226 के तहत पैसिव यूथनेशिआ की अनुमति मिल सकती है। ऐसा अदालतें 'पैरेंस पैट्रिया ' अधिकार के तहत करती हैं । यह लेटिन शब्द है जिसके मुताबिक उनके हक़ में निर्णय देना जिनकी लड़ाई लड़ने वाला अपना कोई नहीं है। तब अदालत अभिभावक की भूमिका में आ जाती है। बेशक एक्टिव यूथनेशिआ के लिए फिलहाल कानून में कोई जगह नहीं है। अपने होशो हवास में कोई मौत को गले नहीं लगा सकता और गंभीर बीमारी के मरीज एक इंजेक्शन लेकर भी जीवन समाप्त नहीं कर सकते।
बेल्जियम ,कनाडा ,कोलम्बिया,निदरलैण्ड,न्यूजीलैंड, स्विटज़रलैंड लक्सेमबर्ग ,स्पेन, और ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका के कुछ राज्य,पुर्तगाल (कानून के लागू होने का इंतज़ार) इन सभी देशों में इच्छामृत्यु के लिए कानून हैं। दक्षिण कोरिया में 2018 से पैसिव यूथनेशिआ वैध है और यहां तक आने के लिए देश को लम्बी बहस से गुजरना पड़ा। इच्छा मृत्यु के विपक्ष में सबसे बड़ी दलील यही है कि जीवन ईश्वर की देन है,इसलिए इसे वापस लेने का हक़ भी उसी को है। पक्षकारों का कहना है कि व्यक्ति के शरीर पर उसका अधिकार है। बीमारी के कारण व्यक्ति का दर्द सहनशक्ति की सीमा के परे जा चुका है ,तब दर्द से मुक्ति का अधिकार मिलना चाहिए।
एक हिंदी फिल्म गुज़ारिश (2010) इसी तकलीफ पर बनी है। कहानी में जादूगर एथन को लकवा मार जाता है। उसकी संवेदनशील बीवी है जो दिन-रात उसकी सेवा करती है। ऐथन इच्छामृत्यु चाहता है। वह अदालत में याचिका दाखिल करता है लेकिन कानून के अभाव में कानून उसे कोई मदद नहीं मिलती। अंत में कोई बेहद अपना उसे इस पीड़ा से हमेशा के लिए आज़ाद कर देता है। कहा जा सकता है कि जीवन कभी-कभी ऐसे मोड़ पर आ जाता है जहां उसे छोड़ने की नौबत आ जाती है। वक्त और इलाज कोई मरहम नहीं रखते। तब क्या इच्छा मृत्यु का विकल्प होना चाहिए ? भारत जैसे देश में जहां अब भी आम आदमी तक बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं ही नहीं पहुंची हैं, वहां गंभीर विचार भी केवल विशेष मामलों में ही संभव है। शायद इसीलिए इच्छामृत्यु से जुड़े कानून विकसित देशों में ही बन सके हैं। हमारे यहां तो मौत की राह देखते हुए असंख्य जीवन हर रोज़ बिना इलाज के दम तोड़ रहे हैं। बहरहाल इस की इजाजत तो कभी नहीं हो सकती कि एक व्यक्ति अपने परिवार को खर्च और तकलीफ से बचाने के लिए मौत की नींद सो जाना चाहता हो और उसने अपनी वसीयत में भी इस बात को लिख दिया हो।
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