'प्रधानमैत्री' की भूमिका में आएंगे प्रधानमंत्री !

ये हैरानी की बात है कि इंडिया गठबंधन की सरकार नहीं बनने के बावजूद उसके समर्थक लगातार ख़ुशी का इज़हार कर रहे हैं। कुछ ऐसा जैसा वे शायद चाहते तो थे लेकिन ऐसा हो जाएगा उसकी उम्मीद उन्हें कतई नहीं थी। कोई लिख रहा है जैसे सुकून उनके भीतर प्रवेश कर गया, जैसे लंबी घुटन के बीच कोई ठंडी हवा का झोंका आ गया हो जैसे अधिनायकवाद और अहंकार के मज़बूत किले भरभराकर ढह गए हैं। बेशक इन नतीजों ने सभी को चौंकाया है। देश जो अपने शासन में केंद्रीकृत होकर राज्यों को भूल रहा था ,वहां अचानक जैसे राज्य तरोताज़ा हो गए हों , राष्ट्र का वैविध्य जैसे फिर खिल उठा हो।  जैसे गुलदस्ते में कई रंग -बिरंगे फूल महकने लगे हों। सबसे ज़्यादा सीटों वाले उत्तरप्रदेश ने  सबसे ज़्यादा उलटफेर वाले परिणाम दिए, केरल ने भारतीय जनता पार्टी को भी अपना खाता खोलने में मदद कर दी। तमिलनाडु और पंजाब ने एक भी सीट भाजपा को नहीं दी तो दिल्ली, हिमाचल , मध्यप्रदेश,उत्तराखंड तो पूरे के पूरे भाजपा की झोली में समा गए। गुजरात ने एक सीट कांग्रेस को देकर चकित किया तो कश्मीर ने बड़े-बड़े नेताओं को धूल चटा दी। राजस्थान कांग्रेस ने लोकसभा सीटों पर जो धूल  का ग़ुबार छाया हुआ था उसे ही धो पोंछ दिया ,वर्ना वह दो बार से 25 की 25 सीटें हार रही थीं।  यहां कांग्रेस 11 सीटें लाकर इतनी खुश है जितनी  विधानसभा की हार पर भी दुखी नहीं थी। उड़ीसा ने विधानसभा की कमान भाजपा को सौंपकर 24 साल के बीजू जनता दल शासन को समाप्त किया। जनता ही जनार्दन है यह फिर साफ़ हो गया है। विपक्ष ने तो कह दिया है कि उनकी ओर से यह चुनाव जनता ने लड़ा है क्योंकि उसे दौड़ने के लिए मैदान भी उबड़-खाबड़ मिला  तो फिर जिसने खुद लड़ा, वह खुश क्यों नहीं है ? कहां चूक हुई उससे ? 

उनकी ओर से सब-कुछ ठीक था। अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो गया था ,कश्मीर से धारा 370 की विदाई हो चुकी थी, समान नागरिकता कानून को उत्तराखंड से देश में दाखिल करने की योजना समझा दी गई थी ,दुनिया में भारत पांचवीं सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था बन रहा है। मीडिया ने तीन में आने का डंका भी बजाया ,यहां तक यूक्रेन और फिलिस्तीन में छिड़े युद्ध विराम के श्रेय की भी खबरें भी बराबर चलीं थीं।  और तो और महिला आरक्षण (नारी शक्ति वंदन विधेयक) की गारंटी भी दी जा चुकी थी फिर ऐसा क्या हुआ कि जनता को अपनी तकदीर इससे मेल खाती हुई नहीं लगी। वह इन बुलंद छवियों को देख तो रही थी लेकिन उसकी अपनी हकीकत फटे-हाल थी। वह महंगाई से मुकाबला नहीं कर पा रही थी ,रोज़गार उसके लिए दूर की कौड़ी था,जो रोज़गार थे उनमें लगातार पेपर लीक हो रहे थे ,सेना की अग्निपथ  योजना से नौजवान खुश नहीं था। ज़िन्दगी एक आम भारतीय परिवार के लिए बस रेंग रही थी। यही विरोधाभास वोट खिसकने का कारण बना। अयोध्या में भाजपा हारी। वहां की जनता यही सब दोहरा रही है कि सड़क तो बनी लेकिन राह में उनके घर ,रोज़गार और आमदनी के ज़रियों को भी रौंदती  चली गई। उनकी तकलीफ रही कि जब उनका क़स्बा दुनिया के नक़्शे पर आस्था के साथ चमक रहा है तो उनकी ज़िंदगियों में अंधेरा क्यों है  ? 


 जनता जवाब चाहती थी कि कोई कैसे हर रैली में केवल अपनी बात करता है, उनकी परेशानियों की नहीं ? इस बार तो सीधे एक समुदाय को ही निशाने पर ले लेते हुए कहा गया कि तुम ज़्यादा बच्चे वाले हो ,तुम घुसपैठिये हों और दूसरी पार्टी लूटकर सबकुछ इन्हीं घुसपैठियों को देने वाली है।  यह अपने ही नागरिकों का अपमान था। जनता को अज्ञानी समझने की भूल।  आवाम की आवाज़  नेता को अपने दिल में सुनाई देते रहना चाहिए। इसमें जो भी चूक करेगा वह लोगों के दिलों से उतरने  लगेगा। बड़ा नेता एक मुल्क में दो ध्रुव नहीं बना सकता। उसे इस बात का अहंकार भी क्योंकर होना चाहिए कि वह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाना खिला रहा है और यह पुण्य तब ही लगेगा जब आप उन्हें वोट देंगे।उत्तर प्रदेश के बस्ती की चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यही कहा था। पूर्व में कांग्रेस के ऐसा करने पर प्रधानमंत्री तंज़ कसते थे कि क्या अपने मामा के घर से लाए हो। निस्संदेह देश के संसाधनों पर जनता का ही हक़ है और वंचितों, शोषितों का सबसे पहले। वे चाहे किसी भी जाति-धर्म के हों। अहंकार को पतन को न्योता देने वाला कहा जाता है और फिर भाजपा के भीतर  मतदाताओं ने जो देखा वह अभूतपूर्व था। एक-एक कर अपने नेताओं को हाशिये पर डालना और खुद पर स्पॉट लाइट फोकस करते हुए अविनाशी बताने का उपक्रम भी मतदाताओं के  गले नहीं उतरा। कद्दावर नेताओं की बेक़द्री की गई। राज्यों से शिवराज सिंह चौहान,वसुंधरा राजे सिंधिया को अलग किया गया।  उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ भी पोस्टरों से गायब हो गए। केंद्र के लोकप्रिय नेता भी हाशिये पर डाल दिए गए। नितिन गडकरी को उतनी तवज्जो नहीं मिली ,कई और मंत्री भी अपनी बात नहीं रखते थे । मंत्रालय कोई भी हो  तस्वीर केवल प्रधानमंत्री की ही होगी। केवल एक व्यक्ति पर पूरा दारोमदार। हद तो तब हुई जब पार्टी अध्यक्ष ने कह दिया कि भाजपा आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक के बिना भी अपना काम कर सकती है। दंभ का यह प्रदर्शन केवल विपक्ष के साथ नहीं था ,अपनी ही मातृ संस्था के साथ भी था। 

प्रधानमंत्री की बनारस से जीत का अंतर भी कम हो गया। वे डेढ़ लाख मतों से ही जीते जबकि 2019 में करीब 4 लाख 80 हज़ार से जीते थे। 1977 के आपातकाल में इंदिरा गांधी और 1991 में चंद्रशेखर को छोड़ दिया जाए तो  यह अंतर सबसे कम रहा है। बहरहाल अब समय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'प्रधानमैत्री' की भूमिका में ला दिया है। शपथ का कार्यक्रम 9 जून है लेकिन उनके दोनों ही बड़े घटक दल उनको तनी हुई रस्सी पर चलाते हुए रख सकते हैं। बिना इनके सरकार भी नहीं बन सकती है। जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू)और तेलगुदेशम पार्टी (तेदेपा)एनडीए का ही हिस्सा हैं लेकिन उनके सरोकार ध्रुवीकरण की सियासत से मेल नहीं खाते। अग्निवीर योजना की फिर से समीक्षा के लिए जेडीयू ने कह दिया है और तेदेपा, आंध्रप्रदेश को विशेष दर्जा देने की मांग पर अडिग है। उम्मीद की  जा  सकता है कि अब निर्णय समावेशी होंगे। जनादेश ने देश को बड़े मार्ग पर चलने के लिए रास्ता दिया है। नरेंद्र मोदी की आत्मकथा 'नरेंद्र मोदी  मैन ,द टाइम्स' के लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय एक साक्षात्कार में कहते हैं -"जनता ने उन्हें उस भूमिका में डाल दिया है. जिसमें वे कभी रहे ही नहीं ? बचपन से ही नरेंद्र एक ऐसे बच्चे थे जो सदा से ही रौशनी के केंद्र में रहना चाहते था । उनके एक टीचर ने मुझे बताया था कि थिएटर में उनकी दिलचस्पी थी और वे मुख्य भूमिका से कम पर कभी संतुष्ट ही नहीं होते थे। गुजरात के सीएम से लेकर देश के पीएम तक उन्होंने कभी भी लोगों के साथ काम नहीं किया। वे हमेशा से ही बड़े प्रभावी कद के साथ काम करने के अभ्यस्त रहे हैं। अब अचानक वे ऐसे हालात में आ गए हैं कि उन्हें कैबिनेट मीटिंग भी करनी होगी और अपने घटकों की सुननी भी होगी। अब प्रधानमंत्री कार्यालय में होने वाले निर्णयों को सीधे अपने मंत्रियों से कह देने भर से काम नहीं चलेगा। " दरअसल यही चुनौती भी है कि अब जब देश को नए नरेंद्र मोदी की ज़रूरत है वे खुद को बदल पाते हैं या नहीं? देखना दिलचस्प होगा । 


2024 की चुनावी उठापटक के वन लाइनर  

-क्रिकेटर युसूफ पठान ने कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी को बहरामपुर से हरा दिया। टीएमसी ने उन्हें फ़ोन पर चुनाव लड़ने का न्योता दिया था 

-फ़ैज़ाबाद (अयोध्या) से समजवादी पार्टी के दलित चहरे अवधेश प्रसाद ने लगभग पचास हज़ार वोटों से चुनाव जीता 

-कश्मीर से उमर अब्दुल्लाह को मीडिया ऐसे याद करता था जैसे वे ही वहां की आवाज़ हो लेकिन वे इंजीनियर शेख अब्दुल राशिद से चुनाव हार गए जो जेल में हैं। 

-दो नेता जेल से चुनाव जीते हैं। दूसरे पंजाब से अमृत पाल सिंह हैं। 

-कंगना रनौत संसद में आईं तो स्मृति ईरानी बाहर हो गईं

-राजस्थान में अशोक गेहलोत के बेटे हारे तो वसुंधरा के जीत गए 

-केरल में भाजपा ने खाता खोल ही लिया। अभिनेता सुरेश गोपी ने त्रिशूर से जीतकर पार्टी को यह ख़ुशी दी है

-तेरह केंद्रीय मंत्री जो चुनाव हारे उनमें अजय मिश्रा टैनी भी हैं जो लखीमपुर खीरी से हारे  ,उनके बेटे पर किसानों पर जानबूझ कर गाड़ी से कुचलने का आरोप है।

-महिलाएं कम चुन के आईं हैं। 2019 में 78 के मुकाबले इस बार 74 





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