हम दो हमारे दो परिवार

यह देखना वाकई मज़ेदार है कि जो कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को  एक साथ निशाना पर लेती थी, अब कह रही है कि मोदी जी को आरएसएस की सुनना चाहिए और काश यह सब संघ प्रमुख ने पहले कहा होता। संघ प्रमुख मोहन भागवत के लिए कई विद्वानों ने भी यही प्रतिक्रिया दी है कि उन्होंने जो अब कहा है बहुत पहले कह देना चाहिए था। साहित्यकार मृणाल पांडे एक्स पर लिखती हैं –जब शरशैया से भीष्म पितामह पांडवों को राजधर्म पर ज्ञान दे रहे थे, द्रौपदी हंसी। सबको बुरा लगा पर युधिष्ठिर ने कहा वह अकारण नहीं हंसती। जब कारण पूछा गया तो जवाब मिला ,"यह सोचकर कि भरी सभा में कौरवों द्वारा घसीट कर लाई गई कुलवधू का चीरहरण हो रहा था ,तब यह ज्ञान कहां था ?" 

दरअसल भागवत ने नागपुर में अपने कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए  कहा कि प्रचार के दौरान मर्यादा का ध्यान नहीं रखा गया। यह भी नहीं सोचा गया कि इससे समाज में मनमुटाव पैदा हो सकता है। बिना कारण संघ को भी इसमें खींचा गया। तकनीक का सहारा लेकर असत्य बातों को प्रसारित किया गया। क्या विद्या और विज्ञान का यही उपयोग है ? ऐसे देश कैसे चलेगा ? मैं विरोधी पक्ष नहीं प्रतिपक्ष कहता हूं । उस पर भी विचार होना चाहिए। चुनाव लड़ने में मर्यादा का पालन नहीं हुआ। संघ प्रमुख ने मणिपुर को लेकर भी नाराज़गी व्यक्त की। भागवत ने कहा कि दस साल पहले मणिपुर अशांत था। फिर पिछले दस सालों तक शांत रहा।  वहां का पुराना बंदूक कल्चर खत्म हो चुका था लेकिन फिर वो हिंसा की राह पर चल पड़ा। अचानक जो कलह उपजा या उपजाया गाय, उस पर कौन ध्यान देगा।  इस पर प्राथमिकता से विचार करना होगा। इस पर कांग्रेस से असम से फिर चुने गए सांसद ने कहा कि क्या प्रधानमंत्री,  मोहन भागवत की  इस बात से कुछ सीखेंगे? मुझे ऐसा नहीं लगता वे मणिपुर को हमेशा की तरह टालेंगे ,केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करेंगे और संविधान को बदलने की कोशिश में लग जाएंगे। 

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य और 'द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' के  लेखक संजय बारु भी को भी लगता है कि काश यह सब  पांच साल पहले कहा होता तो जो अब हुआ इस पर काफी कुछ नकेल कसी जा सकती थी। वे एक लेख में लिखते हैं कि लम्बे समय से आरएसएस के भीतर मोदी की बांटने वाली और खुद को सदा आगे रखने वाली राजनीति से चिंता थी। इस काम में वफादार मीडिया का भी उन्हें साथ मिला। मोदी ने भले ही खुद को संघ से अलग करते हुए अपनी बड़ी छवि को  पूरे भारत में प्रस्तुत करते हुए मोदी का परिवार बनाने की कोशिश की लेकिन संघ परिवार को यह पसंद नहीं था । यह सब  केवल अपना कद बढ़ाने के लिए था जिसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा के मंत्री आक्रामक और भ्रष्ट होने लगे ,वे अपने समर्थकों से दूर होते गए और व्यक्तिवादी सियासत के गुलाम। अगर मोदी वाकई नफरत और दंभ  के बजाय  एकता और भाईचारे की मिसाल बनते तो भागवत कभी  इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर पाते। 

 दंभ और अतिआत्मविश्वास का ज़िक्र तो संघ विचारक रतन शारदा ने भी अपने आर्टिकल में किया है। आरएसएस  मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र में प्रकाशित लेख में लिखा गया है कि अति आत्मविश्वास भाजपा को ले डूबा। चुनाव में मदद के लिए संघ से संपर्क नहीं किया गया। उन्होंने लिखा कि लक्ष्य  ग्राउंड पर कड़ी मेहनत करने से हासिल होते हैं। सोशल मीडिया पर सेल्फी या पोस्टर शेयर करने से नहीं। भाजपा कार्यकर्ता  मोदी के आभामंडल से झलकती चमक का आनंद ले रहे थे। वे  बुलबुले में खुश थे और ज़मीनी आवाज़ नहीं सुन रहे थे। उम्मीदवारों को बदलने का विचार भी आत्मघाती साबित हुआ।  ज़ाहिर है कि संघ नतीजों की इस आवाज़ को सुन चुका था। सच तो यही है कि इस बार 110 बाहरी नेताओं को टिकट दिया गया जिनमें से 69 हार गए। लगभग 62 फीसदी सीटों की हार जो एक कमज़ोर फैसला साबित हुआ। मिसाल के तौर पर राजस्थान में भाजपा से कांग्रेस में गए दोनों उम्मीदवार जीत गए लेकिन कांग्रेस से भाजपा  में गए दोनों उम्मीदवार हार गए । हरियाणा में तो कुल दस लोकसभा सीटों में से छह पर भाजपा ने नए-नए आए कोंग्रेसी नेताओं को उतार दिया। पार्टी पांच सीटें वहां हार गई। अब सुना है कि भविष्य में पार्टी और उसके  संगठन दोनों को अलग किये जाने की योजना है। 

महाराष्ट्र में जो खेल भाजपा ने खेला उस पर भी संघ को एतराज़ है। रतन शारदा के लेख के मुताबिक महाराष्ट्र अनावश्यक राजनीति और हेरफेर का उदाहरण है, एनसीपी को नहीं तोड़ा  जाना चाहिए था। सच तो यही है कि आज महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने अपना नाम और निशान छीन लिए जाने के बावजूद नौ सीटें जीतीं हैं। अब भाजपा को अपने साथ शामिल  एकनाथ शिंदे और अजित पावर पर ही यकीन नहीं है। चार माह  बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में दिख रही हार से पहले उनकी कोशिश है कि उद्धव ठाकरे को मना लिया जाए।  तर्क दिया जा रहा  है कि जब शिवसेना भाजपा के साथ थी तब उसने 18 सीटें जीती थीं जबकि इस बार केवल नौ । मालूम होता है कि संघ को भी अपने बिगड़ैल बच्चे की माँ की तरह ही सब कुछ पता था लेकिन वह नतीजों को बदल नहीं पाया। जवाब शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने दे दिया है कि दस साल से संघ अहंकार की राजनीति को देखता रहा हमें उम्मीद थी कि वह इसे रोकेगा लेकिन इसे किसी ओर ने नहीं केवल जानता ने रोका है। 

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहने में बहुत देर कर दी ऐसा भी नहीं है। सच तो यह है कि कई मौकों पर प्रत्यक्ष या प्रकारान्तर से इसे कहने की कोशिश की गई थी। पार्टी पर कोई असर न होते देख सही वक्त का इंतज़ार किया जाने लगा। यह वक्त इन चुनावों ने दिया। यूं भी प्रधानमंत्री ने अपना कद इतना बड़ा कर लिया था कि कोई बयान या बात ऐसे लौटती जैसे कवच से लौटता कोई खाली तीर। चुनाव में पार्टी को लगे झटके और अयोध्या में हार ने जैसे इस कवच की कमज़ोरी को उघाड़ कर रख दिया। वे भागवत पहले भी सचेत कर चुके थे। जून 2022 में जब नुपूर शर्मा विवाद का शोर पूरी दुनिया में था , कई भारतीय इस तरह के बयानों और ध्रुवीकरण के खिलाफ लगातार बोलते रहे थे।  तब सरकारी नुमाइंदों  ने उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग कहा , बुद्धिजिवी शब्द को तो अपशब्द की ध्वनि में बदल देने की कोशिश हुई। नुपूर शर्मा की टिप्पणी  के पांच दिन बाद मोहन भागवत  ने कहा था कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना। उन्होंने यह भी कहा था -" अब हम किसी आंदोलन के पक्ष में नहीं है ,रोज़ एक मामला निकल आएगा, हमको झगड़ा क्यों बढ़ाना ?" उन्होंने अयोध्या आंदोलन के लिए भी कहा "एक रामजन्मभूमि अंदोलन था जिसमें हम अपनी प्रकृति के विरुद्ध किसी ऐतिहासिक कारण से उस समय की परिस्थिति में शामिल हुए। हमने उस कार्य को पूरा किया अब हमें कोई आंदोलन नहीं करना है। " यह उस आंदोलन के उन्माद को स्वीकारने वाली बड़ी टिप्पणी थी लेकिन पार्टी और सरकार ने इस और ध्यान नहीं दिया । उन्हीं दिनों  देश के गृहमंत्री अमित शाह ने तो कांग्रेस को खुली चुनौती  दे दी थी  कि वह अब भी प्रधनमंत्री मोदी को स्वीकार नहीं पाई है। संसद में उन्हें बोलने नहीं देती है। वे कर लें बहिष्कार लेकिन जब वे जनता के सामने वोट लेने जाएंगे तो कोंग्रेस को उतनी सीटें भी नहीं  मिलेंगी जितनी अभी उनके पास हैं। " जो भी हो प्रधानमंत्री मोदी तीसरी बार शपथ ले चुके हैं लेकिन इस बार उन्हें कांग्रेस के परिवारवाद और अपने ही परिवार दोनों की चुनौती का कड़ा मुकाबला करना है। अब की बार जो कुलवधू का चीरहरण हुआ तो चुप किसी को भी नहीं रहना है। 




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