चार जून के बाद क्या होगा?

 


चार जून को क्या होगा या यूं कहें कि चार जून के बाद क्या होगा ? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बेक़रार हो चला है। लोक से भी ज़्यादा तंत्र बेचैन दिखाई दे रहा है और मीडिया तो बेसब्र है ही
। इतना बेसब्र कि नतीजों से पहले ही आशंकओं की गिरफ़्त में आ गया है। कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एक जून को दिल्ली में इंडिया गठबंधन की बैठक क्या बुलाई आशंकाओं को जैसे बल मिल गया। खड़गे ने साफ कर दिया है कि देश में वैकल्पिक सरकार आ रही है और हम  यूपीए एक और 
यूपीए दो की तरह मज़बूत गठबंधन सरकार चलाएंगे।  एक जून को  मतदान का आखिरी चरण संपन्न होगा। मतदान पश्चिम बंगाल में भी है, इसलिए वहां की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने अपना गढ़ छोड़ने से साफ़ इंकार कर दिया है जिसे अवज्ञा भी समझा जा रहा है । मतदान उत्तर प्रदेश बिहार में भी है लेकिन वहां से नेता आ रहे हैं। 

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने  पंजाब के होशियारपुर में अपने आखिरी रैली में संत रविदास को खूब याद करते हुए कन्याकुमारी में ध्यानमग्न हुए और उधर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आखिरी चरण में  अपनी चुप्पी तोड़ दी है। बहुत कम बोलने वाले पूर्व पीएम ने कहा है कि नरेंद्र मोदी ने उन चुनावों में लगातार नफरत भरी और बांटने वाली भाषा का इस्तेमाल किया है। उन्होंने कहा कि इससे पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने समाज या विपक्ष को निशाना बनाते हुए ऐसे विषैले शब्दों का प्रयोग नहीं किया। प्रधानमंत्री की इस अपील को पंजाब की सभी 13 सीटों पर आज होने जा रहे मतदान से जोड़कर देखा जा रहा है। इस प्रदेश के रोचक चुनाव से पहले, चर्चा उस बात की भी ज़रूरी है कि अगर भाजपा की सीटें कम आई तो सत्ता का हस्तांतरण आसानी से नहीं होगा। यह महज ख़याली पुलाव हो सकता है लेकिन वैकल्पिक मीडिया ने काफी कुछ कहना शुरू कर दिया है। 

 प्रधानमंत्री की  गुप्त बैठक में क्या हुआ ; आर्मी चीफ को एक माह का विस्तार दे दिया गया ;अधिकारियों के तबादले किये जा रहे हैं ;ऐसी तमाम बातों को इस तरह से जोड़ा जा रहा है, जैसे सत्ता का हस्तांतरण आसानी से नहीं होगा। वैकल्पिक मीडिया ने तो यहां  तक कहना शुरू कर दिया है कि अमेरिका में जो हाल ट्रम्प की हार के बाद कैपिटल हिल का हुआ था, कहीं यहां भी ऐसा ना हो जाए। उनके तर्क हैं कि जब भाजपा राज्य के चुनावों में ही ज़मीन आसमान एक कर देती है, फिर यह तो देश के चुनाव हैं। वैसे भारतीय जनता पार्टी विरोधी खेमे में ऐसे लड्डू फूट रहे हैं जैसे कि उसकी हैट्रिक नहीं लग रही हो । इस मासूमियत पर कौन फ़िदा नहीं होगा जबकि  प्रशांत किशोर और योगेंद्र यादव की दी हुई सीटों का औसत भी एनडीए को बहुमत दिला रहा है। अफ़सोस कि  मुख्यधारा के मीडिया के सालों  से जारी एकनिष्ठ सुर के बाद जिस वैकल्पिक मीडिया का जन्म हुआ वह भी एक ही सुर में गा रहा है। जनता जो केवल समाचार देखना चाहती है उसके पास कोई विकल्प नहीं है। मीडिया साफ दो धड़ों में बंटा है। जाते -जाते इन चुनावों ने लोटपोट होने का खूब सामान मीम बनाने वालों को भी दिया है। प्रधानमंत्री के जिन दो बयानों ने चुनावी चर्चा को खूब चटपटा बनाया , वह यह कि विपक्ष वोट बैंक के लिए मुजरा करता है और महात्मा गाँधी को गाँधी फिल्म से पहले कोई नहीं जनता था।होशियारपुर की आखरी रैली में विपक्ष की सात पुश्तों की ख़बर लेने की धमकी भी दे डाली।अखिलेश यादव के व्यंग्य ने भी इन चुनावों में धार पकड़ी है। वे कहते हैं -"जो हमें शहजादे शहजादे कह रहे हैं, इस बार विपक्ष उन्हें शह देगा और जनता उन्हें मात। बहरहाल बात उस राज्य की जो है तो उत्तर भारत का लेकिन उसकी चर्चा से तमाम मीडिया  बिदकता है क्योंकि वह किसी भी नैरेटिव में फिट नहीं बैठता। उसके खाने और संगीत की बल्ले बल्ले पूरी दुनिया में होती है।पांच नदियों के आब यानी जल से बना पंजाब जहाँ सभी 13 सीटों पर मतदान आज है। 

 सीमावर्ती राज्य पंजाब ऐसा राज्य है जो कभी भी धर्म और जाति की सियासत में नहीं उलझा। हमेशा नए गठबंधन, नए दल को मौका देने वाली  यहाँ की जनता-सी दृष्टि उत्तर मध्य के किसी हिस्से में नहीं मिलती। इस बार यहां कोई गठबन्धन नहीं है। पड़ोस के दिल्ली में भले ही आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से गलबहियां करके चुनाव लड़ा हो, यहां बांह झटक दी है। झाड़ू हाथ से छिटक गया है। किसान आंदोलन के दौरान शिरोमणि अकाली दल भाजपा को बाय –बाय कर चुका है और मायावती की बहुजन समाज पार्टी का वोट शेयर खिसकते-खिसकते रसातल में चला गया है। पंजाब में 33 फ़ीसदी वोट अनुसूचित जाति का है और यह कभी भी किसी एक पार्टी का बनकर नहीं रहा। कोई जाति आधारित पार्टी भी यहां अस्तित्व में नहीं रही। 2004 में बसपा का वोट शेयर आठ प्रतिशत था जो 2012 तक 3.53 और  2019 में  दो फीसदी पर आ गया। अधिकांश एससी नेता भी दूसरी पार्टियों  से चुने जाते हैं। पंजाब कभी हिंदुत्व की लहर पर भी सवार नहीं रहा। प्रदेश में कभी मंडल कमीशन की भी कोई आंधी नहीं रही। मंडल-कमंडल की सियासत से दूर रहे राज्य का सुनहरा अतीत है। इस धरती पर कई पंथों और धर्मों का प्रभाव  रहा जो आगे चलकर बड़े सुधार आंदोलन में तब्दील हुए। सूफी संतों और गुरुओं के लगातार आगमन ने  नागरिकों को उदार बनाया उनमें से गुरु रविदास का ज़िक्र होशियारपुर में अपनी आखिरी चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी ने भी किया। उनका आधा भाषण गुरु रविदास को समर्पित था।  

यूं  पंजाब  के अपने कई ज्वलंत मुद्दे हैं जिनमें किसानों की समस्या,पानी साझा करने के मुद्दे,पाकिस्तान से खुले व्यापार के आलावा युवाओं में नशे की लत, इंफ्रास्ट्रक्चर का आभाव  और शिक्षा में गुणवत्ता की कमी प्रमुख है।  2019 में यहां कांग्रेस ने 8 सीटें जीतीं थी और शेष पांच पर अकाली दल-भाजपा गठबंधन और आप जीते थे। इस बार एक बड़ा फर्क है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह (80) कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए हैं। इसमें भी बड़ा बदलाव यह है कैप्टन भाजपा की रैलियों में कहीं दिखाई नहीं दे रहे यहां  तक पीएम की रैली में भी वे नहीं थे और अपनी पत्नी प्रणीत कौर  के लिए भी उन्होंने कोई प्रचार नहीं किया जो पटियाला सीट से भाजपा की प्रत्याशी हैं। 2019 में वे कांग्रेस के टिकट पर जीतीं थीं और उन्हें मिले वोट 45 फीसदी से भी ज़्यादा थे। देखना दिलचस्प होगा भाजपा खेमे में आने के  यह उतना ही रह पाता है या नहीं। कैप्टन के करीबी कह रहे हैं कि वे अब उम्रदराज़ हो चुके हैं इसलिए कम ही प्रचार कर रहे हैं। 


पंजाब का एक धुरंदर नाम है क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू। कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस का दामन थमने वाले सिद्धू भी चुनाव प्रचार से दूर हैं। उनकी पत्नी कैंसर से लड़ रही हैं। हाल ही में प्रियंका गांधी उनसे मिलने जब उनके घर पहुंची तो सिद्धू खुद को रोक नहीं पाए और उन्होंने सोशल मीडिया पर लिख डाला  -"उनका दिल सोने का है... "फॉरएवर फैमिली"नोनी के स्वास्थ्य के बारे में आपकी चिंता के लिए लाख लाख धन्यवाद। आपके समर्थन का मतलब मेरे लिए पूरी दुनिया के तुल्य है।" सिद्धू भाजपा से कांग्रेस में आए हैं।  ये उतार -चढ़ाव बताते हैं कि चतुष्कोणीय मुकाबलों के बावजूद पंजाब की जनता आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में से ही चुनने जा रही है जो शायद आप के मुख्यमंत्री भगवंत मान के काम की कसौटी भी होंगे। स्टैंडअप कॉमेडियन मान भी सीधे मोदी जी पर ही हमला करते हैं वे कहते हैं- भले ही हिंदी भाषा के पास साढ़े छह लाख शब्दों का ज़खीरा हो लेकिन प्रधानमंत्री के पास केवल दस शब्द हैं हिंदुस्तान,पाकिस्तान,मुसलमान,कब्रिस्तान ,श्मशान,मंगलसूत्र ,गाय,भैंस, बकरी बस। प्रधानमंत्री उन्हें 'कागज़ी सीएम' की उपमा दे चुके हैं।  बहरहाल चुनाव लगभग हो चुके हैं और नतीजों से  कोई भूचाल नहीं आएगा इसी शुभेच्छा के साथ संत रविदास का एक दोहा -

कृस्न, करीम, राम, हरि जब लग एक न पेखा। 

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।


 

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