सरगना जिस ज़मीन दफन वहां उग आई है ज़हरीली बेल

एक समय था जब विचाराधीन कैदियों की आत्महत्या या सामान्य मौत पर भी सरकारें सवालों से घिर जाती थीं, बचाव की मुद्रा में आ जाती थीं,लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब की सरकारें तो ऐसा होने  के बाद पुलिस की पीठ थपथपाती  हुई नज़र आती है। बीते सप्ताह प्रयागराज में सरेआम दो विचाराधीन कैदियों की हत्या के बावजूद उत्तर प्रदेश  सरकार के चेहरे पर शिकन तो दूर उल्टे  सीना ठोकने का भाव था। कम अज़ कम उनके मंत्रियों के बयान तो यही ज़ाहिर करते हैं। वे प्राकृतिक न्याय की बात कहते हैं। ऐसे में  न्यायालयों की दरकार ही क्या रह जाती है, पुलिस राज जिसे चाहे उसे सज़ा  दे दे और  सरकार जब चाहें तब शाबाशी । अपनी-अपनी सरकारें और अपने-अपने दुश्मन। दरअसल व्यवस्था में  यकीन का पतन कोई नया नहीं है।  प्रयागराज के करीब अयोध्या में ही सहस्त्राब्दियों से जनमानस को प्रेरित करने वाले राजा राम का राम राज्य भी रहा हैं।आखिर अयोध्या के मर्यादा पुरोषत्तम राजा राम उत्तरप्रदेश के योगी राज को किस तरह देख रहे होंगे ? नारा तो हत्यारों ने भी भगवान राम के नाम का ही लगाया। रावण को राम के बजाय कोई और मार देता तब भी क्या रामायण बुराई पर अच्छाई की विजय का इतना बड़ा प्रतीक बन पाती? दंड का ऐसा विधान समाज को कोई सन्देश दे पाता? शनिवार की रात जुर्म के सरगना भले ही जमींदोज़ हो गए हों लेकिन एक  ज़हरीली बेल भी उसी ज़मीन पर उग आई है जिसे सरकार फ़िलहाल पूरी तरह नज़र अंदाज कर रही है।  इस पूरी घटना में उस पहलू को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें माफ़िया सरग़ना ने खुद की हत्या की आशंका जताते हुए सर्वोच्च अदालत में भी गुहार लगाई थी क्योंकि इस घटनाक्रम में फरवरी से लेकर अब तक छह लोग मारे गए थे । 

देश में  एक बड़ा तबका है जिसके मनोभावों को उस हाल में ला दिया जाता है कि वह पुलिस मुठभेड़ में अपराधी के मरने और हत्या पर तालियां पीटने लगता है , ख़ुशी महसूस करता है और इसी ख़ुशी की तलाश में कुछ  राजनीतिक दल भी होते हैं। वे ये गणना कर लेते हैं कि यह मौत भी उन्हें राजनीतिक फ़ायदा पहुंचाएगी। लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार का  सरोकार अपराध से क्योंकर होना चाहिए ऐसे सवाल अब चलन से बाहर हैं लेकिन वक़्त आएगा जब देश को गंभीरता से  विचार करना ही होगा। राज्य सरकारों द्वारा पुलिस एनकाउंटर कोई नई बात नहीं है। वह क़ानून का इकबाल न्याय प्रक्रिया से नहीं पुलिस मुठभेड़ों से बुलंद करने की गलती हमेशा करती है। अकेकर उत्तरप्रदेश नहीं, कई राज्यों कि सरकारों के मुंह को यह खून लगा है।  हैदराबाद में पशु चिकित्सक लड़की(2019 ) के बलात्कार के आरोपियों का , राजस्थान में आनंद पाल (2017 ) का ,उत्तरप्रदेश में विकास (2020 )दुबे का ,पंजाब में सिद्धू मूसेवाला (2022 ) के आरोपित हत्यारों के एनकाउंटर हम सबने देखे हैं। मध्यप्रदेश के आठ कैदियों (2016) को जिन्हें केंद्रीय  जेल भोपाल से शिफ़्ट किया जा रहा था, उन्हें भी  एनकाउंटर में ही मार दिया गया था। उन पर सिमी के सदस्य होने का आरोप था। विकास दुबे के एनकाउंटर को भी  उज्जैन से कानपुर लाते हुए किसी सनसनीखेज किस्से का रूप दे दिया गया था। सबको पता था कि विकास मारा जाएगा। बस कब और कहाँ इसी का इंतज़ार था।  इस मामले की तो उच्च स्तरीय जांच भी हुई लेकिन कौन पुलिस के ख़िलाफ़ बोलने की  हिम्मत करता। कुछ नहीं हुआ। 

माफिया अतीक और अशरफ़ की हत्या से पहले असद (19) को भी पुलिस ने एनकाउंटर में ढेर कर दिया गया। असद  गैंगस्टर अतीक अहमद का बेटा था। उत्तरप्रदेश की स्पेशल टास्क फाॅर्स ने झांसी में उसे मार गिराया।यह 2017 में योगी सरकार के आने के बाद 183  वां एनकाउंटर था। अतीक अहमद और गुलाम अहमद उमेश पाल की हत्या के  मामले में आरोपी थे। उमेश पाल जो कि बहुजन समाज पार्टी के विधायक राजू पाल और उनके दो सुरक्षा कर्मियों  की प्रयागराज में हुई हत्या का महत्वपूर्ण गवाह था। उमेश पाल की पत्नी जया पाल की शिकायत पर अतीक और गुलाम  समेत परिवार के अन्य सदस्यों के खिलाफ मुकदमा दर्ज़ किया गया था । असद के एनकाउंटर के बाद इन दोनों भाइयों की भी प्रयागराज में  पुलिस हिरासत में हत्या हो गई। ऐसा तब हुआ जब पुलिस उन्हें शनिवार की रात  मेडिकल मुआयने के लिए अस्पताल ले जा रही थी। यह हत्या पत्रकारों की आड़ में हुई। तीन हत्यारे पत्रकार बनकर शामिल हो गए थे ,उनके पास आधुनिक हथियार था , पत्रकार सवाल कर रहे थे तभी इन दोनों की इन तीनों ने जान ले ली। एनकाउंरों में गोलियां उगलती पुलिस की बन्दूक यहाँ ज़ंग खा गई। न बचाव में चली न अटैक में। 

ये तीन हत्यारे तिवारी, सिंह, मौर्य हैं। इनमें से एक तो केवल अठारह साल का है और इनकी औसत आयु केवल बीस साल है । ये लड़के बचपन से ही छोटे -मोटे  अपराध की चपेट में आकर पुलिस के हत्थे चढ़ गए। शनी सिंह हमीरपुर के एक गाँव का है जिसके पिता का देहांत हो चुका है। वह चौदह की उम्र में घर छोड़ चुका था और फिर कभी नहीं लौटा। सोने की चैन छीनने के अपराध में लग गया। हमारी व्यवस्था दावा करती है कि यहाँ किशोर न्यायालय हैं जहाँ किशोर अपचारियों को सुधार कर मुख्य धारा में वापस लाया जाता है, यहाँ पूरी तरह से खोखला साबित होता है। अरुण कुमार मौर्य केवल अठारह का है उसे हथियारों का शौक है,ड्रग्स का भी आदी बताया जाता है वह भी बेघर-सा ही है। लवलेश तिवारी पर एक लड़की को चौराहे पर थप्पड़ मारने का अपराध दर्ज़ है। हमारी नागरिक चेतना हमें ज़रा भी ये सोचने पर मजबूर नहीं करती कि ये लड़के आखिर कहाँ मिले होंगे और क्यों इनके दिमाग में इस हत्या की बात आई ? इन तीनों में क्या कभी कोई आपसी दोस्ती रही है या ये इस्तेमाल हुए हैं ? 

एक हॉलीवुड फिल्म है, 'गुड विल हंटिंग'  जिसमें एक किशोर बेहद गुस्सैल है, तोड़ -फोड़ करता है। हर बच्चे में कोई न कोई हुनर होता है उसमें भी है । वह गणित के मुश्किल सवाल हल करना जानता है लेकिन व्यवस्था उसके अपराध को नज़रअंदाज़ करते हुए उसे मुख्यधारा में लाने की पूरी कोशिश करती है क्योंकि वह किशोर है और उसके सामने उसकी उम्र पड़ी है। उसे कॉउंसेलिंग के लिए गणित के शिक्षकों के साथ रखा जाता है। महीनों की लगातार कॉउंसेलिंग के बाद वह बदलने लगता है। यही  दायित्व होता है एक सुदृढ़ व्यवस्था का न कि बाल अपचारियों को जेल में बंद कर दो। आज़ादी के बाद संविधान निर्माताओं ने भी ऐसी ही व्यवस्था का ख़्वाब देखा था लेकिन अफ़सोस वह कभी हक़ीक़त में नहीं बदल सका। जेलें भर दी गईं हैं हिंदुस्तान की।  किशोरों के साथ किसी को कोई हमदर्दी नहीं जबकि यह नाज़ुक उम्र परिवार,समाज और सिस्टम सबकी देख -रेख चाहती है। हम चूक गए। अफ़सोस कि इन  छोटे -मोटे अपराधी के आगे अब हत्यारे शब्द लग चुका है।  

अतीक और अशरफ़ की हत्या इन लड़कों ने कर दी है। सवाल यह भी है कि आखिर रात के साढ़े दस बजे इन दोनों को अस्पताल ले जाने की क्या इमरजेंसी थी ? हत्या के बाद पुलिस ने इन तीनों को पुलिस रिमांड में लेने की बजाय न्यायिक हिरासत में क्यों भेज दिया? इस तमाशे की कोई ज़रूरत नहीं थी क्योंकि अस्पताल के स्टाफ का ही कहना था  कि मुआयने के लिए उन्हें भी बुलाया जा सकता था। यह रिस्क पुलिस ने खुद मोल ली थी। दोनों की हत्या हो गई। वे कहते रह गए कि उनकी जान ली जा सकती है। यहाँ तक की सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया कि राज्य की व्यवस्था आपकी सुरक्षा करेगी। यही सुरक्षा की राज्य ने इनकी। किसी को लग सकता है कि डॉन थे ,इनकी हत्या पर क्या विलाप करना। फिर तो न्यायालयों की दरकार ही कहाँ रह जाती है। पुलिस राज सब बराबर कर देगा और नेता ट्वीट कर देंगे 'पाप और पुण्य का हिसाब इसी जन्म में होता है।' पुलिस  जिसके खिलाफ कभी इलाहबाद हाई कोर्ट के ही जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने  कहा था कि पुलिस गुंडों का संगठित समूह है। उनका कहना था कि देश में में किसी भी पुलिस क्राइम ब्रांच का रेकॉर्ड भारतीय दंड विधान (आईपीसी) में उल्लेखित कायदों से मेल नहीं खाता। सवाल यही है कि फिर ऐसी व्यवस्था में नागरिक क्यों और कैसे कानून का पालन करने के लिए प्रेरित होगा। मजबूरी में ज़रूर हो सकता है ,व्यवस्था में भरोसे के चलते नहीं। ज़रूरी है कि देश के हर नागरिक का यकीन सिस्टम में बना रहे। थॉमस जैफरसन का मशहूर कोट है -"जब अन्याय कानून बन जाता है ,प्रतिकार कर्तव्य हो जाता है। "





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