सुनवाई से ठीक पहले बहाल हो गए सांसद

सप्ताह ख़त्म होते -होते देश की सियासत फिर वहीं आ गई है जहाँ से चली थी। राहुल गांधी का विदेशी धरती पर बयान , सत्तापक्ष का संसद को ठप (विपक्ष तो करता ही है) करना फिर बिना बहस के बजट बिल पास कर देना ,राहुल गांधी को  बिजली की गति से लोकसभा से निष्कासित करना , कर्नाटक में विधानसभा चुनाव की तारीख़ और फिर कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह का जर्मनी के बयान पर उस देश को धन्यवाद कहना। भारतीय जनता पार्टी के हाथ फिर गोला बारूद का आना और संसद का अगले तीन अप्रैल तक के लिए स्थगित हो जाना। यही हासिल है पिछले एक महीने का भी और संसदीय प्रणाली से चल रही सियासत का। इस हंगामे में उस मतदाता की हैसियत ही क्या रह जाती है जिसमें कहा जाता है कि तुम हमें चुनों ,वोट दो ,हम तुम्हारे सवाल ,तुम्हारी समस्या संसद में उठाएंगे। यही मौजूदा सियासी परिदृश्य है , 360 डिग्री का फुल सर्कल। सबकुछ इसी में गोल-गोल घूमता रहता है लेकिन इन सबके बीच जो दिशा देता हुआ मालूम होता है, वह है सर्वोच्च न्यायालय की एक मामले में टिप्पणी। न्यायाधीश द्वय ने कहा है कि सरकार नफरती भाषा पर चुप्पी नहीं साध सकती और जब तक धर्म और राजनीति अलग-अलग नहीं होंगे तब तक यह ख़त्म नहीं होगा। सख्त टिप्पणी में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘राज्य नपुंसक और शक्तिहीन हैं।प्रदेश है स्पीच को रोकने के लिए क्यों कोई प्रणाली विकसित कर पा रहे हैं।’ एक दिलचस्प  मामले का उल्लेख भी ज़रूरी है जो है तो राहुल गाँधी के मामले से मिलता जुलता लेकिन जिस दिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थे ठीक उसी दिन उनकी लोकसभा सदस्यता बहाल कर दी गई। 

 मोहम्मद फैल पी पी एनसीपी (नेशनल कांग्रेस पार्टी) से लक्षद्वीप के सांसद हैं। उन्हें कवरट्टी के सत्र न्यायालय ने हत्या के प्रयास में दोषी माना था लेकिन उच्च न्यायाल ने इस सज़ा पर रोक लगा दी।  निचली अदालत के फ़ैसले के साथ ही तुरंत मोहम्मद फैजल की संसद सदस्यता रद्द कर दी गई जैसा कि राहुल गांधी के साथ भी हुआ। कायदे से उच्च न्यायालय का निर्णय आते ही सांसद की सदस्यता तुरंत बहाल हो जानी चाहिए थी लेकिन वे दो महीने तक निष्कासित ही रहे। मोहम्मद फैल ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई होनी थी लेकिन उससे ठीक पहले सांसद की सदस्यता बहाली का पत्र लोकसभा सचिवालय से जारी हो गया। शर्मिंदगी से बचने के लिए सरकार ने उन्हें बहाल तो कर दिया लेकिन जल्दबाजी का आलम यह था कि इससे पहले चुनाव आयोग लक्षद्वीप में उपचुनाव की घोषणा भी कर चुका था। आखिर ऐसी  हड़बड़ी क्यों है, वह भी चुने हुए नुमाइंदे के साथ ? यूं कर्नाटक के चुनाव के साथ उपचुनाव की तारीख़ भी आई हैं लेकिन उसमें राहुल गांधी  का चुनाव क्षेत्र वायनाड़  नहीं है। शायद आयोग इस बार सतर्क है।जो नज़र आता है वह यही कि अगर लोकतंत्र के पाए जो  ठीक काम करते रहे तो संतुलन बन जाएगा जो इशारों के इंतज़ार में रहे तो बहुत कुछ दांव पर होगा।

कर्नाटक के चुनाव की तारिख और नफ़रती भाषा से जुड़े बयानों का एक साथ आना संयोग ही कहा जाना चाहिए क्योंकि कर्नाटक को लम्बे समय से हिजाब और हलाल के विवाद में उलझाया गया है। अब यहाँ यह दोहराने की कोई ज़रुरत नहीं है कि किसे इस उलझन में रस आता है और फिर कौन  पूरे देश को खामखा की बहस में उलझा देता  हैं। कानून है लेकिन कोई राज्य एक्शन नहीं लेता सब बहस का मज़ा लेते है। महाराष्ट्र सरकार ने तो न्यायालय की रोक के बावजूद राज्य भर में रैलियां निकाली और नेताओं ने नफ़रती भाषण दिए। इसी सन्दर्भ में ही जस्टिस बी वी नागरत्ना और जस्टिस के एम जोसफ ने टिप्पणी की, जिस पर बचाव पक्ष के वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता केरल से आती है जहाँ पीपल्स फ्रंट ऑफ़ इंडिया नफरती भाषा में बात करता है। बहस तीखी भी हुई। ईवीआर पेरियार का भी ज़िक्र हुआ जिन्होंने दलितों के लिए दक्षिण में जन-जागरण आंदोलन चलाया। वे वहां बेहद सम्मान से देखें जाते हैं। कोर्ट ने आगे की सुनवाई के लिये 28 अप्रैल की तारीख तय की है और महाराष्ट्र सरकार से जवाब मांगते हुए कहा है -"क्या आपको देश के कानून तोड़ने का अधिकार है ? ऐसा करेंगे तो वह ईटों के ढेर की तरह भरभराकर आपके सर पर गिरेगा।"


बात दिग्विजय सिंह के जर्मन विदेश मंत्रालय  को धन्यवाद देने की। राहुल गांधी के लंदन में दिए बयानों पर चढ़ी धूल से बमुश्किल झाड़ पोंछ हुई थी कि इस बयान ने फिर गुबार फैला दिया। यह सच है कि अमेरिका और जर्मनी ने राहुल गांधी के लोकसभा से निष्कासन पर चिंता ज़ाहिर की है लेकिन दिग्विजय सिंह ने तो जर्मन सरकार के विदेश मंत्रालय के बयान को जिसमें उन्होंने कहा है कि हम भारत पर नज़र बनाए हुए हैं कि कैसे राहुल गांधी  की सदस्यता  खारिज होने के बाद सियासी उठापटक बनी हुई है को टैग करते हुए ट्विटर पर शुक्रिया लिख दिया है। दिग्गी राजा ने आगे लिखा है कि धन्यवाद ध्यान देने के लिए कि किस तरह लोकतंत्र को कमज़ोर करते हुए राहुल गांधी का उत्पीड़न हो रहा है। भाजपा तो मौके के इंतज़ार में थी। उसे भारत के आतंरिक मामलों में 'विदेशी हस्क्षेप' को दिखाने के लिए एक  ट्वीट नहीं बल्कि हथियार मिल गया था। कानून मंत्री किरन रिजिजू ने कहा शुक्रिया राहुल गांधी,विदेशी ताकतों को भारत के आतंरिक मामलों में दखल देने का न्योता देने के लिए लेकिन न भारतीय न्याय पालिका और न जनता इस हस्क्षेप को बर्दाश्त करेगी । सवाल यह है कि दिग्विजय सिंह की कांग्रेस को यह समझने में परेशानी क्या है कि दुनिया का कोई भी देश इसमें कुछ नहीं कर सकता और कोई स्वाभिमानी नागरिक इसे बर्दाश्त  नहीं कर सकता। हालात अगर वाकई पहले से ज़्यादा ख़राब हैं तब भी बात देश की जनता को ही सुनानी होगी। भारत जोड़ो यात्रा इस दिशा में हुई एक कामयाब और प्रभावशाली कोशिश थी। इसे फिर गति में लाना होगा। राहुल गांधी ने जब सरकारी घर खाली कर ही दिया है तब देश की सड़कें ही आबाद करनी चाहिए। दुनिया के देश बयान देंगे भी तो केवल इसलिए कि उन्हें रूस और चीन को हद में रखना है। 

अब सवाल यही की क्या  देश में राहुल गांधी का निष्कासन बड़े  सियासी बदलाव का कारण बनेगा ? विपक्षी पार्टी के एक नेता के शब्द पढ़िए -“मुझे तो ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी का विनाश करने का मन बना लिया है इसीलिए ऐसे ऊल जलूल निर्णय आ रहे हैं और सनक से देश चलाया जा रहा है।” यह कहना है समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राज भाटी का जिन्होंने अपने बयान कहा कि किसी भी  ट्वीट, भाषण, पोस्टर यहां तक की सारस से  दोस्ती करने वाले को भी जेल में डाला जा रहा है , आखिर ये देश किस दिशा में जा रहा है। क्या वाकई भारतीय जनता पार्टी के अग्रिम पंक्ति के दुसरे नेताओं को कभी-कभार यह खयाल आता होगा कि पार्टीको ज़्यादा ही मुश्किल में डाल दिया गया है। एक ठीक-ठाक विकेट पर बॉलिंग-बैटिंग की लय-ताल बनी हुई थी फिर अचानक पार्टी खुद ही क्योंकर रनआउट  होने लगी है। तेज़ दौड़ते हुए हांफने लगी है। एक और पार्टी सीपीएम से हिमाचल प्रदेश के विधायक नरेंदर पंवार का बयान भी बड़ा दिलचस्प है । वे कहते हैं - "वे तो सिर्फ राहुल थे, भाजपा ने उन्हें गांधी बना दिया। " संभव है कि यह भाजपा की रणनीति हो जिसके तहत उसे लगता हो कि  वह विपक्ष को मात तब ही दे सकती हो जब खेल राहुल बनाम मोदी हो। 



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