जयपुर के अदबी ठिकाने और एक किताब

किताबों के लिए हमारे हृदय में पूजा
भाव है। सर माथे लगाते हैं हम उन्हें।
कभी गलती से पैर भी लग जाए तो
पेशानी से लगा लेते हैं, जैसे माफी
मांग रहे हों। क्यों न हो रामायण,
कुरान शरीफ, बाइबल और गुरुग्रंथ
साहब, सभी किताबें ही तो हैं। लिखे
शब्दों का हम सभी एहतराम करते हैं
,पूजते हैं। इन ग्रंथों को बड़ी पवित्रता
के साथ शुद्ध कपड़ों में लपेटकर रखने
वाले  हम सभी ने देखे हैं। जाहिर है हम
किताबों को इज्जत देने वाला समाज
हैं। यहां से चलकर किताबें किस होड़
में शामिल हो गई हैं, यह किसी से
छिपा नहीं है। एक पूरा मार्केट है जो
लेखक और लेखन की पैकेजिंग
करता है। कुछ ऐसे भी हैं जो बहुत
कम दाम में ज्यादा किताबें पढ़ाने का
बीड़ा उठाए हुए हैं। कुछ ऐसे भी
लेखक हैं, जिन्हें लगता है अगर दो
साल में एक किताब ना निकली तो
व्यर्थ है जिंदगी, फिर चाहे उस किताब
से जिंदगी के तत्व कोसों गायब हों।
खैर, इस चिंता में ना पड़ते हुए पिछले
दिनों जिस किताब से नजरें मिली
उसका जिक्र।
किताब की दुकान किसी हीरों
की दुकान-सी लगती है। हीरे तिजोरी
के अंधेरे को रोशन कर देते हैं तो नई
किताब दिमाग के अंधेरे में रोशनी का
उजास फेंकती हुई। यूं हमारे शहर में
कई अदबी ठिकाने हैं, जहां से पुस्तक
प्रेमी किताबें लाते रहते हैं और
पसंदीदा किताब ना मिले तो तुरंत मंगा
देने की अर्जी लगाकर लौट आते हैं।
किताब तक पहुंचना इतना आसान
नहीं  क्योंकि  ये बुक स्टोर्स पूरे शहर में
नहीं। कुछ ऐसा भी नहीं जहां जाकर
तसल्ली से पढ़ा जाए और पसंद आने
पर खरीद लिया जाए। पंसारी की
दुकान की तरह सामान बंधवाने जैसा
हाल ही है किताबों का। जयपुर में एक
शांत और सुंदर ठिकाना है, जो इस
कमी को पूरा करता है। अधिकांश
किताबें यहां अंग्रेजी की होती है, हिंदी
का पाठक थोड़ा दबा-दबा ही महसूस
करता है यहां। यूं भी देखा गया है कि
किताबें पढऩे का जुनूं वहीं हावी होता
है, जहां जेब मुई खाली होती है।
सरस्वती के साथ चलने पर लक्ष्मी ने
कब आशीष दिए हैं।
बहरहाल, इसी ठिकाने के हिंदी
हिस्से में झांकते हुए विकि आर्य का
कविता संग्रह 'धूप के रंग' नजर आता
है। आवरण पर घोंघे की पृष्ठभूमि में
गुमसुम स्त्री की आकृति। भीतर के
पन्नों पर कई स्केचेस शब्दों से यारी
निभाते हुए। सभी कविताएं
शीर्षकहीन। आवरण, रेखाचित्र
शब्द सब उत्तरांचल  की दून घाटी में
जन्में विकि आर्य के ही। पेंगुइन से
2007 की प्रकाशन तिथि। चंद सतरों पर गौर करें
सोचा था
लिखने बैठूं तो
भर जाएंगे सफे
दुनिया के,
पर कहा तो
 दर्द भी
प्रेम की ही तरह
 बस... ढाई आखर
निकला

 एक और कविता
लोग तो लहसुन से हैं

खुलते नहीं
एक फांक भी।
और मैं- जैसे प्याज  कोई
जो, हर
परत खुलकर
न जाने 
क्या-  क्या कह कर
निर्वसन
सा हुआ जाता है।

प्रेम से भरा कवि
 

घर, आंगन, कमरा, छत, दीवारें
कोने बिस्तर जंगले...
चादर, पर्दे, खिड़की पल्ले...
सब कहीं तुम हो
मैं कहां हूं?/ पता मेरा है,
दरवाजे पर नाम मेरा है
सुना है घर मेरा है...
पर हर तरफ तुम हो/ मैं कहां हूं?
 

जीवन से जुड़े नियंत्रण पर कवि
 

कोरी कॉपियां जो/
बच्चों को थमाई
जाती हैं।/लकीरे 
क्यूं उनमें
पहले
खिंची होती हैं?
केवल उडऩा ही

 काफी नहीं होता
 
क्या?
हर पतंग भला 
क्यों
मांझे से जुड़ी
होती है?
 

विकि आर्य की एक कविता फेसबुक
पर साझा की तो साठ से भी ज्यादा
मित्रों ने पसंद का चटका लगाया,
लेकिन उन्हें जानने वाला कोई नहीं
मिला। कवि-कथाकार उदय प्रकाश
का लिखा सच मालूम होता है कि जब
मशहूर कलाकार जोशुआ बेल ने
वाशिंगटन के मेट्रो स्टेशन पर
वायलिन बजाई तो कोई नहीं ठिठका
सिवाय बच्चों के। उनके खचाखच भरे
कंसर्ट में टिकट की कीमत सौ डॉलर
होती है 
क्योंकि वहां लोग जानते हैं यह
एक मशहूर वायलिन वादक है। यूं श्रेष्ठ
संगीतज्ञ को सुनने की फुर्सत किसी
को नहीं है। कला और लेखन को भी
प्रचार की बैसाखी लगती है शायद।

टिप्पणियाँ

  1. आपके विचार और विकि आर्य की कवितायेँ दोनों बेहतरीन , विचारणीय हम सबके लिए ....

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  2. अच्छी अभिव्यक्ति देर सबेर प्रचार पा ही जाती है, निर्भर करता है समाज कितना प्यासा है..

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  3. log to lahsun he aur ghar aagan kamra wali kavita insani kirdar aur rishto ko paribhashit karti lagi. viki arya ji ki kahan me ik ly he ravani he. is par apki tippani sone par suhaga.

    जवाब देंहटाएं
  4. पुस्तक की बहुत सुंदर समीक्षा .... अंतिम पंक्तियाँ इस पोस्ट की सत्य के निकट

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  5. dr. monika, praveenji, agyatji, sangeeta ji bahut shukriya. shivam ji abhaar post ko buletin mein shamil karne ke liye.

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