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'नो अदर लैंड' तब जाएं तो जाएं कहां ?

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तानाशाहों को हमेशा लगता है कि कला जैसे उनके लिए काल बन कर आ रही है इसलिये वे जब-तब कभी कलाकार पर तो कभी उसके काम पर हमला बोलते रहते हैं। पूरब से पश्चिम तक मामला एक सा ही है, तभी तो तीन सप्ताह पहले ऑस्कर से सम्मानित बेस्ट डॉक्यूमेंटरी 'नो अदर लैंड' के चार निर्देशकों में से एक हमदान बलाल पर सोमवार को उन्हीं के गांव में इज़रायली सेना का हमला न होता। अगले दिन जब उन्हें रिहा किया जाता है तब  उनके सर और शरीर पर चोट के निशान मिलते हैं।    'नो अदर लैंड' के चार निर्देशकों में से दो फ़िलीस्तीनी हैं और दो इज़राइली। चार सह-निर्देशकों बासल अद्रा , हमदान बलाल , युवाल अब्राहम और रेचल  सोर की बनाई पहली ही डॉक्यूमेंटरी ने ऑस्कर जीता है और पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र बन गई है। नो अदर लैंड डॉक्यूमेंटरी के ज़रिये इन चारों का मकसद था कि साथ में हमारी आवाज़ ज़्यादा बुलंद होगी और ऐसा हुआ भी। ऑस्कर समारोह में जब इज़रायली पत्रकार युवाल अब्राहम ने अपने फ़िलीस्तीनी सह- निर्देशक बासल अद्रा की ओर देख कर कहा - "जब मैं बासल को ...

आजा ग्रोक ले..

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एआई का नया टूल ग्रोक कुछ ज़्यादा ही मज़ेदार और चतुर मालूम होता है और x के यूजर आजा नाच ले की तर्ज़ पर इन दिनों आज ग्रोक ले में दिलचस्पी ले रहे हैं क्योंकि ग्रोक जहां गाली दे रहा है वहीं नेताओं की बखिया भी उधेड़ रहा है। सरकार एक्शन लेने पर विचार कर रही है लेकिन इलोन मस्क की टीम एक अन्य मामले में पहले ही सरकार के ख़िलाफ़ कर्नाटक हाई कोर्ट में पहुंच गई है  बीते साल इन्हीं दिनों दुनिया के सबसे बड़े उद्योगपति इलोन मस्क भारत आने वाले थे। आम चुनावों के बावजूद भारत सरकार पलक-पावड़े बिछाकर उनके स्वागत की तैयारी में लगी थी कि अचानक  मस्क ने अपनी यात्रा रद्द कर दी। उन्होंने कहा कि टेस्ला में मसला हो गया है क्योंकि कम बिक्री की वजह से वे स्टाफ में दस फ़ीसदी की कटौती करने जा रहे हैं। ख़ुद  मस्क तो तब नहीं हीं आए लेकिन इस साल उनका आर्टिफिशियल  इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) से जुड़ा टूल ग्रोक-3 आ गया और आकर तहलका मचा रहा है।  मस्क के एक्स (पहले ट्विटर) पर एआई जनित ग्रोक ने ऐसे-ऐसे जवाब दिए हैं कि सियासी दलों को समझ ही नहीं आ रहा कि इसका क्या तोड़ लाएं। जो ख़ुश है वह इसलिए कि आख़िर कोई तो...

ये रोज़ी कमाने वाले रोटी क्यों नहीं बनाते

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आख़िर क्यों भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या लगातार घट रही है ?यहां तक की भूटान, नेपाल और अरब देश भी हमसे आगे हैं और पाकिस्तान केवल एक पायदान ही नीचे। आज महिला दिवस के दिन इन कारणों का जानना बहुत ज़रूरी है कि दिन-रात के परिश्रम के बाद भी उसके हिस्से घुटन और आर्थिक निर्णय ना ले पाने की मजबूरी क्यों  है ? एक फ़िल्म ने जैसे इस पर बात करने के लिए सबको दिशा दे दी है कि केवल मिसेज़ बने रह कर हालात नहीं बदले जा सकते  पुरुष यूं तो रसोई में सादियों से है और क्या खूब है लेकिन जब बात परिवार की रसोई में कामकाज  की आती है तो वह गायब होते हैं जैसे खाने से नमक। परिवार नामक इकाई में खाना बनाना केवल स्त्री का दायित्व है। पुरुष कभी-कभार किचन में आते भी हैं तो वह किसी उत्सव से कम नहीं होता। प्याज़, टमाटर,मसाले तैयार कर दो, साहब मसालेदार डिश बना देंगे। फिर घर में सिर्फ वाह-वाही होगी। बातें होंगी  कि साहब यूं तो बाहर जाकर रोज़ी कमाते हैं लेकिन आज तो रोटी भी बनाई है। महिलाओं के जिम्मे खाना बनाने का यह काम हमेशा बिना भुगतान के ही रहा है। हिसाब लगाया जाए कि जो काम महिलाएं घर में करती हैं, उसे च...

मिसेज़ ही क्यों रसोई की रानी Mr. क्यों नहीं?

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आख़िर क्यों भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या लगातार घट रही है ?यहां तक की भूटान, नेपाल और अरब देश भी हमसे आगे हैं और पाकिस्तान केवल एक पायदान ही नीचे। आज महिला दिवस के दिन इन कारणों का जानना बहुत ज़रूरी है कि दिन-रात के परिश्रम के बाद भी उसके हिस्से घुटन और आर्थिक निर्णय ना ले पाने की मजबूरी क्यों  है ? एक फ़िल्म ने जैसे इस पर बात करने के लिए सबको दिशा दे दी है कि केवल मिसेज़ बने रह कर हालात नहीं बदले जा सकते  पुरुष यूं तो रसोई में सादियों से है और क्या खूब है लेकिन जब बात परिवार की रसोई में कामकाज  की आती है तो वह ऐसे गायब होते हैं जैसे खाने से नमक। परिवार नामक इकाई में खाना बनाना केवल स्त्री का दायित्व है। पुरुष कभी-कभार किचन में आते भी हैं तो वह किसी उत्सव से कम नहीं होता। प्याज़, टमाटर,मसाले तैयार कर दो, साहब मसालेदार डिश बना देंगे। फिर घर में सिर्फ वाह-वाही होगी। बातें होंगी  कि साहब यूं तो बाहर जाकर रोज़ी कमाते हैं लेकिन आज तो रोटी भी बनाई है। महिलाओं के जिम्मे खाना बनाने का यह काम हमेशा बिना भुगतान के ही रहा है। हिसाब लगाया जाए कि जो काम महिलाएं घर में करती हैं, उ...

26 और 30 गठन-पतन की दो तिथियां

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जनवरी महीने की ये दो तारीखें हैं तो एक दूसरे के बेहद क़रीब लेकिन  भारत के उत्थान और पतन की कहानी एक साथ सुनाती हैं।   26 को जहां हमने आत्मबोध और वजूद को शब्द दिए;देश को विधान दिया , 30 को उसी बोध को ध्वस्त किया था।  26 जनवरी 1950  को देश की महान सोच को अंगीकार करने के बाद बना संविधान लागू हुआ और 30 जनवरी 1948 को जिन बापू ने बिना खड्ग और ढाल के भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया, उनकी हत्या कर दी गई। उस फ़क़ीर की जिन्हें सुभाष चंद्र बोस ने राष्ट्रपिता और रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने महात्मा कहा था। उन्हें ख़त्म किया जिनका केवल लक्ष्य स्वराज और भाईचारा था जो भारत की आज़ादी के साथ नफ़रत को हमेशा -हमेशा के लिए मिटा देना चाहते थे। वे कौन थे जो उनके इन विचारों से कसमसा उठे? किसे लगा कि उनकी जान लेने में ही उनका जीवन है ? इस हत्या का लंबा मातम हमने किया लेकिन कुछ ठोस नहीं कर सके। अब उस मातम को गर्व में बदलने और सही ठहराने के प्रयास सुनियोजित तरीके से जब-तब होने लगे हैं। हत्या को सही ठहराने का नैतिक साहस आख़िर क्यों खाद-पानी पाता है ? इसे पढ़ते हुए  यदि आप मेरे विचार ...

दोनों ही करते हैं 80 और 20

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15 अगस्त को मिली आज़ादी सच्ची आज़ादी नहीं राजनीतिक आज़ादी थी। देश को सच्ची आज़ादी तो उस दिन मिली जिस दिन राम मंदिर की प्रतिष्ठा हुई। आख़िर इस बात के मायने क्या हैं ? निर्माण तो राम मंदिर का भी संविधान सम्मत तरीके से ही हुआ, तब भी यह कहना क्या सही होगा कि देश में संविधान का पालन नहीं हो रहा है ? क्या वाक़ई शहीदों को नमन करने और 15 अगस्त, 26 जनवरी को कौमी तराने गाने का कोई अर्थ नहीं है? अब हम सब केवल राम मंदिर निर्माण के दिन भजन गाएं और केवल इसी दिन गर्व से भर जाएं ? क्या दोनों को जोड़ना ठीक है ? अब क्या अंग्रेजों के दमन को भूल जाएं और यह भी कि गोरों से मिली स्वतंत्रता के बाद ही हमें तमाम तरह की अतीत की बेड़ियों से भी आज़ादी मिली थी। इससे पहले एक अभिनेत्री ने भी कहा था कि देश को असली आज़ादी तो 2014 में मिली है।आख़िर शहीदों के संघर्ष और लहू से मिली इस आज़ादी को कोई भी कम करके क्यों देखना चाहता है ? क्या ऐसा है कि एक वर्ग स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को भी नए सिरे से लिखना चाहता है और जो इसमें शामिल नहीं थे, उनकी नैतिकता भी बची रहे ?अगर नहीं तो फिर  इससे तकलीफ़ क्या है ? इत...

दुनिया को खरीदने चले कारोबारी नेता

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लगता है कारोबारी से नेता बने राष्ट्राध्यक्ष अपनी दूसरी पारी में दुनिया को खरीदने की चाह में निकल पड़े हैं।  अभी डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिकी राष्ट्रपति का पद संभालने में एक सप्ताह से भी ज़्यादा का समय बाक़ी है लेकिन उनके बातें भरी गगरी की तरह छलक-छलक जा रही हैं। उनकी ताज़ातरीन बयानबाज़ी ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। खासकर यूरोप और कनाडा पर तो ट्रम्प जैसे भरी सर्दी में भीषण बर्फ़ीला तूफ़ान ला रहे हैं। पहले मैक्सिको फिर कनाडा को अपना 51 वां राज्य बनाने का मंसूबा उन्होंने जगज़ाहिर कर दिया है। इसे कुछ इस तरह भी समझा जा सकता है कि अपने अच्छे संबंधों के दौर में  भारत बांग्लादेश के लिए यह कह देता कि उसे भारत का 29 वां राज्य बन जाना चाहिए क्योंकि वहां से घुसपैठ ज़्यादा हो रही है जो उसकी सुरक्षा के लिए खतरा है और समूचे दक्षिण एशिया की शांति और तरक़्क़ी के लिए ऐसा होना बहुत अच्छा है। अपनी तमाम मदद और सरंक्षण के बावजूद भारत के किसी प्रधानमंत्री ने कभी  बांग्लादेश के लिए  ऐसा कोई जुमला नहीं कहा क्योंकि जिस विस्तारवादी नीति के कारण चीन पूरी दुनिया के निशाने पर रहा है, वही रवैया अब ट्रंप...