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आपदा में लाल -लाल आंखें दिखाने का अवसर

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बीते सप्ताह चीनी अधिकारियों ने भारतीय महिला के साथ जो दुर्व्यवहार किया वैसा दो राष्ट्रों के बीच अंतर्राष्ट्रीय कायदे -क़ानून के हिसाब से भी दुर्लभ है। यह बेहद दुःखद, अजीब और हैरान कर देने वाला है कि एक भारतीय महिला को चीन ने अपनी सरज़मीं पर अपमानित किया। सबसे पुरानी सभ्यता के हवाले से भी यह एक शर्मनाक हरकत थी कि आप महिला यात्री के सामने उनका नाम तेज़ी से पुकारते हुए आएं और उन्हें कतार से अलग कर लगातार 18 घंटे तक निगरानी में रखें। उस दिन  शंघाई के पुडोंग हवाई अड्डे पर जो  भी हुआ यह तमाम देशों और उनके अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों के लिए चेतावनी है कि अब देश अपने छोटे-बड़े विवाद यात्रियों को इस तरह सता कर  निपटाएंगे। चीन ने अपने ही 24 घंटे के ट्रांजिट ट्रेवल वीज़ा का उल्लंघन किया है। समझना क्या मुश्किल है कि एक पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर महिला से  18 घंटे तक पूछताछ की गई, उसे भोजन,आराम  और आने-जाने से भी वंचित रखा गया और आगे की यात्रा भी नहीं करने दी गई। होना तो यह चाहिए कि पूरी दुनिया इस घटना की तीखी निंदा करे ताकि फिर कोई सीमा  विवाद हवाई अड्डों पर ही सुलझाने की नाकाम ...

पुरुष के लिए प्रेम में समर्पित स्त्री को समझना मुश्किल

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  क्लासिक पुस्तक-द एंड ऑफ़ द अफेयर  लेखक -ग्रेहम ग्रीन  'द एंड ऑफ़ द अफेयर' ब्रितानी लेखक ग्रेहम ग्रीन (1904 -1991) का वह उपन्यास था जिसने उन्हें रातों-रात पूरी दुनिया में चर्चित कर दिया था। द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई इस  प्रेम कहानी को लेखक बार-बार नफ़रत की कहानी कहकर सम्बोधित करता है। शायद बहुत प्रेम और बहुत घृणा  बड़ी आसानी से एक दूसरे के साथ खो –खो खेल लेते हैं।  उपन्यास 1951 में प्रकाशित हुआ था जिसे टाइम मैगज़ीन ने अपने कवर पर जगह दी थी। हैनरी, सेरा और मोरिस के चरित्र पाठक को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या स्त्री के बेहिसाब समर्पण की थाह ले पाना पुरुष के लिए हमेशा मुश्किल रहता है। अगर जो ऐसा नहीं है तो खूबसूरत और समझदार सेरा जो बड़े सरकारी अधिकारी की पत्नी है के समर्पण के बावजूद मोरिस क्यों इस कदर असुरक्षित रहता है? क्यों उसे लगता है कि सेरा कभी भी उसे छोड़ सकती है। आत्मीय क्षणों की समाप्ति के बाद उसे यही डर सताने लगता है कि सेरा एक दिन उसे छोड़ जाएगी। इस डर में मोरिस सेरा की जासूसी कराने से भी बाज़ नहीं आता और यह जाल व...

सरकार का अख़लाक़ ज़िंदा है

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अख़लाक़ को किसी ने नहीं मारा। वह अपनी क़ब्र में लेटा सोच रहा है कि आख़िर किसने उसे यूं ज़िंदा दफ़न कर दिया। क्या उसने ख़ुदक़ुशी कर ली थी या फिर वह भीड़ जो दस साल पहले उसके घर आई थी, उससे बचने के लिए वह ख़ुद ब ख़ुद इस क़ब्र में उतर आया था। अख़लाक़ इसी उधेड़बुन में  अपनी क़ब्र में पसीने-पसीने हो रहा था क्योंकि करवट लेने की कोई जगह तो वहां थी नहीं। सच ही तो है जैसी पहल अब सरकार ने की है उससे साफ़ है कि  अख़लाक़ को किसी ने नहीं मारा। अगर जो मारा होता तब उसे मारने वाले भी सलाखों के पीछे होते,उसकी मां तकलीफ़ से मर न गई होती,उसकी बीवी अकेली व बीमार ना होती और उसका छोटा-सा घर जो राजधानी दिल्ली के क़रीब एक गाँव में था, यूं उजाड़ न पड़ा होता। उसके बच्चे कुछ भी बोलने में घबरा ना रहे होते। अब जब उसके तमाम आरोपियों को सरकार आरोप मुक्त करने की अर्ज़ी डाल चुकी है तब अख़लाक़ की क़ब्र भी ज़ोर ज़ोर से हिलने लगी है क्योंकि वह मरा नहीं था।    उत्तरप्रदेश सरकार ने दस साल पहले दादरी में हुई अख़लाक़ की हत्या के आरोपियों पर लगे सभी मुक़दमे वापस लेने की पहल की है।  देश की राजधानी दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के दाद...

नफ़रत की आग में सिंकती रोटियां

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नया नहीं है सफेदपोश आतंक बस देश के कर्णधार भूल गए  देश के दिल दिल्ली में वह भी उस ऐतिहासिक धरोहर  के सामने जहां से हमारे तमाम प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस के दिन देश को संबोधित करते आए हैं, बड़ा धमाका होना दिलों का दहला देने वाला है। इस आतंकी घटना में  तेरह लोगों की जान चली गई और कई ज़िंदगी के लिए अब भी संघर्ष कर रहे हैं। यह घटना सिलसिलेवार कई और धमाकों को अंजाम दे सकती थी अगर जो जम्मू और कश्मीर पुलिस ने अक्टूबर महीने में श्रीनगर के नौगाम  में आतंकवादी संगठन जैश ए मोहम्मद के लगाए पोस्टरों को ट्रैक न किया होता। उन्होंने ही फ़रीदाबाद से 2900  किलोग्राम  विस्फोटक बरामद किया जिसे अमोनियम नाइट्रेट बताया जा रहा है। इसके बाद ही स्थानीय पुलिस सक्रिय हुई और कह सकते हैं कि लाल किले पर जो बेहद शक्तिशाली कार  धमाका हुआ वह इसी धरपकड़ से उपजी हताशा थी। इस धमाके की तकलीफ़ में चुभन और ज़्यादा है क्योंकि इस आतंक में डॉक्टर्स शामिल रहे हैं। जो पेशा लोगों की जान बचाने के लिए भगवान का दर्जा रखता है, वही  यहां हैवान बन गया था। जिस कार में धमाका हुआ उसके चालक का ना...

चल गया लड़के ज़ोहरान का ज़ोर

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चौंतीस साल की   छोटी-सी उम्र में न्यूयॉर्क  शहर के मेयर का चुनाव जीतना और वह भी उस पारम्परिक शैली के साथ जिसे बड़े और बूढ़े नेताओं ने पुराना तरीका मान कूड़ेदान में फेंक दिया था । इस जीत ने बताया है कि लोकतंत्र, लोक से जुड़ने का ही नाम है और इससे जुड़ी सियासत ही हमेशा नई रहती है। लोगों के जीवन को आसान बनाना ही राजनीति का पहला फ़र्ज़ है। ध्रुवीकरण, नफ़रत और बड़े कॉर्पोरेट्स की सियासत जनता की पसंद नहीं है। उस लिहाज़ से न्यूयोर्क शहर की यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आज़ादी के कहे शब्द यहां भी गूंजे। ज़ोहरान ममदानी  zohran madani ने विक्ट्री स्पीच में  वे शब्द दोहराते हुए कहा -   "इतिहास में ऐसे क्षण बहुत कम आते हैं  जब हम पुराने से नए की ओर क़दम बढ़ाते हैं। जब एक युग समाप्त होता है और एक राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है। आज रात हम पुराने से नए की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं। " यह महज संयोग ही है कि 34 की उम्र में ही नेहरू भी इलाहाबाद शहर के मेयर बने थे।  दुनिया के सबसे पूंजीवादी शहर न्यूयॉर्क...

चीन की चाल देख थमा अमेरिका और हम चुप

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दुनिया की बहुप्रतीक्षित मुलाक़ात गुरुवार को दक्षिण कोरिया के शहर बुसान में हो गई। वहां ये दो शक्तिशाली देश ऐसे मिले जैसे तलाक की नौबत तक पहुंचे किसी जोड़े की अक्ल अचानक ठिकाने पर आ गई हो। ये वही ट्रंप हैं  जिन्होंने दो महीने पहले कहा था कि भारत और रूस दोनों ही डीपेस्ट और डार्केस्ट चीन के साथ नत्थी हो गए हैं और हमने उन्हें खो दिया है। अब उनकी छलकती ख़ुशी देखकर लग रहा है जैसे चीन यकायक बहुत रोशन और चमकीला हो गया है। नया यह है कि अमेरिका और चीन मिल लिए हैं और किसी भी पक्ष ने गिरकर समझौता नहीं किया है । द्विपक्षीय संबंध लेन-देन और साझे हितों पर चलते हैं। वे दिन लद गए जब दुनिया के धनी मुल्क कमज़ोर मुल्कों की आर्थिक मदद करना अपना दायित्व समझते थे। अब इस हाथ दे और उस हाथ ले का ज़माना है। अमेरिका ने चीन पर टैरिफ़ क्या लादा तो चीन ने रेयर अर्थ मिनरल्स की अपनी नीति बदल उसका निर्यात ही रोक दिया,फेंटेनिल के निर्यात पर नियंत्रण हटा दिया। अमेरिका को बातचीत के लिए आगे आना ही पड़ा और अब चीन अमेरिकी किसानों का सोयाबीन,ज्वार आदि ख़रीदने को राज़ी हो गया और बदले में अमेरिका ने 57 फ़ीसदी के टैरिफ़ ...

होमबाउंड: भारत का खुरदरा सच चला ऑस्कर

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होमबाउंड  ऑस्कर सम्मान के लिए भारत की आधिकारिक एंट्री है। भारत विदेशी भाषा फ़िल्मों की श्रेणी में 1957 से फ़िल्में भेजता आ रहा है और क्या ख़ूब शुरुआत रही उसकी जब मेहबूब खान निर्देशित पहली ही फ़िल्म मदर इंडिया को ऑस्कर में नॉमिनेशन मिला था। देश के सिनेमा विशेषज्ञ तो इसे भारतीय स्त्री,किसान और समाज का जीवित दस्तावेज़ मानते हैं। इसी श्रेणी में इस बार 'होमबाउंड' भेजी जा रही है। 'होमबाउंड' यानी घर तक ही सीमित, वह जो कभी घर से ना निकला हो। आख़िर कितने आसार हैं  'होमबाउंड' के ऑस्कर में जगह बनाने के या फिर यह भी 'लापता लेडीज' की तरह लापता हो जाएगी ? 2024 में यही फ़िल्म भेजी गई थी।  इन दिनों होमबाउंड  भारत के सिनेमाघरों में  दिखाई जा रही है लेकिन बहुत कम लोग इस फिल्म को देख रहे हैं। इसकी वजह भी है क्योंकि फ़िल्म पारम्परिक भारतीय फ्रेम  में फिट नहीं बैठती है। इसमें ना देह के लोच हैं, ना नाच हैं, ना गाने हैं और ना ही स्विटज़रलैंड की हसीन वादियां। अगर कुछ है तो सख़्त और दुबली-पतली देहें, ख़ुरदरे पैरों की फटी बिवाइयां,जानवरों की तरह रेल...