संदेश

सरकार का अख़लाक़ ज़िंदा है

चित्र
अख़लाक़ को किसी ने नहीं मारा। वह अपनी क़ब्र में लेटा सोच रहा है कि आख़िर किसने उसे यूं ज़िंदा दफ़न कर दिया। क्या उसने ख़ुदक़ुशी कर ली थी या फिर वह भीड़ जो दस साल पहले उसके घर आई थी, उससे बचने के लिए वह ख़ुद ब ख़ुद इस क़ब्र में उतर आया था। अख़लाक़ इसी उधेड़बुन में  अपनी क़ब्र में पसीने-पसीने हो रहा था क्योंकि करवट लेने की कोई जगह तो वहां थी नहीं। सच ही तो है जैसी पहल अब सरकार ने की है उससे साफ़ है कि  अख़लाक़ को किसी ने नहीं मारा। अगर जो मारा होता तब उसे मारने वाले भी सलाखों के पीछे होते,उसकी मां तकलीफ़ से मर न गई होती,उसकी बीवी अकेली व बीमार ना होती और उसका छोटा-सा घर जो राजधानी दिल्ली के क़रीब एक गाँव में था, यूं उजाड़ न पड़ा होता। उसके बच्चे कुछ भी बोलने में घबरा ना रहे होते। अब जब उसके तमाम आरोपियों को सरकार आरोप मुक्त करने की अर्ज़ी डाल चुकी है तब अख़लाक़ की क़ब्र भी ज़ोर ज़ोर से हिलने लगी है क्योंकि वह मरा नहीं था।    उत्तरप्रदेश सरकार ने दस साल पहले दादरी में हुई अख़लाक़ की हत्या के आरोपियों पर लगे सभी मुक़दमे वापस लेने की पहल की है।  देश की राजधानी दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के दाद...

नफ़रत की आग में सिंकती रोटियां

चित्र
नया नहीं है सफेदपोश आतंक बस देश के कर्णधार भूल गए  देश के दिल दिल्ली में वह भी उस ऐतिहासिक धरोहर  के सामने जहां से हमारे तमाम प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस के दिन देश को संबोधित करते आए हैं, बड़ा धमाका होना दिलों का दहला देने वाला है। इस आतंकी घटना में  तेरह लोगों की जान चली गई और कई ज़िंदगी के लिए अब भी संघर्ष कर रहे हैं। यह घटना सिलसिलेवार कई और धमाकों को अंजाम दे सकती थी अगर जो जम्मू और कश्मीर पुलिस ने अक्टूबर महीने में श्रीनगर के नौगाम  में आतंकवादी संगठन जैश ए मोहम्मद के लगाए पोस्टरों को ट्रैक न किया होता। उन्होंने ही फ़रीदाबाद से 2900  किलोग्राम  विस्फोटक बरामद किया जिसे अमोनियम नाइट्रेट बताया जा रहा है। इसके बाद ही स्थानीय पुलिस सक्रिय हुई और कह सकते हैं कि लाल किले पर जो बेहद शक्तिशाली कार  धमाका हुआ वह इसी धरपकड़ से उपजी हताशा थी। इस धमाके की तकलीफ़ में चुभन और ज़्यादा है क्योंकि इस आतंक में डॉक्टर्स शामिल रहे हैं। जो पेशा लोगों की जान बचाने के लिए भगवान का दर्जा रखता है, वही  यहां हैवान बन गया था। जिस कार में धमाका हुआ उसके चालक का ना...

चल गया लड़के ज़ोहरान का ज़ोर

चित्र
चौंतीस साल की   छोटी-सी उम्र में न्यूयॉर्क  शहर के मेयर का चुनाव जीतना और वह भी उस पारम्परिक शैली के साथ जिसे बड़े और बूढ़े नेताओं ने पुराना तरीका मान कूड़ेदान में फेंक दिया था । इस जीत ने बताया है कि लोकतंत्र, लोक से जुड़ने का ही नाम है और इससे जुड़ी सियासत ही हमेशा नई रहती है। लोगों के जीवन को आसान बनाना ही राजनीति का पहला फ़र्ज़ है। ध्रुवीकरण, नफ़रत और बड़े कॉर्पोरेट्स की सियासत जनता की पसंद नहीं है। उस लिहाज़ से न्यूयोर्क शहर की यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आज़ादी के कहे शब्द यहां भी गूंजे। ज़ोहरान ममदानी  zohran madani ने विक्ट्री स्पीच में  वे शब्द दोहराते हुए कहा -   "इतिहास में ऐसे क्षण बहुत कम आते हैं  जब हम पुराने से नए की ओर क़दम बढ़ाते हैं। जब एक युग समाप्त होता है और एक राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है। आज रात हम पुराने से नए की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं। " यह महज संयोग ही है कि 34 की उम्र में ही नेहरू भी इलाहाबाद शहर के मेयर बने थे।  दुनिया के सबसे पूंजीवादी शहर न्यूयॉर्क...

चीन की चाल देख थमा अमेरिका और हम चुप

चित्र
दुनिया की बहुप्रतीक्षित मुलाक़ात गुरुवार को दक्षिण कोरिया के शहर बुसान में हो गई। वहां ये दो शक्तिशाली देश ऐसे मिले जैसे तलाक की नौबत तक पहुंचे किसी जोड़े की अक्ल अचानक ठिकाने पर आ गई हो। ये वही ट्रंप हैं  जिन्होंने दो महीने पहले कहा था कि भारत और रूस दोनों ही डीपेस्ट और डार्केस्ट चीन के साथ नत्थी हो गए हैं और हमने उन्हें खो दिया है। अब उनकी छलकती ख़ुशी देखकर लग रहा है जैसे चीन यकायक बहुत रोशन और चमकीला हो गया है। नया यह है कि अमेरिका और चीन मिल लिए हैं और किसी भी पक्ष ने गिरकर समझौता नहीं किया है । द्विपक्षीय संबंध लेन-देन और साझे हितों पर चलते हैं। वे दिन लद गए जब दुनिया के धनी मुल्क कमज़ोर मुल्कों की आर्थिक मदद करना अपना दायित्व समझते थे। अब इस हाथ दे और उस हाथ ले का ज़माना है। अमेरिका ने चीन पर टैरिफ़ क्या लादा तो चीन ने रेयर अर्थ मिनरल्स की अपनी नीति बदल उसका निर्यात ही रोक दिया,फेंटेनिल के निर्यात पर नियंत्रण हटा दिया। अमेरिका को बातचीत के लिए आगे आना ही पड़ा और अब चीन अमेरिकी किसानों का सोयाबीन,ज्वार आदि ख़रीदने को राज़ी हो गया और बदले में अमेरिका ने 57 फ़ीसदी के टैरिफ़ ...

होमबाउंड: भारत का खुरदरा सच चला ऑस्कर

चित्र
होमबाउंड  ऑस्कर सम्मान के लिए भारत की आधिकारिक एंट्री है। भारत विदेशी भाषा फ़िल्मों की श्रेणी में 1957 से फ़िल्में भेजता आ रहा है और क्या ख़ूब शुरुआत रही उसकी जब मेहबूब खान निर्देशित पहली ही फ़िल्म मदर इंडिया को ऑस्कर में नॉमिनेशन मिला था। देश के सिनेमा विशेषज्ञ तो इसे भारतीय स्त्री,किसान और समाज का जीवित दस्तावेज़ मानते हैं। इसी श्रेणी में इस बार 'होमबाउंड' भेजी जा रही है। 'होमबाउंड' यानी घर तक ही सीमित, वह जो कभी घर से ना निकला हो। आख़िर कितने आसार हैं  'होमबाउंड' के ऑस्कर में जगह बनाने के या फिर यह भी 'लापता लेडीज' की तरह लापता हो जाएगी ? 2024 में यही फ़िल्म भेजी गई थी।  इन दिनों होमबाउंड  भारत के सिनेमाघरों में  दिखाई जा रही है लेकिन बहुत कम लोग इस फिल्म को देख रहे हैं। इसकी वजह भी है क्योंकि फ़िल्म पारम्परिक भारतीय फ्रेम  में फिट नहीं बैठती है। इसमें ना देह के लोच हैं, ना नाच हैं, ना गाने हैं और ना ही स्विटज़रलैंड की हसीन वादियां। अगर कुछ है तो सख़्त और दुबली-पतली देहें, ख़ुरदरे पैरों की फटी बिवाइयां,जानवरों की तरह रेल...

जॉली LLB-3 इस बार दो जालियों के बीच में उलझा क़ानून

रविवार को  दिन में जॉली LLB-3 फ़िल्म देखी।हॉल आधा भरा हुआ था। बिना किसी हिचक के कह सकती हूं  कि फ़िल्म कमाल की है। कुछ तो मन सोनम वांगचुक की गिरफ़्तारी से व्यथित है और कुछ यह जॉली -3 भी ऐसे ही सवाल करती  है कि ए वतन तू क्यों न हमारा हुआ ? तक़लीफ़ से घिरी जनता जब शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन में शामिल होती है तो व्यवस्था ऐसा जाल रचती है कि आंदोलन हिंसक हो जो ऐसा नहीं होता तो वह ख़ुद चिंगारी सुलगा देती है। फिर सत्ता की गोलियां मासूमों के सर में धसने लगती हैं। जॉली बेशक़ भट्टा परसोल से जुड़े किसानों की घटना पर बनी हो लेकिन उसकी आत्मा राजस्थान की पृष्ठभूमि में इस क़दर जीवंत हुई है कि लगता है जैसे देश का हर हिस्सा तकलीफ़ और उत्पीड़न के मामले में एक ही है। यहां उसकी भाषा ,पहनावा, खान-पान सब एक है। उसकी स्पिरिट को समझने में हर सत्ता हर नेता नाकाम है। संविधान का भी टेक्स्ट है लेकिन मूल भाव गायब। हर राज्य में  किसान और आदिवासियों से उनकी ज़मीन छीन कर मुनाफ़ाख़ोर क़ारोबारियों को देकर विकास के सब्ज़बाग़ दिखाने का यह धंधा अर्से से जारी है। सत्ता किस क़दर बड़े उद्योगपतियों का हित देखती है और इस हित...

आ से आम नहीं आंदोलन

चित्र
इस निज़ाम में आ से आम नहीं आंदोलन होता है और ड से होता है उसका डर। आम युवा की फ़िक्र ना करना और जब वह किसी प्रदर्शन का हिस्सा बनें तो फिर पूरे देश में ऐसा माहौल बनाना कि ये युवा भ्रमित हैं, दिशाहीन हैं ऐसा भला कौन करना चाहेगा लेकिन ऐसा ही हो रहा है। राजस्थान,उत्तरप्रदेश,बिहार,उत्तराखंड के युवाओं की पेपर लीक की बेचैनी,चयनित प्रशानिक अधिकारियों के नतीजों को रद्द करने की तकलीफ़ और इससे उपजी व्यापक बेरोज़गारी को नज़रअंदाज़ कर सरकार अपनी मदमस्त चाल से चल ही रही थी कि सीमा पर लेह और लद्दाख में हालात बेकाबू हो गए। शांति पूर्ण प्रदर्शन हिंसक विरोध में बदल गया,भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय आग के हवाले हो गया क्योंकि सरकार ने सुनने में देर की। इतिहास गवाह है कि युवा वायु के प्रचंड आवेग से होता है जो समय रहते उसकी तक़लीफ़ वाली नब्ज़ पर हाथ नहीं रखा तो फिर यह आंधी तूफ़ान में बदलते देर नहीं लगती। यही लद्दाख में हुआ है। युवाओं की जान गई है। आखिर क्यों सरकार समय रहते बातचीत नहीं करती ? क्यों कोई युवा यह जानते हुए भी कि पुलिस की लाठी,गोली किसी भी पल उसके जीवन का शिकार कर सकते हैं, वह सर पर कफ़न बांध लेता है ? स...