तो 'अमिट' ब्लंडर' हो गया है शाह से ?
वाक़ई अजीब समय है यह। संसद में संविधान पर बहस करते-करते ये नेता लोग आपस में ही भिड़ गए। धक्का-मुक्की करने लगे।पहले तो इनकी बहस का स्तर तू -तू ,मैं-मैं की तर्ज़ पर था और फिर दोनों पक्ष ने हाथा-पाई भी कर ली। संविधान के 75 साल पूरे करने वाला यह अमृतकाल एक नाटकीय बहस में बदल दिया गया। दोनों पक्षों का लगा कि वे ही देवता हैं और इस समुद्र मंथन से निकले अमृत का पूरा लाभ उन्हें ही मिलेगा। देश की जनता उन्हें माथे पर बैठा लेगी लेकिन जनता इनका व्यवहार देखकर हताश है। इनमें कोई भी शिव की तरह विष पीने का साहस नहीं करता ,जो करता तो देश को बाबा साहब के समानता मूलक विचारों से रूबरू कराता। अपनी गलतियों को गिनाता। शायद वे नहीं जानते कि जनता उनकी इस लड़ाई से तंग आ चुकी है क्योंकि ये हर मौके पर दो -तीन बड़े नेताओं की ऊंची-ऊंची प्रतिमाएं (केवल प्रतिमाएं ,उनके आदर्शों का इन्हें कोई भान नहीं) निकाल लाते हैं। नकली बहस में जुटते हैं और उम्मीद करते हैं कि तमाम माध्यमों से जुड़ कर लोग इन्हे देखें और इनकी झोली वोटों से भर दें। सच तो यह है कि ये इतने डरपोक हैं कि वे यह भी स्वीकार ...