सनातन पर सत्ता के हिंसक बयान और 'घमंडिया '


अगर पूछा जाए कि घमंडिया और इंडी अलायंस  किसके नाम हैं तो झट जवाब आएगा विपक्षी गठबंधन के । प्रचार और शब्दावली की ताकत ऐसी है कि बेचारे  इंडिया गठबंधन का असली नाम ही कहीं पीछे छूट गया है। प्रधानमंत्री ने मध्यप्रदेश के बीना में इस गठबंधन के लिए कहा कि घमंडिया गठबंधन के लोग सनातन को समाप्त करने का संकल्प लेकर आए हैं। दरअसल करूणानिधि के पोते और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन  ने कहा था कि सनातन धर्म को जड़ से ख़त्म किया जाना चाहिए और मच्छर, डेंगू ,मलेरिया और कोरोना ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं ,जिनका केवल विरोध नहीं किया जा सकता बल्कि उन्हें ख़त्म करना ज़रूरी होता है। इसके बाद तो तश्तरी में रखे इस मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी की पूरी सरकार टूट पड़ी है । विपक्ष ने ऐसा बढ़िया मौका खुद सत्ता पक्ष को दिया और अब जब तीर कमान से निकल चुका इंडिया अलायंस ने कह दिया है कि  मुख्यमंत्री एम के स्टालिन और गठबंधन इस मुद्दे पर कोई बयान नहीं देंगे और इसे यहीं समाप्त करने का फैसला ले लिया गया है। विपक्ष को इन दिनों जो थोड़ी सुर्खियां मिली  है वह उन 14 एंकरों की सूची है जिनकी टीवी बहसों में अब वे नहीं जाएंगे। उनका कहना है कि रोज़ शाम को इनकी नफरत की दुकान सजती है और हम नफरत के बाजार में ग्राहक नहीं बनेंगे। 

सनातन के मुद्दे पर भी केंद्र की सत्ता ने बड़ी ही हिंसक बातों का दामन थाम लिया गया है। वे भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री हैं। रेतीले धोरों की धरती से आते हैं और एक बड़ा ही शीतल और निर्मल विभाग उनके पास है। वे जल संसाधन मंत्री हैं और राजस्थान के भावी मुख्यमंत्री होने की ख्वाहिश रखते हैं। ऐसा हो भी सकता है लेकिन क्या जनता अपने नेता की सभा में ज़ुबान खींच ली जाएगी और आँखें निकाल लेंगे जैसे शब्द सुनने के लिए आती है ? बाड़मेर के धोरीमन्ना में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया। इसके पहले वे राजस्थान सरकार के एक मंत्री को अरब सागर में फेंकने  की बात कर चुके हैं और मुख्यमंत्री को रावण भी कह चुके हैं। ऐसी भाषा जब परिवर्तन यात्राओं में इस्तेमाल होगी तो आप किस हक़ से जनता से उम्मीद करते हैं कि वह शांत रहे। फिर हरियाणा के नूंह और महाराष्ट्र के सतारा में हुई हिंसा को आप कैसे रोक सकते हैं? आख़िर बात–बात पर ये नेता इस क़दर उत्तेजित क्यों होते हैं? बुद्ध, विवेकानंद और बापू के देश में क्या अब यही सलीका रह गया है नेताओं में बातचीत का?

अब से 130 साल पहले शिकागो में 11सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा में जो कहा था लगता है उसे इन नेताओं ने पूरी तरह भुला दिया है। सभा में मौजूद पूरी अंतर्राष्ट्रीय  बिरादरी का दिल जीत लेने वाले उस ऐतिहासिक व्याख्यान की प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं "मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौमिकता की शिक्षा दी। हम लोग सभी धर्मों के प्रति केवल  सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते,  समस्त धर्मों को सच्चा मान कर उन्हें स्वीकर करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का इंसान होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और समस्त उत्पीड़ितों –शराणार्थियों को आश्रय दिया है। ” कितने कमाल की बात है कि जिस सभा में सब अपने धर्म की श्रेष्ठता साबित करना चाह रहे थे वहां स्वामी जी ने सब धर्मों के सत्य को स्वीकारने वाले हिंदू धर्म की इस ख़ूबी को बताकर उसे हर प्रतिस्पर्धा से ऊपर स्थापित कर दिया। आज के ये नेता चाहे तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी  डीएमके के उदयनिधि स्टालीन हों या गजेंद्र सिंह शेखावत जो केवल अपनी तात्कालीन राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं, इनमें से किसी को भी इल्म है कि वे किस महान विरासत को धूमिल कर रहे हैं।

दरअसल सनातन संस्कृति के बारे में दक्षिण के बड़े विचारकों का मनाना है कि यह समानता की पैरोकार नहीं है और इससे वंचित समाज को बराबर के हक़ नहीं मिल पाते। तमिलनाडु की राजनीति में इसका असर साफ़ देखा जा सकता है खासकर द्रविड़ राजनीति ने इसे अपने ख़िलाफ़ माना। आर्य और द्रविड़ विवाद कोई आज का नहीं है। तमिलनाडु का  राजनीतिक इतिहास बताता है कि इसकी शुरुआत पिछली सदी के दूसरे दशक से हुई जब वहां के नेताओं ने तमिलनाडु के निवासियों को द्रविड़ मानते हुए उन्हें उत्तर भारत के आर्यों से अलग कहा था। पेरियार और रामास्वामी के नेतृत्व में बदलाव की जबरदस्त लहर चली और आगे जो राजनीतिक आंदोलन  कायम हुआ वह द्रविड़ मुनेत्र कषगम कहलाया। सत्तर के दशक से हर चुनाव में प्रदेश की सत्ता दो दलों डीएमके और अन्ना डीएमके के हाथ में रही और वे उच्च वर्ग विरोधी रुख के कारन सत्तासीन होते रहे। समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि आम जनता को इससे ताकत मिली, भरोसा मिला। दक्षिण के इस नेरेटिव से भाजपा में  उत्तर भारत में लाभ लेने की इच्छा बलवती हुई और  इस पर लगातार बयान आ रहे हैं। 

 नफ़रत ,बहस, लड़ाई  वर्तमान भारतीय राजनीति का यही आधार बना हुआ  है। चुनाव करीब हैं, लिहाज़ा  विश्व हिन्दू परिषद 30 सितंबर से 15 अक्टूबर तक शौर्य जागरण यात्राओं का संचालन करेगी और उसके  धर्म योद्धा देश भर में घूमेंगे। ये स्वामी विवेकानंद की विरासत को लेकर नहीं चलेंगे  बल्कि ये बताएंगे कि 'लव जेहाद' क्या है और जो कोई कथित जेहादी हो भी गया है यानी किसी और धर्म इस्लाम या ईसाईयत को अपना  चुका है ऐसे में उसकी 'घर वापसी' कैसे होगी । बंटवारे का दावानल सुलगता रहना चाहिए और उसमें आग उगलते बयानों का पेट्रोल भी पड़ते रहना चाहिए। ये बयान जब सरकार के मंत्री देते हैं तो मतदाता को चिंतित अवश्य होना चाहिए उसका कीमती मत और टैक्स उसके कल्याण में खर्च होगा या परिवर्तन रैलियों में ज़हर उगलेगा। रैलियां अधिकार है लेकिन कानून व्यवस्था को देखना होगा कि इसके  ज़रिये अनावश्यक उकसाने और नीचा दिखाने का उपक्रम ना हो जैसा की पिछले दिनों हरियाणा के नूंह की सांप्रदायिक हिंसा में हुआ। अच्छी बात यह है कि इससे जुड़े एक आरोपी मोनू मानेसर को गिरफ्तार कर राजस्थान पुलिस को सौंप दिया गया है जिस पर दो लड़कों की हत्या का इलज़ाम भी है। 

क्या सत्ता कभी इस बात पर विचार नहीं करती कि ऐसे मुद्दों से देश में केवल तनाव पैदा होता है,अफवाहें सर उठाती हैं और लोग सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हो अपनी जान गंवा देते हैं। महाराष्ट्र  के सतारा ज़िले के गाँव में एक सोशल मीडिया पोस्ट से एक व्यक्ति की जान चली गई और दस से ज़्यादा घायल हो गए। कई शहरों की ऐसी ही दर्दभरी दास्तानें हैं।  इंटरनेट बंद कर दिया जाता है ,स्कूल कॉलेज बंद हो जाते हैं। क्यों इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक युग में ऐसा हो रहा है ? एक तरफ हम चांद पर पहुँच कर  आल्हादित  हैं और दूसरी ओर हमारे ही देश का दुखद सच है कि धर्म के नाम पर लोगों की जानें जा रही हैं। क्या इसके लिए चुनता है देश कोई सरकार ?क्या सत्ता कभी इस बात पर विचार नहीं करती कि ऐसे मुद्दों से देश में केवल तनाव पैदा होता है,अफवाहें सर उठाती हैं और निर्दोष लोग सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हो अपनी जान गंवा देते हैं। 

चलते -चलते प्रतिबंधित एंकरों की बात भी कर दी जाए। बेशक यह प्रेस की आज़ादी की पैरवी करने वाला फैसला नहीं है। विरोध में तर्क दिए जा रहे हैं  कि आपातकाल में ऐसा इंदिरा गांधी ने किया था। इस सूची में दूरदर्शन के अशोक श्रीवास्तव भी हैं। श्रीवास्तव ने कहा है कि आपातकाल में उनके पिता ने आवाज़ उठाई थी ,उनके खिलाफ मीसा धारा लगा दी गई लेकिन पिता ने माफी नहीं मांगी। हम भी आपके पिता का आदर करते हैं क्योंकि वे सत्ता की तानाशाही के खिलाफ खड़े थे लेकिन आप तो सत्ता के साथ हैं।  दूरदर्शन सरकारी माध्यम हैं। आप सरकार के समर्थन में हैं फिर आपका और आपके पिता का संघर्ष एक कैसे हुआ ?


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