चौकसे जी आप जो भी रहे परदे के सामने रहे
आदरणीय चौकसे जी के जाने के बाद मेरे लिखत पढ़त की दुनिया अब दो भागों में बंट गई है। पहले उनके साथ और अब उनके बाद। अब कोई इतनी साफगोई से मुझे नहीं बता सकेगा कि इस नए और भयावह युद्ध में रूस, यूक्रेन और भारत की भूमिका क्या और कैसे देखी जानी चाहिये। क्योंकर यूरोप और सशक्त देश आसुदाहाल होकर भी युद्ध को लेकर प्यासे हैं ? क्यों भारत में कोई ऐसे नेता नहीं जो खुलकर हिंसा का विरोध करे ? क्या वे भूल गए हैं कि हम बापू के देश से हैं ? बेशक ये जवाब चौकसे जी से मिलते और इस मासूमियत पर कौन न कुर्बान हो जाए कि वे फिल्म कॉलम लिखते थे। आज दैनिक भास्कर ने उनकी ख़ामोशी के बाद उन्हीं की लिखी एक चिट्ठी प्रकाशित की है जो उन्होंने छह साल पहले कैंसर से ग्रस्त होने के बाद एम डी सुधीर अग्रवाल जी को लिखी थी। चौकसे जी तो बड़े लेखक रहे ही। वे जीते जी इतना सोच सकते थे कि पाठक को उनके जाने के बाद भी नया मिल सके। भास्कर ने जरूर उनका खत छापकर अपने प्रयोगों की सूची में एक और बड़ा प्रयोग शामिल कर दिया है। एक घटना मैं भी आज साझा करना चाहती हूं ।
बात 1996 की रही होगी। सुधीर अग्रवाल जी का एक प्रयोग था इंदौर विशेष जिसकी टीम में मैं भी शामिल थी। इन्हीं दिनों भास्कर की एक लाख प्रतियां होने पर इंदौर शहर में उत्सव एक लाख का मना रहा था। यह वह समय था जब इंदौरऔर देश भर में नईदुनिया की तूती बोलती थी और भास्कर एक-एक प्रति बढ़ाने के लिए नईदुनिया से लड़ रहा था। इस उत्सव में केपीएस गिल ,मंजीत बावा , इला अरुण ,प्रीतिश नंदी और नई -नई मिस वर्ल्ड बनी ऐश्वर्या राय शामिल होने वाले थे। जिस शाम नेहरू स्टेडियम में इला अरुण का शो था उसी सुबह मेरी एक खबर साक्षरता मिशन की धीमी गति को लेकर भास्कर के इंदौर विशेष पेज पर प्रकाशित हुई । नया-नया उत्साह था। हम सब भी सुबह की मीटिंग के बाद नेहरू स्टेडियम पहुंच गए। वहां सुधीर जी किसी पर बरस रहे थे कि इतना बड़ा इवेंट कर रहे हैं और आप लोग ये क्या प्रशासन के खिलाफ छाप देते हैं। व्यवस्थाएं बिगड़ीं तो कौन ज़िम्मेदार होगा। वे बहुत गुस्से में थे। सामने मैं थी और किसी ने उन्हें बता दिया कि खबर इसी ने लिखी है। फिर तो बंदूक मेरे आगे तन गई। खूब डांट। मैं दुःख और शर्म के भाव लिए घर लौट आई और कहा कि मैंने नौकरी छोड़ दी है। अगले दिन मैं दादा -दादी के पास देवास चली गई जो इंदौर से चालीस किलोमीटर करीब है।
बात चौकसे जी तक पहुंची कि एक नई पत्रकार के साथ ऐसा हुआ है। उन्होंने सीधे सुधीर जी से कहा कि इस लड़की की कोई गलती नहीं है। उसे वापस काम पर बुलाओ। वे मेरे घर भी गए कुछ साथियों के साथ और कहा कि लड़की कहां हैं उसे दफ्तर भेजो। घर पर माता-पिता हैरत में थे कि यह सब क्या हो रहा है। पता नहीं वह अच्छे लोगों का दबाव था या मेरी काम करने की इच्छाशक्ति, मैं काम पर लौट आई। चौकसे जी का एक छोटे से पत्रकार के लिए यूं संघर्ष करना मैं कैसे भूल सकती हूं ? आप जो भी रहे परदे के सामने रहे परदे के पीछे कुछ नहीं। पारदर्शी, कांच की तरह साफ़ धवल उज्ज्वल। एक सशक्त का यूं कमजोर के पक्ष में खड़े होना.. आंखें धुंधला गई हैं .. गोया कि मैं इतनी निष्णात नहीं हूं सर। सादर प्रणाम। अलविदा।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें