पर्दा बुर्का हिजाब और घूंघट

एक पंक्ति पर बात खत्म हो सकती है कि किसी भी तरह का पर्दा बुरका हिजाब घूंघट इंसानियत के नाम पर कलंक है और इस कलंक धो दिया जाना चाहिए। वैसे ही तीन तलाकऔर बिना किसी तलाक के पत्नी को छोड़ देना भी कलंक ही है।

मेरे साथ जयपुर के दफ्तर में एक महिला पत्रकार साथी काम किया करती थी। एक दिन मैंने देखा कि रास्ते में मेरे आगे बुर्का पहने एक स्त्री दुपहिया पर सवार है। यह वही होनहार साथी थी। दफ्तर पहुंचते ही मैंने थोड़ी सख्त आवाज में कहा -कमाल है तुम बुरका पहनती हो,मुझे लगा था यह लड़ाई तो तुम बहुत पहले खुद से और फिर बाकियों से भी जीत चुकी होगी लेकिन मैं गलत  थी। उसने शांत स्वर में जवाब दिया -"यह मुझे भी पसंद नहीं लेकिन मुझे अपना काम बहुत पसंद है।  बहुत संभव है कि अगर मैं इसे ना पहनूं तो परिवार में कुछ बातें हों।  मेरे बुजुर्ग ससुर को इससे खुशी मिलती है तो मुझे इसमें दिक्कत नहीं है। मुझे परिवार भी चाहिए। एक क्षण लगेगा बुर्का  उतार फेंकने में लेकिन मैं थोड़ा समय लुंगी, उन्हें अपने हक़ में करने के लिए।" इस बात को लगभग सात आठ साल बीत चुके हैं और आज वह पत्रकार लेखन की दुनिया में सक्रिय और पहचाना नाम है। बुर्का  वह अब नहीं पहनती और अपनी तस्वीरों को नुमाया करने  से उसे कोई गुरेज भी नहीं है। 

क्या कोई समाज महिलाओं की तकलीफ को इस नज़रिये से देखने में  यकीन रखता है। पहले शिक्षा और फिर काम करने की जगहों पर वे कितनी मुश्किल राहें तय कर पहुंची हैं ? समाज शायद रखता भी है लेकिन  राजनीतिक दलों और गोदी मीडिया में तो यह सलाहियत बिल्कुल भी नहीं। इतना धैर्य रख लिया तो वोटों की कटती हुई फसल कहीं और निकल जाएगी। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा लगाना आसान है उसकी तकलीफों को बैठकर समझना दूसरी बात जिसमें किसी की कोई दिलचस्पी नहीं। कौन भूल सकता है जब जयपुर की लड़कियों को पढ़ाने के लिए पूर्व महारानी गायत्री देवी ने स्कूल खोला था तब परदे वाली बस ही लड़कियों को लाती और ले जाती थी। स्कूल परिसर की दीवारें इतनी ऊंची कि परिंदों की निगाह भी मुश्किल से जा पाएं। साहित्यकार मनीषा कुलश्रेष्ठ कहती हैं - "मैं पर्दा, घूंघट और हिजाब तीनों का साथ नहीं दे पाती लेकिन निजी स्वंत्रता की हामी हूं। सर ढकने और  हिजाब के लिए फिर भी जजमेंटल नहीं। मुझे एक प्रोफेसर साहब की बात याद आती है। कैसे कैसे हालात में लड़कियां पढ़ने निकलती है तो पढ़ने दो न। उन पर ड्रेसकोड मत लागू करो। जीन्स पहने तो भी,हिजाब पहने तो भी । साड़ी  पहने  माथा ढकें ,सिंदूर लगाएं तब भी। क्या फायदा आपकी हठ के चलते वे पढ़ने से ही वंचित हो जाएं।"  

बात ज़रूरी है क्योंकि अगर धार्मिक पहचान चिन्हों को ही हटाने का आधार माना  जाए तो फिर हम तो वे नागरिक हैं जो जीते ही इसी तरह हैं। सबके अपने अपने पहचान चिन्ह हैं जो वे धारण करते हुए चलते हैं। वे किसी भी पद पर कोई भी हो सकते हैं। यह तटस्थता कैसे  हासिल की जाएगी ?यह रोक और दबाव का सिलसिला कहां जाकर थमेगा ?शिक्षा के मंदिर में ऐसा दृश्य कि एक तरफ कैसरिया पगड़ी और शॉल दी जा रही हो और दूसरी तरफ लड़कियां बुर्का और हिजाब पहने आमने-सामने हो। एक नागरिक होने के नाते खुद पर शर्म सी आने लगती है। आखिर किसे मज़ा आता है इन दृश्यों में? किसकी सोच में यह मंज़र फिट बैठता है ? क्या कोई सोच भी सकता है कि बुर्का पहनी लड़कियों को यूं  दूसरे  रंग से सामना कराया जाएगा ? यह दृश्य दुःखद है।  दो कॉलेजों की तकलीफदेह कहानी है कि एक को कोई एतराज नहीं लड़कियां कुछ भी पहने जबकि दूसरे ने इस पर प्रतिबंध लगाया। मुस्कान जिसकी तस्वीर लगातार देखी जा रही है वह कर्नाटक  के मांड्या  स्थित कॉलेज की सेकंड ईयर बीकॉम की छात्रा है। उसकी साथी छात्राओं को कॉलेज में दाखिल होने से रोका गया तो उसने फिर खुद को पूरे आत्मविश्वास से रखा जिसकी सोशल मीडिया पर भूरी भूरी प्रशंसा भी हो रही है। वह साफ़ कहती है कि हम इसी तरह कॉलेज आते रहे हैं हमारे कॉलेज प्रशासन और  प्रिंसिपल ने यह अनुमति हमें दी है । यह बाहर से आए लोग हम पर दबाव  हैं। मैं उनकी क्यों सुनूं ? मेरे साथ सभी छात्राएं हैं लेकिन मेरी मां अब डरने लगी है। 

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का एक फिल्म अलंकृता श्रीवास्तव ने बनाई  थी जिसमें चार महिलाएं अपनी सड़ी गली ज़िन्दगी को बदल देना चाहती हैं। आवाज़ लड़कियों की ही होगी, किसी दबाव की नहीं या फिर तीन तलाक की तरह इसे भी कानून के दायरे में लिया जाए। दूसरे पक्ष को प्रभावित कर सके उतने वोट बुर्के के जरिये नहीं मिलेंगे। वोट लेने के लिए आपकी प्रयोगशालाओं को प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील होना पड़ेगा। सब जानते हैं कि किसी भी इंसान को सिर से पांव तक वह लिबास कैसे बर्दाश्त होगा जो उसे हवा पानी से महरूम करता हो। यह न्याय नहीं है।घूंघट भी ऐसी ही चेष्टा करता हुआ प्रयास है। राजस्थान से कोलायत की एक प्रतिष्ठित परिवार की बहू ने विधायकी का परचा घूंघट के साथ भरा तो लिखकर ,बोलकर कहा गया कि कैसे इनसे उम्मीद की जाए कि इनके मतदाता इनसे संवाद कर पाएंगे ?ऐसे ही ये खाइयां पाटी जा सकती हैं। सस्ते हथकंडो से चर्चा हो जाएगी गंभीर बहस नहीं होगी। बदलाव की बयार नहीं बहेगी। लड़कियां बोले। फैज़ अहमद फैज़ तो बहुत पहले बोल चुके हैं बोल कि अब आजाद हैं तेरे बोल जुबां अब तेरी है   

 









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