बाइस को इक्कीस से शांत और स्वस्थ क्यों नहीं होना चाहिए

इक्कीस से विदा ले हम बाईस में दाखिल हो चुके हैं। दिल बेशक उम्मीद से भरा होना चाहिए कि देश और दुनिया अब और सेहतमंद और शांत होंगे लेकिन  वाकई ऐसा है ? क्या इक्कीस ने हमारी सर पर मंडराती हुई इन बालाओं से हमें मुक्त किया है ? क्या ऐसे प्रयास हुए हैं जो इंसान पर आई इस आपदा से हमें आजाद करे। शायद नहीं क्योंकि कोरोना वायरस रूप बदलकर और मजहबीं ताकतें सर उठाकर नगाड़े कूटती हुई बाईस में भी घुसपैठ कर गईं हैं। कोरोना के डर को फैलाया जा रहा है और इन ताकतों पर शीर्ष  की चुप्पी चुपचाप इस नए साल में भी चली आई है। गौर करे तो हमारे गांव कोरोना से खौफजदा नहीं है। वहां शायद  है।बाईस को इक्कीस से शांत और स्वस्थ क्यों नहीं होना चाहिए रोज़ी रोटी के संघर्ष में कोरोना सर नहीं उठा पा रहा है। वहां तो अब तक मास्क भी मुंह का हिस्सा नहीं बने  हैं।  शहर के विशेषज्ञ चीखें जा रहे हैं कि डरो ओमिक्रोन आ गया है यह डेल्टा वेरिएंट जैसा खतरनाक नहीं लेकिन कुछ भी हो सकता है। जर्मन कवि  बर्तोल ब्रेख्त ने लिखा भी है 

मैं खूब जानता था 

कि शहर 

बनाए जा रहे हैं 

मैं नहीं गया 

उन्हें देखने 

इसका सांख्यिकी वालों से ताल्लुक है 

न की इतिहास से 

मैंने सोचा 

क्या होगा शहरों के बनाने से  

यदि उन्हें  बगैर 

लोगों की बुद्धिमानी के बनाया। 

अब ये शहर सच ही मैं एक सांख्यिकी में उलझ गए हैं। कोरोना का संख्याबल शहर में ही सर उठा रहा है। बर्तोल ब्रेख्त की कविता से उस लेख की शुरुआत भी हुई है जिसे वाशिंगटन पोस्ट ने प्रकाशित किया है। आलेख उस चुप्पी पर है जो इस समय भारत सरकार की ओर से बरती गई है। आलेख का शीर्षक है भारत में मुसलमानों के नरसंहार की आवाज तेज, मोदी का मौन इसे स्वीकृति देता हुआ। शुरूआत में बर्तोल ब्रेख्त की जिन पंक्तियों का उल्लेख है उनका आशय है जब पहली बार हमारे मित्र मारे गए तब स्याह डर सब तरफ फ़ैल गया फिर सौ और मारे गए और जब यह तादाद हजार हुई तब इस अंत का कोई अंत नहीं था  बल्कि चुप्पी का कंबल ताने सब पड़े रहे और उसके बाद   कोई इन शैतानी ताकतों को रोक नहीं पाता । दरअसल ब्रेख्त की यह कविता उस रहस्य से परदा उठा देती है कि फिर चीजों को बेकाबू मान लिया जाता है और जलते हुए मकान उस  गरीब के ही होते हैं जो न उकसाने वालों का जानता है और न किसी बचाने वालों  को। 

हरिद्वार और रायपुर में आयोजित धर्म संसद किस किस्म की धर्म संसद थी जिसमें कत्ले आम का आव्हान किया जा रहा है। साधु फ़कीर के भेष में ये किसे अपमानित कर रहे हैं? इन्हें कोई कैसे स्वामी ,बाबा या महाराज कह सकते हैं जबकि इन उपाधियों  के साथ भारत वर्ष की  महान  संतानों के नाम जुड़े हैं ? किस धर्म संसद में अध्यात्म की जगह मरने-मारने के लिए उकसाया जाता है। बात बात पर देशद्रोह और U A P A का सहारा लेने वाली सरकार यहां चुप है और जब गांधी को अपमानित करनेवाले कालीचरण को छत्तीसढ़ पुलिस गिरफ्तार करती है तो सरकार के मंत्री गिरिराजसिंह उल्टे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को ही कटघरे में खड़ा करते हैं। यहां राज की मंशा  भी जाहिर हो जाती है और सत्ता का संरक्षण किसे मिला हुआ है यह भी। 

धर्म संसद की अवधारणा में एक को दूसरे के खिलाफ भड़काने की शैली भला क्यों और कैसे जुड़ जाती है ? अक्सर यह  चुनाव के नजदीक होने को  ही पुष्ट करता है । अब तो सीमा पर नहीं घर में तनाव पैदा किया जाता है। द वाशिंगटन पोस्ट के आलेख पर लोटते हैं। लेख कहता है यह देश में हो क्या  रहा है जातीय संहार और महात्मा गांधी की हत्या करनेवालों का महिमामंडन राजनीतिक विमर्श का हिस्सा हो जाता है। यह देश में हो क्या  रहा  कि भीड़ के पीट पीट  कर किसी मुसलमान को मार देने का बहुसंख्यक विरोध तक नहीं कर पाते और जहां पर सरकार मदर टेरेसा जो विश्व में मानव सेवा की मिसाल हैं उनकी  संस्था के अंतर्राष्ट्रीय दान पर रोक लगा देती है। यह देश में हो क्या  रहा है जहां एक टीवी चैनल का मालिक देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए लड़ो, मारो और मर जाओ की बात कहता है। यह देश में हो क्या  रहा जब क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली को हटा दिया जाता है क्योंकि वह अपने मुस्लिम साथी के साथ खड़े रहते हैं फिर  कट्टरवादी जिन्हें निशाना बनाते हैं। 

उत्तर साफ और  सीधा है कि सत्ता उस पक्ष  के बचाव में खड़ा  है जो अल्पसंख्यक पर वार करता है। राणा अयूब के इस लेख के बाद यकीनन देश की साख नहीं बढ़नेवाली क्योंकि सरकार की और से अब तक कोई सख्त आवाज़ नहीं आई है जो इन देशरोधी ताकतों के कान उमेठे । हां बस इतनी ही चेष्टा एक बड़ा कदम हो सकती है। कान धरने पर यही समझ आता है कि चुनावी दिनों में यह सब बहुत बढ़ जाता है और ऐसा सिर्फ इसलिए होता है कि उन्हें लगता है इससे चुनाव में फायदा होता है। क्या पार्टी विशेष की यह चुप्पी जनता को पसंद है क्या जनता इस तरह की भाषाशैली को वोट में तब्दील करती है। महात्मा गांधी का अपमान करते हुए रायपुर की धर्म संसद में कालीचरण महाराज कह जाते हैं कि कट्टर हिंदूवादी को चुनने के लिए भर भर के वोट करो। क्या वाकई जनता इस नफरती भाषा के आधार पर वोट देने का मन बनाती है? तब तो खामी हमारी ही हुई। एक दल को यह आभास क्योंकर हुआ कि अभद्र और  उकसानेवाली भाषा पर उसकी चुप्पी उसे वोट दिला सकती है। जवाब जनता को ही देना होगा क्योंकि लोकतंत्र में उसी की आवाज के मायने हैं, वही दलों की गलतफहमी भी दूर कर सकती है। दल विशेष को तात्कालिक लाभ ज़रूर हो भी सकता है लेकिन देश के लिए यह अच्छा समय नहीं है यह इसके महीन ताने बाने के साथ छेड़छाड़ है।बाईस को इक्कीस से शांत और स्वस्थ क्यों नहीं होना  चाहिए?




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