नसबंदी नहीं नब्ज़बंदी
ये बेदान बाई हैं जिनकी बेटी की बिलासपुर के नसबंदी शिविर में नब्ज़ बंद हो गयी। अब इस बच्ची की माँ जैसी देखभाल कौन करेगा। ।तस्वीर AP |
बिलासपुर के नसबंदी शिविर में पंद्रह युवा माओं की जान चली गयी। हादसे के भी छत्तीसगढ़ सरकार की नीयत तह तक पहुंचने की नहीं लगती, जांच की जिम्मेदारी एकल न्याय आयोग को दी गई है। न्यायाधीश अनीता झा सेवानिवृत्ति के बाद छत्तीसगढ़ वाणिज्यिक कर अभिकरण में अध्यक्ष पद के लिए पहले ही आवेदन कर चुकी हैं। जिस आदिवासी लड़की मीना खलखा को माओवादी बताकर पुलिस ने हत्या कर दी थी उस मामले की जांच भी इन्हं हीे सौंपी गई थी। रिपोर्ट तीन महीने में आनी थी आज तक नहीं आई।
पिछले साल भारत में चालीस लाख नसबंदी ऑपरेशन हुए और इन्हें कराने वाली 97 फीसदी महिलाएं थीं यानी केवल तीन फीसदी पुरुषों को अपने परिवार की चिंता थी। यह छोटा सा आंकड़ा भारत के उस पारिवारिक संस्कृति की पोल भी खोलता है कि यह अगर जीवित है तो उसका 97 प्रतिशत श्रेय स्त्री को ही जाता है। वही बच्चों का लालन-पालन भी करती है तो वही अपने शरीर में एेसी व्यवस्था भी कराती है कि पति को कोई कष्ट ना हो। वही अपनी सखी परिचित से सलाह-मश्विरा कर एेसे उपाय अपनाती है कि चल इस बार तो नसबंदी करा ही लेते हैं नहीं तो फिर एक बच्चा आ जाएगा। सब जानते हैं कि पुरुष नसबंदी अधिक आसान है
यहां बात टीवी विज्ञापन में दिखाए जाने वाले हंसते-मुस्कुराते अमीर परिवारों की नहीं हो रही है। ये बात उन महिलाओं की है जो बच्चा जनने के लिए भी सरकारी अस्पतालों पर आश्रित है तो बच्चों का आगमन रोकने के लिए भी । दोनों ही हालात में मौत की आशंका भी उसी से जुड़ी है। सरकारी अस्पताल साधन और सुविधा संपन्न नहीं हैं, यही तथ्य है।
जनसंख्या विस्फोट भारत की सबसे बड़ी समस्या है जो समूचे विकास को लील जाती है। सरकारों ने इस संकट को जाना है और विस्फोटक अंदाज में ही हल के प्रयास किए हैं। लक्ष्य है कि 2026 तक भारत में प्रति महिला बच्चा जनने की दर 2.1 हो जाए जबकि चीन ने तो वर्तमान दर ही 1.55 कर ली है। अभी भारत में ये 2.55 है। बिलासपुर में उस दिन एक चिकित्सक ने पांच घंटों में 83 महिलाओं की नसबंदी की। जाहिर है डॉक्टर्स पर नसबंदियों का दबाव है लेकिन यह दबाव गरीब, असाक्षर और कुपोषित स्त्री पर ही चलता है। तस्वीर देखिए, छत्तीसगढ़ की स्त्रियों की। हरेक कम उम्र की कमजोर, युवा मां है।
चालीस लाख के आंकड़ों की भयावह सच्चाई है कि ये नसबंदियां बस कर दी जाती हैं। वैसे ही जैसे नगर निगम उन आवारा पशुओं की कर डालता है ताकि संख्या और ना बढ़े। हमारी सरकार और उनकी व्यवस्था भी स्त्री को इससे ज्यादा इज्जत नहीं बख्शती। ऐसा कहर तो आपातकाल में भी नहीं मचा था जब संजय गांधी ने जबरदस्ती नसबंदी अभियान चलाया था।
सरकारी चिकित्सा तंत्र ये मानते रहे हैं कि इन महिलाओं में कहां इतनी जागरुकता है जो वे कुछ महसूस कर सकें। संक्रमण ना होने के किसी भी मानदंड पर ये तरीके खरे नहीं उतरते। ऑपरेशन कक्ष, औजार, मरीज के कपड़े सब संक्रमण के लिए खुले हैं। ऊपर से दवाईयां भी नकली। मौत का पूरा इंतजाम यहां होता है। जिंदा रहते भी हैं तो यह मरीज की अपनी प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्युनिटी है। शिविरों का सच इतना ही खौफनाक है। आंखों के शिविर मरीजों की रोशनी से खिलवाड़ कर जाते हैं लेकिन बिलासपुर ट्रेजेडी पंद्रह युवा मातााओं की जान से खेल गई है।
छत्तीसगढ़ सरकार की नीयत तह तक पहुंचने की नहीं लगती, यह और चिंता की बात है। यह परिवार नियोजन कार्यक्रम के हित में भी नहीं होगा। क्या कोई सरकार इतनी पारदर्शी नहीं हो सकती कि कहे कि हम दोष और दोषी को सार्वजनिक करेंगे। शायद ऐसा करने पर सरकार स्वयं कटघरे में होगी। एक नहीं कई स्तरों पर तभी तो जांच की जिम्मेदारी एकल न्याय आयोग को दी गई है। न्यायाधीश अनीता झा सेवानिवृत्ति के बाद छत्तीसगढ़ वाणिज्यिक कर अभिकरण में अध्यक्ष पद के लिए पहले ही आवेदन कर चुकी हैं। जिस आदिवासी लड़की मीना खलखा को माओवादी बताकर पुलिस ने हत्या कर दी थी उस मामले की जांच भी इन्हं हीे सौंपी गई थी। रिपोर्ट तीन महीने में आनी थी आज तक नहीं आई। जब नतीजे ऐसे ही दरगुजर किए जाते रहेंगे तो मान के चलना चाहिए कि सरकारें स्त्री और उसकी सेहत दोनों के लिए संवेदनहीन है।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20-11-2014 को चर्चा मंच पर तमाचा है आदमियत के मुँह पर { चर्चा - 1803 } में दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
aapka bahut shukriya dilbag virk ji
जवाब देंहटाएंसमसामयिक पोस्ट ..बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंblog soone soone se lagte hain kam samwaad hota hai ab...shukriya sumanji.
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